शंका - महाराज जी ! नमोऽस्तु! मेरा प्रश्न यह है कि आचार्य श्री ने जितनी भी मुनिदीक्षाएँ दीं, क्या उन्होंने कभी उन मुनियों से कोई अपेक्षा की ?
- सुश्री दिया जैन, किशनगढ़
समाधान - देखिए, मैंने तो देखा है कि उनको किसी से अपेक्षा नहीं, उन्हें खुद से अपेक्षा है। बल्कि जब भी वह किसी को मुनि दीक्षा देते हैं, हमेशा कहते हैं कि मैं तुम्हें जो कुछ भी दे सकता था, दे दिया, अब अपना रास्ता तुम्हें खुद बनाना है। वह हमसे कभी अपेक्षा नहीं रखते। वह सदैव निरपेक्ष भाव से रहे। एक घटना मुझे। याद आ रही है। जब कुण्डलपुर में पहली बार गुरुदेव ने आर्यिका दीक्षा दी, सन् 1987 की बात है, आर्यिका दीक्षा देने के बाद आर्यिकाओं का पृथक् विहार हुआ। उन्होंने पहले ही कह दिया था कि मैं दीक्षा दे दूंगा पर संघ में नही रखूँगा। गुरुदेव ने कभी भी आर्यिका संघों को स्थायी रूप से संघ में नहीं रखा। आवागमन होता रहता है, अलग बात है। जब वह सब चले गए, थोड़ा खाली-खाली लग रहा था। हम लोग बैठे थे, मूलाचार के स्वाध्याय की तैयारी थी तो हमने ऐसे ही चर्चा में कहा कि गुरुदेव आज खालीपन-सा लग रहा है। गुरुदेव ने सुनते ही कहा- प्रमाण सागर जी! "णिग्गंध लिंगो णिरावेक्खो" आचार्य कुन्दकुन्द की एक गाथा को उद्धृत करते हुए कहा- "णिग्गंध लिंगो णिरावेक्खो" निर्ग्रन्थ लिंग निरपेक्ष होता है। इसमें उलझो मत, अपने जीवन को आगे बढ़ाने की कोशिश करो, अपना जीवन आगे होगा। आपने कहा कि उनकी कोई अपेक्षा ? मेरी दृष्टि में उनके अन्दर कोई अपेक्षा नहीं होती। केवल एक ही अपेक्षा होती है कि तुमने जिस मार्ग को अंगीकार किया है उसे अच्छे से सम्हालकर रखना और अपने जीवन में आगे बढ़ना, पीछे मत हटना।