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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 5 : सूत्र 38

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    Vidyasagar.Guru

    अब दूसरी तरह से द्रव्य का लक्षण कहते हैं-

     

    गुणपर्ययवद् द्रव्यम् ॥३८॥

     

     

    अर्थ - जिसमें गुण और पर्याय पायी जाती है, उसे द्रव्य कहते हैं।

     

    English - That which has qualities and modes is a substance.

     

    विशेषार्थ - द्रव्य में अनेक परिणमन होने पर भी जो द्रव्य से भिन्न नहीं होता, सदा द्रव्य के साथ ही रहता है, वह गुण है। इसी से गुण को अन्वयी कहा गया है। और जो द्रव्य में आती जाती रहती है, वह पर्याय है। इसी से पर्याय को व्यतिरेकी कहा है। गुण-पर्याय रूप ही द्रव्य है। जैसे ज्ञान आदि जीव के गुण हैं और रूप आदि पुद्गल के गुण हैं। न ज्ञान जीव को छोड़कर रह सकता है और न रूप रस आदि गुण पुद्गल को छोड़कर रह सकते हैं। हाँ, ज्ञान गुण में भी परिणमन होता है, जैसे घटज्ञान, पटज्ञान। और रूप आदि में भी परिणमन होता है। यह परिणमन ही पर्याय है।

     

    पहले द्रव्य का लक्षण सत् कहा था और सत् का लक्षण ‘‘उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से जो युक्त हो वही सत् है' ऐसा कहा था। यहाँ गुण पर्यायवान को द्रव्य कहा है। इन दोनों लक्षणों में कोई अन्तर नहीं है। एक के कहने से दूसरे का अन्तर्भाव हो जाता है; क्योंकि गुण ध्रुव होते हैं और पर्याय उत्पाद-विनाशशील होती है। यदि द्रव्य में गुण न हों तो वह ध्रौव्य युक्त नहीं हो सकता और यदि पर्याय न हों तो वह उत्पाद-व्यय युक्त नहीं हो सकता। अतः जब हम कहते हैं कि द्रव्य ध्रौव्ययुक्त है तो उसका मतलब होता है कि द्रव्य गुणवान है। और जब उसे उत्पाद-विनाश वाला कहते हैं तो उसका मतलब होता है कि वह पर्यायवान है। अतः दोनों लक्षण प्रकारान्तर से एक ही बात को कहते हैं। यहाँ इतना और समझ लेना चाहिए कि द्रव्य, गुण और पर्याय की सत्ता जुदी जुदी नहीं है, किन्तु सबका अस्तित्व अथवा सत्ता एक ही है, जो द्रव्य के नाम से कही जाती है। इसी सत् को द्रव्य कहा है।


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