आचार्य गुरूदेव द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ की वाचना के समय ज्ञान और चारित्र का महत्व समझा रहे थे कि ज्ञान को यदि आचरण में न लाया जाये तो वह आत्मा का संवेदन नहीं करा सकता और यदि ज्ञान, विश्वास श्रद्धा से रहित हो तो भी चारित्रवान होकर भी आत्मा का संवेदन नहीं करा सकता। ज्ञान के साथ सम्यक्दर्शन भी चाहिए और सम्यक्चारित्र भी तभी होगा स्वसंवेदन। "रस का और रसना का मूल्य क्या चर्वण बिना” अर्थात् किसी पदार्थ में रस कितना है या हमारी रसना इन्द्रिय का काम क्या है? यह तब ज्ञात होता है जब हम भोजन को चबाते हैं। भोजन को निगलने मात्र से स्वाद नहीं आता। वैसे ही मात्र पुस्तकीय ज्ञान से आत्मा का स्वाद नहीं आता, जब तक उस शास्त्र ज्ञान का जीवन में अमल न हो। तभी किसी साधक ने गुरू महाराज से अपनी शंका व्यक्त करते हुए कहा कि -
हे गुरूवर ! अभव्य का ज्ञान एवं विश्वास कितना तथा कैसा होता है? आचार्य श्री ने कहा - अभव्य का ज्ञान और विश्वास "खोदा पहाड़ निकली चुहिया" के समान होता है। उसे ग्यारह अंग का ज्ञान होता है, इतना ज्ञान होने पर भी आत्मा अमूर्त है ऐसा विश्वास नहीं होता और अनुभव (स्वाद) में नहीं आता। भले ही उसे दूसरों को समझाने रूप ज्ञान हो गया हो। अभव्य भी नव ग्रैवेयक (स्वर्ग) तक पहुँच जाता है। सारा का सारा ज्ञान सम्यग्दर्शन के बिना बोझ है, बोध नहीं कहलाता, क्योंकि मोक्ष निराकुलता रूप है उसे यह श्रद्धान नहीं हो पाता।