जिनेन्द्र भगवान के द्वारा जो सन्मार्ग का, जीवादि तत्वों का उपदेश दिया जाता है वह जिनागम कहा जाता है। इसे जिन की वाणी अर्थात् जिनवाणी भी कहते हैं।
जिन हो जाने पर प्रत्येक जीव सर्वज्ञ और वीतरागी हो जाते हैं उन्हें तीन लोक में स्थित सभी चराचर, चेतन अचेतन पदार्थों का ज्ञान हो जाता है और उनके अन्दर से राग और द्वेष का पूर्ण अभाव हो जाता है। उस अवस्था में जो उपदेश दिया जाता है, वह प्रमाणिक होता है, अत: जिनेन्द्र भगवान के वचन सर्वथा सत्य एवं ग्रहण करने योग्य हैं।
पूर्वकाल में आचार्यों, मुनियों एवं श्रावकों की बुद्धि तीक्ष्ण थी, स्मरण शक्ति भी तेज थी। उन्हें एक, दो बार गुरु मुख से सुना हुआ विषय याद हो जाता था, अत: पूर्व में जिनवाणी लिपिबद्ध नहीं थी। किन्तु कालक्रम से बुद्धि का ह्रास होने से तथा जब स्मरण शक्ति कम होने लगी तब सर्वप्रथम आचार्य पुष्पदन्त-भूतबली महाराज ने षट्खण्डागम नामक सिद्धान्त ग्रंथ को ताड़-पत्र पर उत्कीर्ण किया/लिपिबद्ध किया। यही क्रम आगे भी चलता रहा अनेक आचार्य मुनियों ने गुरु परम्परा से प्राप्त जिन-वचनों की अपनी बुद्धि, शक्ति और शैली के अनुसार अनेक ग्रंथों में लिपिबद्ध किया।
जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित आगम को विषय वस्तु के भेद से समझाने हेतु चार भागों में (अनुयोगों में) विभाजित किया गया है, वे भेद प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग हैं।
- प्रथमानुयोग –
तीर्थकर, चक्रवर्ती आदि तिरेसठ शलाका-पुरुषों के चरित्र निरूपक अनुयोग को प्रथमानुयोग कहते हैं।
आचार्य समन्तभद्र जी ने इसे बोधि और समाधि का निधान कहा है। प्रथमानुयोग पढ़ने से प्रशम भाव आता है, जब हमारे मन में उत्तेजना आती है, प्रतिकूलता में मन जब उद्वेलित होने लगता है तब हम पूर्वजों की बात समझकर/स्मरण कर समता धारण करते है।'अरे मैं किस बात पर दु:खी होता हूँ रामचन्द्र जी, सीता जी के ऊपर कितने कष्ट आये, फिर भी उनकी आँखे लाल नहीं हुई फिर मैं क्यों क्रोध करूं' ऐसा प्रशम भाव आता है।
प्रथमानुयोग के कुछ ग्रंथ– पद्म पुराण, आदि पुराण, उत्तर पुराण, हरिवंश पुराण, पाण्डव पुराण, श्रेणिक चरित्र, प्रद्युमन चरित्र, धन्यकुमार चारित्र आदि।
- करणानुयोग -
लोक अलोक का विभाग, युग परिवर्तन और चतुर्गति के जीवों की स्थिती के निरूपक अनुयोग को करणानुयोग कहते हैं। इस अनुयोग में अधोलोक, मध्यलोक और उध्र्वलोक का सविस्तार वर्णन है। इसके विषय परोक्ष (इंद्रिय अगम्य) होने से आस्था के विषय हैं तिलोयपण्णति, त्रिलोकसार, जम्बूद्वीप पण्णति आदि ग्रंथ करणानुयोग के ग्रंथ हैं।
– चरणानुयोग –
गृहस्थ और मुनियों के चारित्र की उत्पति, वृद्धि और रक्षा के कारणों का वर्णन जिन ग्रंथों में पाया जाय उन्हें चरणानुयोग जानना चाहिए। गृहस्थों का सामान्य आचार, भक्ष्याभक्ष्य विवेक, अणुव्रत, ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन, मुनियों के अट्ठाईस मूलगुणों का वर्णन, सल्लेखना का स्वरूप, विधी आदि का वर्णन इस अनुयोग का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय हैं। चरणानुयोग के कुछ ग्रंथ - रत्नकरण्डक श्रावकाचार, सागारधर्मामृत अनगार धर्मामृत, मूलाचार, भगवती आराधना, श्रावक धर्म प्रदीप, मूलाचार प्रदीप आदि।
- द्रव्यानुयोग -
जिस अनुयोग में पंचास्तिकाय, जीवादि छह द्रव्य, सात तत्व, नौ पदार्थ आदि का विस्तार से वर्णन हो उसे द्रव्यानुयोग कहते हैं। समयसार, नियमसार, द्रव्यसंग्रह, समाधि-शतक, इष्टोपदेश, तत्वार्थ सूत्र, आलाप पद्धति आदि द्रव्यानुयोग के ग्रंथ हैं। अन्य प्रकार से द्रव्यानुयोग को निम्न रुप में व्यवस्थित किया गया है।
द्रव्यानुयोग
अमागान्म अध्यात्म
सिद्धान्त–षट्खण्डागमादि भावना–कार्तिकेयानुप्रेक्षादि न्याय –अष्टसहस्त्री अादि ध्यान-ज्ञानार्णव अादि
जिनवाणी पढ़ने-सुनने से निम्नलिखित लाभ हैं -
- जिनवाणी अमृत के समान है, जिससे संसारी प्राणी का दु:ख रूपी ताप शांत हो जाता है, सहनशीलता का विकास होता हैं।
- राग-द्वेष रुप कषाय भावों में कमी आती हैं, पूर्व में बंधे हुए अशुभ कर्मों की निर्जरा होती हैं।
- अज्ञान का नाश एवं आनन्द (सुख) की उत्पति होती हैं।
- निरवद्य स्वाध्याय करते समय पाप का बंध रुक जाता हैं।
- सच्चे देव-शास्त्र-गुरु पर आस्था मजबूत होती हैं।
- देवों के द्वारा पूजातिशय को प्राप्त होते हैं।
- न समझ आने पर भी श्रद्धा पूर्वक सुना हुआ जिनवचन भविष्य में केवल ज्ञान की उत्पत्ति में कारण बनता हैं।
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