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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 3अ - जिन - धर्म तीर्थ प्रवर्तक - तीर्थङ्कर

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    तीर्थकर का स्वरूप –

    धर्म का प्रवर्तन कराने वाले महापुरुष तीर्थकर कहलाते हैं। तीर्थकरों के गर्भ, जन्म, तप, केवल ज्ञान और निर्वाण ये पाँच कल्याणक होते हैं। इन्द्रों के द्वारा किये जाने वाले महोत्सव विशेष को कल्याणक कहते हैं।

     

    तीर्थकर प्रकृति का बंध -

    तीर्थकर बनने के संस्कार सोलह कारण रूप अत्यन्त विशुद्ध भावनाओं द्वारा उत्पन्न होते हैं, उसे तीर्थकर प्रकृति का बंधना कहते हैं। ऐसे परिणाम केवल मनुष्य भव में और वहाँ भी किसी तीर्थकर वा केवली के पादमूल में ही होने से सम्भव हैं।

     

    चौबीस तीर्थकर -

    चौबीस तीर्थकरों के क्रम, नाम, चिह्न निम्नलिखित हैं :-

    1. ऋषभनाथ जी - बैल
    2. अजितनाथ जी - हाथी
    3. संभवनाथ जी - घोड़ा
    4. अभिनन्दन नाथ जी - बंदर
    5. सुमति नाथ जी - चकवा
    6. पद्म प्रभु जी - लाल कमल
    7. सुपाश्र्वनाथ जी - साथियाँ
    8. चन्द्रप्रभ जी - चन्द्रमा
    9. पुष्पदंत जी - मगर
    10. शीतल नाथ जी - कल्पवृक्ष
    11. श्रेयांस नाथ जी - गेंडा
    12. वासूपूज्य जी – भैसा
    13. विमलनाथजी - सूकर
    14. अनन्तनाथ जी - सेही
    15. धर्मनाथ जी - वज्रदण्ड
    16. शान्तिनाथ जी - हिरण
    17. कुन्थु नाथ जी - बकरा
    18. अरनाथ जी - मत्स्य
    19. मल्लिनाथजी - कलश
    20. मुनिसुव्रत जी - कछुवा
    21. नमिनाथ जी - नील कमल
    22. नेमिनाथ जी - शख
    23. पाश्र्वनाथ जी - सर्प
    24. महावीर जी - सिंह

     

    • श्री वासुपूज्य, श्री मल्लिनाथ, श्री नेमिनाथ, श्री पाश्र्वनाथ और श्री महावीर ये पाँच तीर्थकर बाल ब्रह्मचारी थे अर्थात् इन्होनें विवाह नहीं कराया एवं राज-पाट भोगे बिना कुमार अवस्था में ही दीक्षा धारण की।
    • एक से अधिक नाम वाले तीन तीर्थकर हैं :-  श्री ऋषभ नाथ जी -   आदिनाथ जी     श्री पुष्पदन्त जी –   सुविधिनाथ जी      श्री महावीर जी –   वीर, अतिवीर, वर्द्धमान, सन्मति
    • आदिनाथ भगवान – कैलाश पर्वत से, वासुपूज्य भगवान - चंपापुर से नेमिनाथ भगवान - गिरनार पर्वत से, महावीर भगवान - पावापुर से व शेष बीस तीर्थकर श्री सम्मेदशिखर जी से मोक्ष गये।
    • शांतिनाथ जी, कुन्थुनाथ जी व अरनाथ जी एक साथ तीन पद तीर्थकर, चक्रवर्ती और कामदेव पद के धारी थे।
    • तीर्थकरों के पांच वर्ण प्रसिद्ध हैं - जिसमें चन्द्रप्रभ व पुष्पदन्त जी का गौर वर्ण, मुनिसुव्रत व नेमिनाथ जी का साँवला वर्ण, सुपाश्र्वनाथ एवं पाश्र्वनाथ जी का हरा वर्ण, पद्मप्रभ एवं वासुपूज्य जी का लाल वर्ण तथा शेष सोलह तीर्थकरों का स्वर्ण वर्ण था।
    • मल, मूत्र आदि अशुद्ध पदार्थ तीर्थकरों के शरीर में नहीं होते। इनके शरीर के खून का रंग दूध जैसा सफेद होता है। जिस प्रकार पुत्र के प्रति वात्सल्य भाव होने से माता के द्वारा किया हुआ भोजन का कुछ अंश दूध के रूप में परिणत हो जाता है उसी प्रकार तीर्थकर का तीनों लोकों के प्राणियों के प्रति वात्सल्य भाव होने से उनके खून का रंग दुध के समान श्वेत होता है।
    • तीर्थकरों के दाढ़ी पूँछ नहीं होती। परन्तु सिर पर बाल होते हैं।
    • तीर्थकर स्वयं दीक्षित होते हैं, दीक्षा लेते ही उन्हें मन: पर्यय ज्ञान प्रकट हो जाता हैं।
    • सभी तीर्थकर चतुर्थकाल में ही जन्म लेते हैं एवं उसी काल में निर्वाण को प्राप्त होते हैं किन्तु हुण्डा अवसर्पिणी काल दोष से आदिनाथ भगवान तृतीय काल में ही जन्म लेकर निर्वाण को प्राप्त हुए अर्थात् मोक्ष गये।
    • वृषभनाथ, वासुपूज्य और नेमिनाथ (१,१२, २२) तो पद्मासन एवं शेष सभी तीर्थङ्कर कायोत्सर्गासन (खड्गासन) से मोक्ष पधारे थे, किन्तु समवसरण में सभी तीर्थङ्कर पद्मासन से ही विराजमान होते हैं।
    • जीवन भर (दीक्षा के पूर्व) देवों के द्वारा दिया गया ही भोजन एवं वस्त्राभूषण ग्रहण करते हैं।तीर्थङ्कर स्वयं दीक्षा लेते हैं।
    • तीर्थङ्कर मात्र सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार करते हैं। अत: 'नम:सिद्धेभ्य:' बोलते हैं।
    • जब सौधर्म इन्द्र तीर्थङ्कर बालक का पाण्डुकशिला पर जन्माभिषेक करता है। उस समय तीर्थङ्कर के दाहिने पैर के अँगूठे पर जो चिह्न दिखता है, इन्द्र उन्हीं तीर्थङ्कर का वह चिह्न निश्चित कर देता है।

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    रतन लाल

       1 of 1 member found this review helpful 1 / 1 member

    जैन तीर्थंकरों पर विशेष जानकारी

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