अब पाप प्रकृतियों को कहते हैं-
अतोऽन्यत्पापम् ॥२६॥
अर्थ - इन पुण्य कर्म प्रकृतियों के सिवा शेष कर्म प्रकृतियाँ पाप प्रकृतियाँ हैं। सो ज्ञानावरण की पाँच, दर्शनावरण की नौ, मोहनीय की छब्बीस, अन्तराय की पाँच, ये घातिया कर्मों की प्रकृतियाँ पाप-प्रकृतियाँ हैं। नरक गति, तिर्यञ्च गति, एकेन्द्रिय आदि चार जातियाँ, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, नरक गत्यानुपूर्व्य, तिर्यग्गत्यानुपूर्व्य, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति ये नामकर्म की चौंतीस प्रकृतियाँ, असाता वेदनीय, नरकायु और नीच गोत्र। इस तरह बयासी प्रकृतियाँ पाप-प्रकृतियाँ हैं।
English - The remaining varieties of karma constitute demerit.
विशेषार्थ - घातिया कर्म तो चारों अशुभ ही हैं और अघातिया कर्मों की प्रकृतियाँ पुण्य रूप भी हैं और पाप रूप भी हैं। उनमें भी स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण पुण्य रूप भी हैं और पाप रूप भी हैं। इसलिए उनकी गणना पुण्य प्रकृतियों में भी की जाती है और पाप प्रकृतियों में भी की जाती है। इससे ऊपर गिनाई गयी पुण्य और पाप प्रकृतियों का जोड़ ८२+४२ =१२४ होता है। किन्तु बन्ध प्रकृतियाँ १२० ही हैं। जबकि आठों कर्मों की कुल प्रकृतियाँ ५+९+२+२८+४+९३+२+५=१४८ हैं।
इनमें पाँच बन्धन और पाँच संघात तो शरीर के साथी हैं- अर्थात् यदि औदारिक शरीर का बन्ध होगा तो औदारिक बन्धन और औदारिक संघात का अवश्य बन्ध होगा। इसलिए बन्ध प्रकृतियों में पाँच शरीरों का ही ग्रहण किया है। अतः पाँच बन्धन और पाँच संघात ये १० प्रकृतियाँ कम हुईं और वर्ण गन्ध आदि के बीस भेदों में से केवल वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श इन चार को ही ग्रहण किया है, इससे १६ प्रकृतियाँ ये कम हुई। तथा दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियों में से केवल एक मिथ्यात्व का ही बन्ध होता है। अतः दो ये कम हुई। इस तरह अट्ठाईस प्रकृतियों के कम होने से बन्धयोग्य प्रकृतियाँ १२० ही रहती हैं। इस तरह बन्ध का वर्णन समाप्त हुआ।
॥ इति तत्त्वार्थसूत्रे अष्टमोऽध्यायः ॥८॥