यह उन दिनों की बात है, जब प्रकृति वाला प्रकृति को छोड़कर कहीं अन्यत्र चला गया। प्रकृति थी अमरकण्टक में और वह पेण्ड्रा गाँव चला गया। प्रकृति वाला प्रकृति से अलग होते ही बीमार पड़ गया या यूँ कहो प्रकृति को उनका अलग होना सहन नहीं हुआ जिससे उसने उनको बीमार कर दिया। बीमारी तो बीमारी होती है लेकिन जिसमें प्रकृति का हाथ हो उसका तो कहना ही क्या ? यहाँ पर तो ‘गुड़वेल और नीम चढ़ी'। अर्थात् गुड़वेल तो स्वभाव से कड़वी होती ही है और नीम पर चढ़ी हो तो कहना ही क्या? यही स्थिति उस रोग की थी।
शुरूआत में उस रोग की प्रकृति ज्ञात नहीं हो पा रही थी। कई स्थानों से वैद्य एवं डॉक्टर्स का आना हुआ। इतना तक कि दूसरे प्रदेश से वायुमार्ग से भी डॉक्टर का आगमन हुआ। अतः ज्ञात हुआ कि यह रोग तो हरपिश है। जिसे हिन्दी में अग्निमाता के नाम से जानते हैं। डॉ0 का कथन था - यह रोग भयानक रोग माना जाता है। इस रोग की वेदना के बारे में मैं इतना ही कहूँगा कि घाव में सुई चुभाने से जितनी वेदना होती है उतनी इस रोग में हवा लगने से या भूमि का स्पर्श होने से होती है। उस वेदना को देखकर ऐसा लगता था मानो करूणा को भी दया आ गई हो।
वेदना बहुत थी, साथ ही चातुर्मास की स्थापना का समय भी पास में ही था मुझे लगा कि अब चातुर्मास इसी गाँव में करना पड़ेगा। कुछ दिन बीतने के उपरान्त न जाने प्रकृति को क्या सूझा जो पचास कदम नहीं चलते वह पचास किलोमीटर चलने को कह रहे हैं। करते भी तो क्या जब प्रकृति को यही पसंद था। मुझे लगा जैसे प्रकृति बुला रही हो।
आचार्य श्री जी ने कहा जो महाराज अस्वस्थ हैं वह सभी पास वाले कच्चे रास्ते से निकल जावे और स्वस्थ महाराज पक्के रास्ते से चलें विहार करते ही पानी बरसने लगा। एक वेदना तो यह थी कि आचार्य श्री चल ही नहीं पा रहे थे और दूसरी यह कि रास्ते में पानी भर गया। जबकि यह हवा पानी उस रोग को बढ़ाने में सहायक थे। इतनी वेदना और मौसम की प्रतिकूलता ने सभी लोगों की आखों में पानी ला दिया। सभी गुरुभक्त दर्शकों की आखों में भी पानी की धार निकल पड़ी।
आचार्य श्री इतनी वेदना में भी पहले ही दिन 12 कि0मी0 चल गये। सभी को देखकर आश्चर्य हुआ। आचार्य श्री समय से एक दिन पूर्व ही अमरकण्टक आ गये। उनके पहुँचने के पहले ऐसा लग रहा था जैसे प्रकृति उनके स्वागत में पलक पॉवड़े बिछाये बेसब्री से इंतजार कर रही हो। देवताओं ने भी स्वागत किया बादल फूट-फूट कर रोने लगा और उसने अपने अश्रु जल से पाद-प्रक्षालन किया। जल वृष्टि के साथ ही आचार्य श्री का नगर प्रवेश हुआ।
आखिर प्रकृति ने अपनी मनमानी कर ही ली। आचार्य श्री आये और तत्काल ही मंच पर पहुँच गये, वह थके हुए थे एवं पैर में वेदना थी लेकिन प्रकृति को न जाने क्या पसंद था। वह प्रवचन में बोले - "पहाड़ तो इरादों ने चढ़ा है पैर क्या चढ़ते।" मुझे तो ऐसा लग रहा था जैसे प्रकृति का और आचार्य श्री का इरादा एक जैसा हो।
आचार्य श्री से पूछा - हे गुरूवर! आप इतने जल्दी पचास कि0मी0 चलकर कैसे आ गये। तो उन्होंने मुस्कराते हुए उत्तर दिया - "मैं नहीं चल रहा था, बल्कि मुझे तो आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज चला रहे थे।" यह उनके गुरू के प्रति आस्था और श्रद्धा बोल रही थी।
'यह उनकी गुरू के प्रति आस्था और श्रद्धा का जीवन्त उदाहरण है।”