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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • श्री ज्ञानसागरजी मुनि महाराज के पावन चरणों में सादर श्रद्धांजलि

       (1 review)

     

     

    गुरो ! दल दल में मैं था फँसा, मोह-पाश से हुआ था कसा ।

    बन्ध छुड़ाया, दिया आधार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १ ।।

     

    पाप पंक से पूर्ण लिप्त था, मोह नींद में सुचिर सुप्त था ।

    तुमने जगाया किया उपचार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। २ ।।

     

    आपने किया महान उपकार, पहनाया मुझे रतन-त्रय हार ।

    हुए साकार मम सब विचार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। ३ ।।

     

    मैंने कुछ ना की तब सेवा, पर तुमसे मिला मिष्ठ मेवा ।

    यह गुरुवर की गरिमा अपार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। ४ ।।

     

    निज-धाम मिला, विश्राम मिला, सब मिला, उर समकित-पद्य खिला ।

    अरे! गुरुवर का वर उपकार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। ५ ।।

     

    अँधा था, बहिरा था, था मैं अज्ञ, दिये नयन व करण, बनाया विज्ञ।

    समझाया मुझको समयसार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। ६ ।।

     

    मोह-मल धुला, शिव-द्वार खुला, पिलाया निजामृत घुला-घुला ।

    कितना था गुरुवर उर-उदार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। ७ ।।

     

    प्रवृत्ति का परिपाक संसार, निवृत्ति नित्य सुख का भंडार ।

    कितना मौलिक प्रवचन तुम्हार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। ८ ।।

     

    रवि से बढ़कर है काम किया, जन-गण को बोध प्रकाश दिया ।

    चिर ऋणी रहेगा यह संसार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। ६ ।।

     

    स्व-पर हित तुम लिखते ग्रन्थ, आचार्य उवझाय थे निर्ग्रन्थ ।

    तुम सा मुझे बनाया अनगार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १० ।।

     

    न्द्रिय-दमन कर कषाय-शमन, करते निशदिन निज में ही रमण ।

    क्षमा था तव सुरम्य शृंगार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार || ११ ||

     

    बहु कष्ट सहे, समन्वयी रहे, पक्षपात से नित दूर रहे ।

    चूँकि तुममें था साम्य-संचार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १२ ।।

     

    मुनि गावें तव-गुण-गण गाथा, झुके तुम पाद में मम माथा ।

    चलते, चलाते समयानुसार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १३ ।।

     

    तुम थे द्वादश विध तप तपते, पल पल जिनप नाम जप जपते ।

    किया धर्म का प्रसार-प्रचार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १४ ।।

     

    दुर्लभ से मिली यह "ज्ञान" सुधा, "विद्या" पी इसे, मत रो मुधा ।

    कहते यों गुरुवर यही 'सार', मम प्रणाम तुम करो स्वीकार || १५ ।।

     

    व्यक्तित्व की सत्ता मिटा दी, उसे महासत्ता में मिला दी,

    क्यों न हो प्रभु से साक्षात्कार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १६ ।।

     

    करके दिखा दी संल्लेखना, शब्दों में न हो उल्लेखना ।

    सुर, नर कर रहे जय जयकार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १७ ।।

     

    आधि नहीं थी, थी नहीं व्याधि, जब आपने ली परम-समाधि ।

    अब तुम्हें क्यों न वरे शिवनार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। १८ ।।

     

    मेरी भी हो इस विध समाधि, रोष-तोष नशे, दोष उपाधि ।

    मम आधार, सहज समयसार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकर ।। १६ ।।

     

    जय हो ज्ञानसागर ऋषिराज! तुमने मुझे सफल बनाया आज ।

    और इक बार करो उपकार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।। २० ।।

     

    श्री ज्ञानसागराय नम:

    Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव


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