‘औरंगाबाद’ सुरपुर-सा, अत्यन्त जो दर्शनीय, शोभावाला, निकट उसके, भूरि जो शोभनीय ।
छोटा सा है ‘अडपुर’ जहाँ, न्यायमार्गाभिरूढ़, धर्मात्मा हैं, जनगण अहो! जो रहे हैं अमूढ़ ।। १ ।।
धर्मात्मा थे, इस अड़पुरी, में सु-नेमी’ सुधी थे, पुण्यात्मा थे, अरु सदय थे, प्रेम कागार भी थे ।
दानी औ थे, नर कुशल थे, द्वेष से दूर भी थे, श्रद्धानी थे, वृषभ वृष के, मोद के पुंज भी थे ।। २ ।।
तन्वंगी थी, वर मृगदृगी, और थी नारि रत्ना, रत्नों में जो, परम अरुणान्वीत जैसा सुपन्ना ।
या मानो थी, गुरुतमरसी-ली यथा यों सुगन्ना, नेमी की थी, ‘दगड़ललना’, जो सदा नीतिमग्ना ।। ३ ।।
हीरा से भी, परमरुचिवाला हिरालाल बच्चा, जन्मा था जो, उन नृवर से, था तथा भूरि सच्चा ।
कांति ज्योति, कल वदन की, नेमीपुत्रांग की थी, वैसी शोभा, नयन रुचिरा, कृष्ण की भी नहीं थी ।। ४ ।।
धीरे धीरे, शिशुपन टला, जो अतिल्हादकारी, आई दौड़ी, दगड-सुत में, जो जवानी करारी ।
प्रायः सारे, तव वदन को, देख के जो कुंवारी, होती थी वे, कुसुमशर के काम के हा शिकारी ।। ५ ।।
बेटा तू तो, अब शिशु नहीं, तू बड़ा हो गया है, बेटा तेरा, यह समय तो, दर्प का आ गया है ।
ज्यों माँ बोली, अरु पितर भी, स्वीय हीरा रवी को, त्यों ही बोला, उचित वच भी, नेमिसूनू स्व-माँ को ।। ६ ।।
देखो माँ जो, इक सुललना, जो बची है सदा से, मेरी शादी, यदि हि करना, चाहती तो मुदा से ।
मैं राजी हूँ, द्रुत तुम करो, मोक्ष-रूपी रमा से, ऐसा बोला, परम सुकृती, नेमिसूनू स्व माँ से ।। ७ ।।
मेरा जी तो, शिव युवति से, मेल है चाहता माँ! वैसी नारी, अब तक नहीं, देखने को मिली मॉ ।
ऐसी स्त्री की, इस अवनि में, है नहीं प्रोपमा माँ! तो कैसे मैं, इस भवन में, जी सकूँ मोद से माँ!! ।। ८ ।।
धारा भारी, सजल दृग से, मोचती नेमि-रामा, रोती बोली, अति बिलखती, नेमिकान्ताविरामा ।
सासू तो मैं, इस सदन में, हो रहूँ एक बार, ऐसी इच्छा, मम हृदय में, हो रही बार-बार ।। ६ ।।
प्यारे बेटा, सुन वचन तो, तू कहाँ जा रहा है, मेरा जी तो, तब विरह से, कष्ट हा! पा रहा है ।
एकाकी तूं, वन गहन में, हा! न जा लाल मेरा, कैसा होता, सुतप तपना, खिन्न भी काय तेरा ।। १० ।।
जावेगा तो, यदि कुँवर तू, प्राण मेरे चलेंगे, मेरे दोनों, दृग जलज तो, जो कभी न खिलेंगे ।
मेरी काया, किसलय-समा, शुष्कता को वरेगी, या तो हा!हा! लघु समय में, काँतिहीना दिखेगी ।। ११ ।।
देखो माँ जी, भव विपिन में, हाय! तेरा न मेरा, प्रायः सारे, बुद-बुद समा, औ तथा पुत्र तेरा ।
मैं तो माँ जी, श्रमण बन के, धर्म का स्वाद लूँगा, दीक्षा लेके, सुशमदम से, दिव्य आत्मा लखूंगा ।। १२ ।।
मीठी वाणी, सुरस भरिता, भूरि माँ को सुनाया, औ भी अच्छे, वचन कह के, धैर्य माँ को दिलाया ।
माता जी के, स्मित वचन से, दुख को भी दबाया, प्रायः माँ को, जिन धरम का, पाठ भी औ पढ़ाया ।। १३ ।।
नाता तोड़ा, स्वजन-चय का, भूरि जो कष्टदायी, सारा छोड़ा, विषय विष को, जो अति क्लान्तदायी ।
आगे देखो, परम गुरु से, ‘वीर सिन्धू यती’ से, दीक्षा लेके, ‘शिव मुनि’ हुआ, मोद पाया वहीं से ।। १४ ।।
भव्यात्मा थे, मुनिगणमुखी, थे अतः साधु नेता, शांति के थे, निलय गुरुजी, दर्प के थे विजेता ।
आचार्य श्री, शिवपथरति, थे बड़ेध्यामवेत्ता । सत्यात्मा थे, करण-नग के, भी बड़े वे सुभेत्ता ।। १५ ।।
शुद्धात्मा के, तुम अनुभवी, थे अतः-अप्रमादी, संतोषी थे, वृष रसिक थे, औ अनेकान्तवादी ।
स्वप्नों में भी, न तुम करते, दूसरे की अपेक्षा, खाली देखो, शिवसदन की, आपको थी अपेक्षा ।। १६ ।।
मोक्षार्थी थे, जिनभजक थे, साम्यवादी तथा थे, ध्यानी भी थे, परहित-रती, सानुकम्पी सदा थे ।
भव्यों को थे, शिवसदन का, मार्ग भी औ दिखाते, सन्तों के तो, शिवगुरु यहाँ, जीवनाधार ही थे ।। १७ ।।
साथी को भी, अरु अहित को, देखते थे समान, थोड़ा सा भी, तब हृदय में, स्थान पाया न मान ।
दीक्षा दे के, कतिपय जनों, को बनाया सुयोगी, औ पीते थे, वृष अमृत को, चाव से थे विरागी ।। १८ ।।
कामारी थे, शिवयुवति से, मेल भी चाहते थे, नारी से तो, परम डरते, शील-नारीश भी थे ।
ज्ञानी भी थे, सुतप तपते, देह से कृश्य भी थे, मुक्ति श्री को, निशिदिन तभी, पास में देखते थे ।। १६ ।।
माथा रूपी, शिवफल तजू, आपके पादकों में, श्रद्धारूपी, स्मित कुसुम को, मोचता हूँ तथा मैं ।
मुद्रा है जो, शिवचरण में, औ रहे नित्य मेरी, प्यारी मुद्रा, मम हृदय में, जो रहे हृद्य तेरी ।। २० ।।
छाई फैली, शिव-रवि छिपी, गाढ़ दोषा अमा की, आई दौड़ी, घन दुख घटा, ले अमा फागुना की ।
आचार्य श्री, अब इह नहीं, जो बड़े थे सुसौम्य, जन्मे हैं वे, अमरपुरि में, है जहाँ स्थान रम्य ।। २१ ।।
पाया मैं तो, तव दश ना, जो बड़ा हूँ अभागा, ज्ञानी होऊँ, तव भजन को, किन्तु मैं तो सुगा गा ।
मैं पोता हूँ, भव जलधि के, आप तो पोत "दादा", ‘विद्या’ की जो, शिवगुरु अहो, दो मिटा कर्मबाधा ।। २२ ।।
श्री शिवसागराय नम:
आचार्य श्री गुरुवर्य प्रात: स्मरणीय