वह जीवन के अमूल्य क्षण थे जब सधर्मी भाईयों के साथ बैठकर गुरु से जीवन के बारे में कुछ पूछने का, जानने का अवसर प्राप्त हुआ था। बात ऐसी है कि करेली पंचकल्याणक के उपरान्त छिन्दवाड़ा की ओर विहार हुआ। रास्ते में सारना गॉव पड़ता है, सुबह विहार करते हुए वहाँ पहुँचे थके हुए थे विश्राम लिया। तदुपरान्त आहार चर्या के लिए गये। वहाँ मेरा अन्तराय कर्म की वजह से आहार नहीं हुआ।सामायिक के उपरान्त हम और कुछ महाराज जी आचार्य श्री के पास पहुंचे और उनके चरणों के समीप नमोस्तु करते हुए बैठ गये। ऐसे ही कुछ चर्चा प्रारंभ हो गई। चर्चा करते हुए आचार्य श्री बोले -
भैया जीवन तो त्यागमय ही है, लेकिन जो साधक आहार-विहार को संतुलित करके चलता है वह कभी बीमार नहीं होता।
शिष्य - आचार्य श्री विहार-निहार तो ठीक पर आहार को कैसे संतुलित करें। अन्तराय आदि के कारण ये संतुलन बन नहीं पाता ...... ।
आचार्य श्री - हँसते हुए बोले - आहार चर्या वास्तव में पराधीन है| उस समय मालूम होता है त्याग का महत्व। हमारे जीवन की शुरूआत इसी त्याग से हुई थी।
शिष्य ने पुनः जिज्ञासा व्यक्त करते हुए कहा - आचार्य श्री जी यह कब की बात है ?
आचार्य श्री ने बताया कि जब मैं ज्ञानसागर जी महाराज के पास पहुँचा।
शिष्य से नहीं रहा गया पुनः पूछा - आचार्य श्री उस समय आप कहाँ थे और आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज से मिलने कहाँ पहुँचे।
आचार्य श्री जी ने बड़ी सहजता से उत्तर दिया - मैं स्तवननिधि में था और अजमेर शहर पहुँचा।
शिष्यों ने पुनः जिज्ञासा रखी कि आचार्य श्री जी ज्ञानसागर जी के पास आप स्वयं पहुँचे कि आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज ने आपको वहाँ भेजा था ? (आचार्यश्री जी को देखकर ऐसा लगा मानो पुरानी यादों में खो गये हों)
तेज मुस्कान के साथ बोले - क्या हुआ वास्तव में महावीर लेने आ पहुँचे फिर ऐसा लगा कि कहीं परिवार के लोग लेने न आ जावे। इसलिए आ. ज्ञान सागर जी महाराज के पास जाने का निर्णय हुआ।
शिष्य - आचार्य श्री आपने पहले कभी ज्ञान सागर जी महाराज को देखा था उनसे परिचित थे ? आपको उनकी जानकारी थी या नहीं ?
आचार्यश्री जी ने कहा - हाँ, हमारे पास एक ब्रह्मचारी जी अजमेर के रहते थे वे हमें उनके बारे में सब कुछ बताते रहते थे।
आचार्य श्री इतनी सहजता से सभी प्रश्नों का उत्तर देते जा रहे थे तो हम शिष्यों के मन में गुरूदेव के जीवन के रहस्यों को जानने के भाव और ही उत्साह पैदा करते जा रहे थे।
शिष्य ने पूछा - आचार्य श्री आप किस स्टेशन से बैठे थे ?
आचार्य श्री ने कहा - वहीं 'कोल्हापुर' से।
शिष्य - आ.श्री और टिकिट?
आ. श्री ने कहा - टिकिट तो पहले से ही ले लिया था।
शिष्य आगे बात बढ़ाते हुए कह उठे - क्या आचार्य श्री आपने रिजर्वेशन करा लिया था ?
आचार्य श्री ने कहा - नहीं, शायद पहले इतना सब नहीं होता था।
शिष्य ने पुनः पूछा - आचार्य श्री टिकिट के बाद आपके पास कुछ पैसे शेष बचे होंगे ?
आचार्य श्री ने कहा - हाँ,
शिष्य ने पूछा - कितने ?
सोचते हुए बोले - लगभग पाँचेक रूपये, वे रूपये रिक्शे आदि में लग गये थे। कुछ कम भी पड़ गये थे फिर भी काम चल गया था।
शिष्य - आचार्य श्री मैंने सुना,आप दो उपवास के बाद अजमेर पहुँचे थे ?
आचार्य श्री ने कहा - हाँ, बेला हो गया था। यह मेरे जीवन का पहला बेला था। (बेला = दो उपवास)
शिष्य ने कहा - आचार्य श्री रास्ते में आप कुछ ग्रहण कर लेते, आपने क्यों नहीं ग्रहण किया ?
आचार्य श्री जी ने कहा - भैया कैसे खाता बिना देवदर्शन के।
शिष्य ने कहा - आचार्य श्री आप फल वगैरह तो ले सकते थे ?
आचार्य जी ने (बड़े ही स्वाभिमान भरे शब्दों में) कहा - नहीं, सप्तम प्रतिमा थी, बिना देवदर्शन के कैसे ग्रहण करता। शुद्धि भी कहाँ लेता।
शिष्य ने कहा - आचार्य श्री कहीं स्टेशन पर उतर कर दर्शन कर आते ?
आचार्य श्री ने बड़े ही भाव भीने शब्दों में कहा - उस समय महाराज जी से मिलने की तीव्र भावना थी और फिर इतना सब आप लोगों जैसा नहीं जानता था।
पुनः शिष्य ने पूछा - आचार्य श्री जी आप कितने बजे अजमेर पहुँचे और किस स्थान पर रुके?
उन्हीं परिचित ब्रह्मचारी जी के घर| छत पर लेट गये नींद बहुत आ रही थी, गर्मी भी बहुत लग रही थी, खाली पेट था। ब्रह्मचारी जी कहने लगे यह नल लगा है इससे नहा लो। (हँसकर) पर क्या करते उस नल में पानी ही नहीं आ रहा था।
आचार्य श्री मुस्कराकर बोले - उन्हीं ब्रह्मचारी जी के कमण्डलु से पानी लेकर दुपट्टा गीला किया और ओढ़कर सो गया। थोड़ी देर में वह दुपट्टा सूख गया।
शिष्य ने कहा - फिर क्या हुआ आचार्य श्री!
आचार्य श्री - थोड़ा रुककर हँसते हुए बोले फिर घण्टा गिनता रहा भैया - अब 1, 2, 3, 4 बज गये। सुबह हुई पूजन-प्रक्षाल किया। आहार किया तदुपरान्त लेट गया फिर पता नहीं कब शाम हो गयी, ब्रह्मचारी जी ने उठाया बोले शाम हो गई पानी वगैरह ले लो। पानी की बात सुनकर शिष्यों के मन में फिर जिज्ञासा पैदा हो गई और कह उठे - आचार्यश्री क्या आप एक ही बार भोजन लेते थे ?
आचार्यश्री जी ने कहा - हाँ शाम को पानी ले लेता था।
इतनी सहजता से सभी प्रश्नों के उत्तर मिलते जा रहे थे, मानो ऐसा लग रहा था कि यह एक अपूर्व अवसर मिल गया हो, हम शिष्यों ने सोचा इस अवसर का पूरा-पूरा लाभ ले लेना चाहिए | चर्चा ने थोड़ा-सा मोड़ ले लिया और उनके संयमित जीवन पथ की ओर जिज्ञासायें बढ़ने लगीं .............. ।
जिज्ञासा व्यक्त की गई कि आचार्य श्री जी आपकी दीक्षा के पूर्व बिनौरी भी निकली होगी ?
आचार्य श्री जी ने चर्चा को विराम देने की अपेक्षा से कहा कि - हाँ, वहाँ तो दूसरा ही रिवाज था।
शिष्य इस बात को समझ गये कि आचार्य श्री जी अब आगे कुछ बताना नहीं चाहते फिर भी शिष्यों से नहीं रहा गया और धीरे से पूछ ही लिया - वहाँ कैसा रिवाज था
आचार्य श्री जी ने कहा - 20-25 दिन पूर्व से ही बिनौरी निकलने लगी वे लोग घर-घर निमंत्रण करते थे, घर बहुत दूर-दूर थे और आहार के बाद टीका भी करते थे ।
शिष्य ने पूछा - आचार्य श्री इतनी दूर पैदल ही जाते थे क्या आप ?
आचार्य श्री जी ने कहा - हाँ कभी-कभी बग्गी, रिक्शा आदि से भी चले जाते थे।
शिष्य - बात को आगे बढ़ाते हुए कहने लगे आचार्य श्री जब आपने केशलोंच मंच पर किये थे तब आपको कैसा अनुभव हो रहा था ?
आचार्य श्री जी ने मुस्कराते हुये कहा - भैया मंच - मंच होती है, आज भी वह दृश्य आँखों में झूलता है ।
शिष्य - आचार्य श्री केशलोंच में आपको कितना समय लगा था ? आचार्य श्री जी पहले भी क्या आपने केशलोंच किये थे?
आचार्य श्री ने कहा - हाँ पहले तीन बार केशलोंच कर लिये थे, दीक्षा के पूर्व।
शिष्य ने पूछा - आचार्य श्री जब आपने पहली बार केशलोंच किये थे तब आपको कितना समय लगा था ?
आचार्य श्री जी ने कहा - वही लगभग 3, 3.30 घण्टे ।
शिष्य ने पुनः पूछा - सुना है केशलोंच के समय रक्त की धार लग गई थी।
आचार्य श्री ने कहा - हाँ, घने, कड़क बाल थे और तेजी से खींच दिये तो खून उचटने लगा था।
शिष्य - फिर आपको सिर में तकलीफ हो रही होगी ?
आचार्य श्री ने कहा - हाँ फिर लोगों ने चंदन की जगह लाल चंदन लगा दिया तो और अधिक तकलीफ बढ़ गयी थी।
शिष्य - चंदन लगाने का आपने आचार्य ज्ञान सागर जी महाराज से पूछ लिया था ?
आचार्य श्री जी ने कहा - हाँ, उन्हीं ने कहा था श्रावकों से चंदन लगा दो तो उन्होंने चंदन की जगह लाल चंदन लगा दिया था।
शिष्य - आचार्य श्री यह कहाँ की बात है ?
आचार्य श्री ने कहा - रैनवाल की।
शिष्य - आचार्य श्री जी, महाराज जी (आचार्य ज्ञानसागर जी) नहीं आये केशलोंच देखने ?
आचार्यश्री - नहीं उनकी वृत्ति अलग ही थी।
शिष्य ने पुनः पूछा - आचार्य श्री आपने कभी महाराज जी से नहीं पूछा उनके जीवन के बारे में कि आप कहाँ तक पढ़े हैं? कैसे रहे ? कैसे क्या ? आदि।
आचार्य श्री थोडे डाँट भरे शब्दों में बोले - नहीं, आप तो बहुत बोलते हैं, मैं तो उनसे बोल ही नहीं पाता था।
शिष्य ने कहा - आचार्य श्री वे वृद्ध भी तो थे ।
आचार्य श्री जी ने कहा - नहीं, वे बहुत कम बोलते थे, नीचे सिर किये आँखें बंद किये बैठे रहते थे। उनकी वृत्ति मैंने कहा न कुछ अलग ही थी। फिर मैं हिन्दी भी कम जानता था।
शिष्य ने पुनः पूछा - फिर आप प्रवचन कैसे करते थे ?
आचार्य श्री जी - कुछ (चिंतन में डूब गए) रुककर बोले - मैं ब्रह्मचारी था मुझसे कहा गया ब्रह्मचारी जी महाराज श्री के पूर्व आपको भी प्रवचन करना है। तो एक कहानी आती है कि एक व्यक्ति कानों में अंगुली डाले था कहीं मुनि के वचन कानों में ना पड़ जावे तो मैं भूल गया और मैंने कह दिया आँखों में अंगुली डाले था, तो सभी हँस पड़े। मैं समझ नहीं पाया ये सब क्यों हँस रहे हैं ऐसी थी भैया हमारी हिन्दी। (कान को आँख, आँख को कान कह देते थे)।
शिष्य - आचार्य श्री आप दीक्षा के कुछ दिन उपरान्त अस्वस्थ हो गये थे ?
आचार्य श्री जी ने कहा - हाँ, बुखार के बाद दो महिने तक कुछ भी (किताब) नहीं पढ़ पाते थे।
शिष्य ने कहा क्यों ? ऐसा कैसा बुखार आ गया था ?
आचार्य श्री ने कहा - बाहर मंच पर बैठने से तेज हवा बगैरह लग गयी थी, पहले प्रवचन की ऐसी प्रथा नहीं थी, सभी ग्रंथ से वाचन करके सुनाते थे, धीरे-धीरे बिना ग्रंथ के बोलना प्रारंभ हुआ।
भले ही ज्ञान आत्मा का स्वभाव है लेकिन गुरु के बिना ज्ञान नहीं हो सकता।
गुरु की चाबी से अनंतकालीन मोह रूपी जंग लगा हुआ ताला भी खुल जाता है।