प्रत्येक व्यक्ति समय का सदुपयोग करना चाहता है। अधिकांश लोग साहित्य के पठन-पाठन में समय बिताते हैं। सभी लोग पढ़ना चाहते हैं और पढ़ते भी हैं लेकिन क्या पढ़ना चाहिए और क्यों पढ़ना चाहिए यह नहीं जानते? कैसी पुस्तकों को, साहित्य को पढ़ना चाहिए। यह ज्ञान न होने से जो जिस प्रकार का साहित्य हाथ लगता है हम उसी को पढ़ने लगते हैं, जिसमें समय का सदुपयोग न होकर समय का दुरूपयोग जैसा हो जाता है एवं मन भी विकृत हो जाता है और कभी-कभी तो हमारी धारणाएँ भी गलत बन जाती हैं।
इसी बात को लेकर एक दिन आचार्य श्री ने कहा कि - आज का कुछ साहित्य एक ऐसा मीठा जहर है, जो व्यक्ति की धारणा पर ऐसा प्रभाव डालता है कि उसके संस्कार कब उद्वेलित हो जायें पता नहीं। जिस साहित्य के पढ़ने से मिथ्यात्व, राग, द्वेष आदि की प्राप्ति एवं वृद्धि हो ऐसा साहित्य मुफ्त में भी कोई दे तो भी नहीं लेना/पढ़ना चाहिए। किसी-किसी का कहना रहता है कि हम तो सब समझते हैं, सार–सार को ग्रहण कर लेते हैं। आचार्य श्री ने कहा तब ठीक है अपनी अच्छाईयों को सुरक्षित रखते हुए यदि दृढ़ता है तो ही ऐसे साहित्य पढ़ना चाहिए, वरना नहीं, लेकिन कुछ भी करो उस संबंधी विकल्प तो हो ही जाया करते हैं। जो सही नहीं है उसके प्रति आदर हो जायेगा और जो कि अहितकारक ही सिद्ध होगा। तभी किसी ने आचार्य श्री से कहा कि - आपने साहित्य को जहर क्यों कहा? तब आचार्य श्री जी बोले कि - गृहीत मिथ्यात्व दूसरे के उपदेश, निर्देशन के बिना नहीं होता है तो वह साहित्य गृहीत मिथ्यात्व का कारण भी हो सकता है। यह गृहीत मिथ्यात्व अगृहीत मिथ्यात्व का पोषक है। इसलिए ऐसे साहित्य को पढ़ने से बचना चाहिए। सत्साहित्य का अर्थ होता है जिसमें सबका हित निहित हो और जो ज्ञान हमारे कर्म निर्जरा का कारण है, जिसके पढ़ने, सुनने तथा चिंतन करने से हमारा उपयोग स्वभाव की ओर चला जाता है वही सत्साहित्य माना जाता है। पूर्वापर दोष रहित, आधार सहित आचार्य प्रणीत ही ग्रन्थ पढ़ना चाहिए। साहित्य की सही-सही परख होना/करना चाहिए, फिर उसे अपनाना चाहिए। एक बात और ख्याल रखना चाहिए कि उस साहित्य का उपसंहार अनेकांत के साथ ही होना चाहिए, एकांत पक्ष का समर्थन करने वाला नहीं होना चाहिए।