आचार्य श्री के चरण सान्निध्य में बैठकर सभी साधकगण गुरूदेव के मुखारविन्द से इष्टोपदेश ग्रंथ की 147 वें नं0 की गाथा का रसास्वादन कर रहे थे। उस गाथा में एक शब्द आया है 'आत्मानुष्ठान' तब किसी साधक ने गुरूदेव से पूछा - हे गुरूवर! आत्मानुष्ठान का क्या अर्थ होता है? तब आचार्य भगवन्त ने कहा - रत्नत्रय, पंचाचार पालन, ध्यान, तत्वचिन्तन आदि में लीन रहता है, यह आत्मा का अनुष्ठान है। यह शरीर जो साथ में लगा हुआ है उसके लिए भी बहुत कम, बिना रूचि के समय देते हैं। आचार्यश्री ने उदाहरण देते हुए समझाया कि जैसे आपके (श्रावकों के) यहाँ कोई मेहमान आ जाते हैं तो आप स्वयं अच्छे से उन्हें भोजन परोसते हैं क्योंकि बहुत दिन बाद आये हैं और हम जब उनके यहाँ जायेंगे तो वह भी हमारी अच्छी तरह से देखभाल करेंगे, इस प्रकार के भाव आते हैं। वहीं दूसरी ओर यदि घर में काम करने वाले किसी नौकर को भोजन परोसते हैं तो सामान्य भोजन बनवाते हैं, पकवान नहीं परोसते और उसे सोने या चाँदी की थाली में भोजन नहीं परोसते। ये सब होता है कि नहीं। ठीक इसी प्रकार योगी आत्मा का अच्छी तरह से ध्यान करते हैं और शरीर को नौकर की तरह समझते हैं।
आत्मानुष्ठान का अर्थ है, आत्मा में डुबकी लगाना, पर पदार्थों से अपने उपयोग को हटाकर आत्मा में ले जाना। इसलिए व्यवहार से हटकर जो आत्मानुष्ठान करता वही कुछ प्राप्त कर पाता। आज आत्मानुष्ठान करने वाले योगी विरले ही होते हैं।