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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 2 : सूत्र 3

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    Vidyasagar.Guru

    अब औपशमिक भाव के दो भेद कहते हैं-

     

    सम्यक्त्व-चारित्रे॥३॥

     

     

    अर्थ - औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र ये दो औपशमिक भाव के भेद हैं।

     

    English - The two kinds of disposition arising from subsidence are right belief and right conduct.

     

    अनन्तानुबन्धी, क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन सात कर्म प्रकृतियों के उपशम से जो सम्यक्त्व होता है, उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं तथा समस्त मोहनीय कर्म के उपशम से औपशमिक चारित्र होता है।

     

    विशेषार्थ - उपशम सम्यक्त्व के दो भेद हैं - प्रथमोपशम सम्यक्त्व और द्वितीयोपशम सम्यक्त्व। पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से छूटने पर जो उपशम सम्यक्त्व होता है, उसे प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहते हैं और उपशम श्रेणी चढ़ते समय क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से जो उपशम सम्यक्त्व होता है, उसे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं।

     

    प्रथमोपशम सम्यक्त्व होने से पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में पाँच लब्धियाँ होती हैं - क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशना लब्धि, प्रायोग्य लब्धि और करण लब्धि। इनमें से प्रारम्भ की चार लब्धियाँ तो भव्य और अभव्य दोनों के हो जाती हैं, किन्तु करण लब्धि भव्य के ही होती है तथा जब सम्यक्त्व होना होता है तभी होती है। जब अशुभ कर्म प्रतिसमय अनन्त गुणी कम कम शक्ति को लिए हुए उदय में आते हैं अर्थात् पहले समय में जितना फल दिया, दूसरे समय में उससे अनन्त गुणा कम, तीसरे समय में उससे अनन्त गुणा कम, इस तरह प्रति समय अनन्त गुणा घटता हुआ उदय जिस काल में होता है, तब क्षयोपशम लब्धि होती है। क्षयोपशम लब्धि के प्रभाव से धर्मानुराग रूप शुभ परिणामों का होना विशुद्धि लब्धि आचार्य वगैरह के द्वारा उपदेश का लाभ होना देशना लब्धि है। किन्तु जहाँ उपदेश देने वाला न हो, जैसे चौथे आदि नरकों में, वहाँ पूर्वभव में सुने हुए उपदेश की धारणा के बल पर सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। इन तीनों लब्धि वाला जीव प्रतिसमय अधिक-अधिक विशुद्ध होता हुआ आयु कर्म के सिवा शेष कर्मों की स्थिति जब अन्तः कोटाकोटि सागर प्रमाण बांधता है और विशुद्ध परिणामों के कारण वह बंधी हुई स्थिति संख्यात हजार सागर कम हो जाती है, उसे प्रायोग्य लब्धि कहते हैं। पाँचवीं करण लब्धि में अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये तीन तरह के परिणाम कषायों की मन्दता को लिए हुए क्रमवार होते हैं। इनमें से अनिवृत्ति करण के अन्तिम समय में पूर्वोक्त सात प्रकृतियों का उपशम होने से उपशम सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है। समस्त मोहनीय का उपशम होने से ग्यारहवें गुणस्थान में औपशमिक चारित्र होता है।


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