शंका - महाराज जी! नमोऽस्तु! महाराज जी! जैसे आचार्यश्री बड़े-बड़े आयोजन, पञ्चकल्याणक, दीक्षा-समारोह आदि करवाते हैं, जिनसे धर्मप्रभावना भी होती है। जब आयोजन सफल हो जाते हैं। तो आचार्यश्री को कैसा लगता होगा, उनको कैसा महसूस होता होगा ?
- श्री अभिषेक जैन, सतना
समाधान - देखिए, यदि सामान्य रूप से देखा जाए तो कोई भी व्यक्ति अगर सफलता पाता है तो उसके मन में प्रसन्नता होती ही है। इस तरह की आंशिक प्रसन्नता हमने गुरुदेव के मुख पर भी देखी और इस तरह की प्रतिक्रिया भी उनके मुख से सुनी, लेकिन आध्यात्मिक लोगों के जीवन में इस तरह की प्रतिक्रियाएँ बहुत कम होती हैं और वे उसको ज्यादा महत्त्व नहीं देते हैं। गुरुदेव के संदर्भ में एक घटना बताना चाहता हूँ, सन् 2001 में जब कुण्डलपुर का महामहोत्सव खूब धर्मप्रभावना के साथ सम्पन्न हुआ, ऐसा आयोजन न तो भूत में हुआ न भविष्य में होगा। जैनियों का पहला और आखिरी आयोजन था। पूरे जैन समाज का जिसमें बीस लाख लोग सम्मिलित हुए। उम्मेदमल जी पाण्डेय वहाँ के कलश आवण्टन समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। उन्होंने भरी सभा में कहा मैं श्रवणबेलगोला में भी कलश आवण्टन समिति का अध्यक्ष रहा, बावनगजा की कलश आवण्टन समिति का भी अध्यक्ष रहा और महावीर जी के कलश आवण्टन समिति का भी अध्यक्ष रहा, पर जो व्यवस्था एवं जो जनता यहाँ उमड़ी, कहीं नहीं उमड़ी। यह उम्मेदमल जी पाण्डेय के शब्द थे। इतना बड़ा आयोजन, जिसमें बीस लाख लोग सम्मिलित हुए, 16 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ वह कार्यक्रम था। आयोजन सम्पन्न होने के बाद मैंने देखा गुरुदेव अपने कक्ष में बैठे हैं। हम लोग रोज आचार्य भक्ति के बाद गुरु चरणों में बैठते थे। उस दिन किसी कारण मैं कुछ विलम्ब से पहुँचा और देखा आचार्य महाराज अत्यन्त गम्भीर हैं और सब चुपचाप बैठे हैं। मैं पहुँचा, मैंने देखा मामला कुछ गड़बड़ है। आचार्य महाराज के मुख से एक ही बात निकल रही थी- "प्रशमाय वनान्तमाश्रिताः" यह शब्द रह-रहकर निकल रहे थे। अब मुझे तो हुलहुली पड़ी थी, मैंने चर्चा का वातावरण बदलने के लिए गुरुदेव से कहा- गुरुदेव आज हम लोगों से कुछ अपराध हो गया-सा लगता है। गुरुदेव बोले- क्यों क्या बात है ? मैंने बोला- रोज आधा घंटे का समय आपसे मिलता है, पता नहीं आगे कब आप हमें आज्ञा दे दो और हमें विदा कर दो। यही समय मिलता है और आज आप बिल्कुल शान्त बैठे हैं। हम लोगों को कुछ अच्छा नहीं लग रहा है।
उन्होंने जो शब्द कहे- वह उनकी आन्तरिक मन:स्थिति की अभिव्यक्ति है, उन्होंने बुझे मन से कहा- क्या बताऊँ ? "प्रशमाय वनान्तमाश्रिताः" प्रशम के लिए साधु वन में आते हैं, पर यहाँ वन में भी भीड़ है, अब मैं क्या करूँ ? आचार्य महाराज के विषय में मैं सिर्फ इतना कहूँगा कि भीड़ उनके पीछे भागती है और वह भीड़ से दूर भागते हैं। उनके मन में भीड़ नहीं। वह कहते हैं, कई बार कहते हैं कि धर्म की प्रभावना करना लेकिन उसका प्रभाव अपने मन पर मत पड़ने देना। वह बहुत ज्यादा प्रमुदित नहीं होते और बहुत जल्दी प्रभावित नहीं होते। यह उनकी जीवन की विशेषता है।