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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. साधु जीवन निर्लोभता का जीवन जगत् में प्रसिद्धि को प्राप्त है। वस्तुओं का लोभ, वस्तुओं का संग्रह, ये नहीं करना, यहाँ तक तो ठीक है जब साधु बन गया, गुरु बनेगा तो शिष्य होगा तब ही गुरु शिष्य का सम्बन्ध स्थापित होगा। फिर भी शिष्यों के संग्रह की वृत्ति नहीं रखना। भीड़ का संग्रह नहीं, शीलवानों का चारित्र वालों का संग्रह चयन-पद्धति से उनके गुण-दोषों को देखकर, उनकी इन्द्रिय आदि दोषों को देखकर निर्दोष इन्द्रिय वाला व्यक्ति ही साधु बनने की योग्यता का धारक होता है। मुनि ज्ञानसागर के पास बहुत लोग पढ़ने के लिए आते थे लेकिन कोई पढ़ने के बाद रुकता नहीं था, न रोकने की इच्छा रखते थे। ज्ञान के दान तक सीमित रहते थे। वो स्नत्रय की अभिलाषा रखे, निवेदन करे तो विचार करते थे। मांगते ही व्रतों को प्रदान नहीं करते थे, उसकी धर्म पिपासा को बढ़ाकर ग्रहण करते थे। उन्हें पिच्छीधारियों की भीड़ का संग्रह करने का लोभ नहीं था। वे आचार्य माघनन्दि के ध्यानसूत्र लोभरहितोऽहम् का पालन करते हुए चलते थे, उन्हें एक ही शिष्य की आवश्यकता थी, जो अनेक शिष्यों को जन्म देकर गुरु परम्परा को जीवित बनाये रखे। यह जीवन के अन्तिम क्षणों में अवसर प्राप्त हुआ। विद्याधर आया। चार वर्ष के अन्दर ज्ञान कात्नत्रय का दान कर विद्यासागर बना दिया। आज विद्यासागर के नाम से गुरु ज्ञानसागरजी एवं उनके साहित्य को जाना और माना जा रहा है। वे जैसे सीधे और सरल सहज थे, सीधे सहज, सरल शिष्य की प्राप्ति के लिए लालायित रहते थे। गुरु और शिष्य जब एक गुणात्मक विचारधारा के होंगे तो वह गुरु के ज्ञानदान को ऋण को चुकाने के लिए उनके चरणों को छोड़कर जाने की चेष्टा नहीं कर सकता। जिनसे ज्ञान प्राप्त किया। उन्हीं से स्नत्रय प्राप्त करने वाले एकल ब्रह्मचारी विद्याधर बन गुरु की शिष्य परम्परा को भरते चले गये। यही निर्लोभ वृत्ति उन्हें जगत् में प्रसिद्धि को प्राप्त करा गई।
  2. रुपयों-पैसों के माध्यम से व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति सहज रीति से हो जाती है। परिवार का भी निर्वाह हो जाता है। लोगों की मदद करना हो तो भी धन की आवश्यकता होती है। लेकिन ज्ञानधन कभी भी खर्च करने के बाद घटता नहीं है। ज्ञान देने से ज्ञान बढ़ता ही है। बात उस समय की है-जब ब्रह्मचारी भूरामलजी स्याद्वाद महाविद्यालय बनारस में पढ़ा करते थे उस समय धन-पैसों की ही पूजा नहीं होती थी, सरस्वती-ज्ञान की भी स्याद्वादमय वाणी सरस्वती माता हमेशा पूज्यनीय है इसलिए भूरामलजी ने धन की सेवा को नहीं, ज्ञान की सेवा को अपने जीवन का मुख्य अंग बनाया। आचार्य श्री के मुख से २०.१२.२०००, रविवार ज्ञानकल्याणक दिवस करेली (मध्यप्रदेश)
  3. शरीर में विभिन्न प्रयोजन को लेकर अंग हुआ करते हैं। आँख का प्रयोजन प्रभु और गुरु के दर्शन से प्रारम्भ होता है। कान का प्रयोजन प्रभु और गुरु वाणी सुनने से होता है। मुख का प्रयोजन प्रभु और गुरु के गुणगान करने से होता है। नासा का प्रयोजन सुगन्धदुर्गन्ध साम्यभाव से जान पड़ता है। पैरों की सार्थकता तीर्थों और गुरुओं के दर्शन से सार्थक होती है। इसी प्रकार हाथों की सार्थकता का प्रयोजन दान से हुआ करता है। जिन हाथों से दान नहीं होता वह हाथ मांस और खून बने हुए तक सीमित रह जाते हैं। आचार्यों ने दान को चार श्रेणी में विभाजित किया है। आहार दान, औषध दान, अभयदान, उपकरण दान ब्रह्मचारी भूरामल, पण्डित भूरामल, क्षुल्लक ज्ञानसागरजी, ऐलक ज्ञानसागरजी, मुनि ज्ञानसागरजी, आचार्य ज्ञानसागरजी, इन सभी पदों का निर्वाह करते हुए वे दान के क्षेत्र में कभी पीछे नहीं रहे। श्रावक धर्म का मुख्य अंग प्रथम कर्तव्य आहार दान हुआ करता है। जब वे अपने गाँव में रहा करते थे, साधु के आने पर घर पर चौका हुआ करता था। बालक भूरामल धार्मिक रुचि का होने से आहार दान के लिए धोती दुपट्टा पहनकर सबसे आगे भागते थे। ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने के बाद मुनि संघों में जब भी अध्ययन कराने जाते थे, आहार दान से कभी वंचित नहीं रहते थे। इसी प्रकार औषध दान रुग्ण साधुओं की सेवा-वैय्यावृत्ति आहार के समय यथोचित औषध यथाविधि से दान करते हुए देखा जाता था और अब शास्त्र दान की बात रही वे जिनवाणी को निःशुल्क ही प्रदान करते थे। कण्ठ की विद्या का कोई दाम नहीं होता है। उपकरण दान में भी पीछे नहीं रहते थे। अभयदान में ग्राम में साधु आने पर उनकी रुकने की यथोचित व्यवस्था किया करते थे, यही दानशीलता का संस्कार उन्हें स्नत्रय के दान का अधिकारी बनाने में सक्षम कारण रहा। मुनि बनने के बाद में उन्होंने अणुव्रतों का श्रावकों के लिए दान दिया और ब्रह्मचारियों के लिए स्नत्रय का दान दिया। सबसे महत्त्वपूर्ण दान की विधा उनके जीवन में शुरू से अन्त तक बनी रही। वह थी समय के दान की सीमा, कोई भी जिज्ञासु कभी ज्ञान की अभिलाषा से आता था तो खाली हाथ नहीं जाता था।
  4. हे आचार्य गुरुवर! आप प्रज्ञावान हैं। ज्ञानवान हैं, चारित्रवान हैं, समता से सम्पन्न हैं, करुणा के सागर हैं, वात्सल्य की मूर्ति है, हम आपकी वंदना करते हैं। हमें भी आपके गुणों की प्राप्ति हो। हम आपके तप-त्याग- संयम की मन-वचन काय से तीन परिक्रमा लगाकर हृदय से प्रणाम करते हैं। नमोस्तु आचार्य श्री जी-3
  5. मुनियों के आचरण को बताने वाला मूलाचार ग्रन्थ, मूल । आराधना ग्रन्थ, आचारसार आदि हैं, इसी के अनुसार वे अपनी चर्या का पालन करते हैं। आज्ञाविचय धर्मध्यान के पालक मुनि हुआ करते हैं। आचारवान साधक दोषों के प्रति सचेतवान होकर चलता है इसलिए आचार्य ज्ञानसागरजी कभी लड़कियों से आहार नहीं लेते थे, क्योंकि वे आगम की आज्ञा का पालन नहीं करती थी इसलिए दान का अधिकार उनके हाथ से छूट गया था। आज भी मुनिधर्म की परंपरा में मासिकधर्म का पालन करने वाली महिलाओं से आहार लेने का निषेध है। आचार्य विद्यासागरजी अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते नजर आते हैं। लड़कियों से आहार तो लेते हैं, लेकिन उन लड़कियों से जो मासिक धर्म का पालन करती हैं। आचार्यश्री के श्री मुख से २४.०८.२००५, मंगलवार षट्खण्डागम पुस्तक २ बीना बारह, सागर (मध्यप्रदेश)
  6. अन्त भला सो सब भला ऐसा जानने वाले मरण को सार्थक बनाने वाले/जन्म-मरण के सोपान पर चलकर जन्म से ही मरण को उचित रीति से परिचय कराकर आगम के पथ के अनुसार रसों के परित्याग का जीवन भर निर्वाह करते हुए मोह की परिणति को विनष्ट कर शरीर से निर्मोहता को धारण कर कायोत्सर्ग की मुद्रा में समाहित होकर समता के भाव की समाधि का अनुभव, मन-वचनकाय की एक परिणति से बढ़ाते चलना। नित्य प्रति अपने को पर के परिचय से बचाकर स्व के परिचय में लगाना। शरीर की सेवा, शरीर के वेदन का विकल्प छोड़कर आत्मा को आत्म सेवा की ओर अग्रसर बनाये रखना ही साम्यभाव का ध्वजारोहण हो सकता है। आगम में कथित मरण की साधना एक वर्ष में नहीं पूरे १२ वर्ष की काल अवधि का समय व्यतीत कर योग्य गुरु की खोज कर शिष्य के लोभ का परित्याग कर अपने गण से परगण में प्रवेश कर प्रतिकूल वातावरण में अनुकूल वातावरण का अनुभव कर प्रतिकूल मौसम में अनुकूल मौसम का अनुभव क्षपक की अन्तर यात्रा की परीक्षा की घड़ियाँ पार करने वाले आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज क्रमशः त्याग कर भीषण गर्मी में, शीत के वातावरण की अवधारणा के माध्यम से शरीर की शिथिलता में वही समयसारमयी भावनाएँ, वही प्रतिमायोग की मुद्रा, चौबीसों घण्टे सामायिक, समतारूपी चारित्र की शीतलधारा में आत्म अनुकूलता शब्दों को विराम, अंगुली के इशारों पर काम करना, अन्दरबाहर से मौनी बाबा का भेष धारण करना। वो जानते थे जो फूल खिला है वो झड़ेगा अवश्य। जो आग लगी है वो बुझेगी अवश्य। जन्म हुआ है तो मरण भी होगा। दुनिया में लोग मरते हैं, बेमौत मरते हैं, अपन जब भी मरेंगे, धर्म की मौत मरेंगे। ऐसा भाव उन्हें जिनवाणी और गुरु की वाणी, प्रभु के दर्शन से नित्य प्राप्त होकर अन्त भला सो सब भला के सिद्धान्त पर पहुँच गये।
  7. कोई भी भाषा-साहित्य को जब भी समझा जायेगा, अपनी समझ से ही समझा जायेगा। समझाने वाला, पढ़ाने वाला जब भी पढ़ायेगा अपनी समझ से ही पढ़ायेगा। इसलिए पढ़ाने वाला प्रभावी जब बन जाता है नासमझ को समझदार बना देता है, इसलिए उसकी कीमत भी बढ़ जाती है। समझाना भी एक कला है। जिसे (टेकल) करने की कला कहते हैं। आचार्य ज्ञानसागरजी ने संस्कृत भाषा को जब भी देखा, समझा, जाना; कठिनतम ही जाना और जब न्याय को पढ़ा समझा, समझाया तब उसे पचाने योग्य ही जाना। साहित्य को हमेशा स्वादिष्ट ही जाना। वे कहते थे-संस्कृत लोहे के चने के समान है, न्याय पचाने योग्य चने हैं और साहित्य हलुआ है। यही उनकी अपनी समझ हुआ करती थी। आचार्यश्री के श्री मुख से ९.८.२००५, मंगलवार बीरा बाराह, सागर (मध्यप्रदेश)
  8. अपना काम, अपने हाथ इसी को कहते हैं-''अपना हाथ जगन्नाथ' और पुरानी कहावत भी है-“बिना मरे स्वर्ग प्राप्त नहीं होता है। इसलिए आचार्यों ने कहा है-षट् आवश्यकों का पालन जब भी होगा-स्वाश्रित क्रिया के द्वारा होगा न कि पर के आलम्बन द्वारा।स्व का आलम्बन ही वास्तविकता से परिचय कराकर आवश्यकता की निर्दोषता को कायम बनाये रखता है। जिस आवश्यक का जो समय श्रावकाचार में, मूलाचार में, पुराणों में, ग्रन्थों में मिलता है, वही उचित जान पड़ता है। दोष का परिमार्जन अपने ही द्वारा परिमार्जित, संशोधित किया जाता है। दोष हम लगाये और दूसरा धोये ऐसा कभी सम्भव नहीं है। ये कोई वस्त्र आभूषण नहीं जो धोबी के, सुनार के द्वारा साफ किये जायें। अपने दोषों को स्मृति में लाकर उस प्रतिक्रमण से आत्म प्रतिक्रमण में समाकर मेरा मिथ्या कर्म, मिथ्या हो, ऐसी अन्तर प्रेरणा, द्रव्य और भाव प्रतिक्रमण के द्वारा नष्ट हुआ करती है। उन्होंने मुनिव्रत को धारण कर कभी अपने जीवन में वस्त्र का प्रयोग नहीं किया। न कोई वस्त्रों या वस्तुओं का संग्रह कर परिग्रह को बल प्रदान नहीं किया। न आसनों से कोई मतलब था न सिंहासन से, उन्हें तो अपने पद के अनुरूप व्रतों के आवश्यक अनुष्ठान से प्रयोजन रहता था। उन्हें गप्पे हाँकने का, फिजूल बातों का, हँसी-ठिठोली करने का समय नहीं रहता था। उन्हें तो अपने आवश्यक की फिक्र रहती थी। वे समय का दान आवश्यक में लगे साधकों को प्रदान करते थे। समय के दाता, श्रमण संघ के नायकत्व का निर्वाह करने वाले विद्याधर की आवश्यकों में लगनशीलता को देखकर ही आश्रय दान दिया। अपनी ही छाँव में रखकर धर्म के भावों से पोषण किया, सिंचन किया। जैसे गुरु वैसे गुरु को शिष्य मिला। साधु के कार्य उसके ही २८ मूलगुणों के अनुसार सम्पादित होते हैं, दिन के कार्य दिन में, रात के कार्य रात में। यही साधुता की शोभा के सितारे उसके छह आवश्यक हैं। इनमें लगनशीलता ही धर्म को गगन की ऊँचाई को पा सकती है। जैसा हमने सुना वैसा हमने लिखा।
  9. ग्रन्थ का विकल्प ही ग्रन्थी का कारण हुआ करता है। ज्ञानी भले बुद्धि में ज्ञान को रखता हो, या निर्ग्रन्थ होकर ग्रन्थ का प्रयोग करता हो, इसमें कोई बाधा नहीं जान पड़ती, लेकिन जब वह ज्ञानीध्यानी की मुद्रा को धारण कर लेता है तो ग्रन्थ यों ही छूट जाते हैं, क्योंकि ध्यान के समय ज्ञान का आलंबन नहीं रहता। आचार्य ज्ञानसागरजी कहते थे-कोई ज्ञानी है, पण्डित है, विद्वान् है, सरस्वती पुत्र है, तो भी वह अपने ध्यान काल में हमेशा पुस्तकों को, ग्रन्थों को, जिनवाणी को साथ नहीं रखेगा। क्योंकि ध्यान काल में ज्ञान भी विकल्प का कारण बनता है, इसलिए उसके आलम्बन से रहित होकर ही ध्यान का अभ्यास किया जाता है। ध्यान हमेशा बिना आलम्बन के चलता है और ज्ञान आलम्बन से सहित होता है। ज्ञान जब भी प्राप्त होगा गुरुओं से या ग्रन्थों से और ध्यान जब भी प्राप्त होगा तो साधना के द्वारा। एक अध्ययन से प्राप्त होता है। दूसरा साधना के द्वारा प्राप्त होता है। आचार्यश्री जी के श्री मुख से १०.०९.२००५, सोमवार धवला पहली पुस्तक, सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर (मध्यप्रदेश)
  10. धर्मात्मा आत्म जागरण के सोपानों के साथ अपनी दैनिक क्रिया का चर्या का सम्पादन करते हैं। खाना, पीना, उठना, बोलनाचालना, पढ़ना-लिखना, इन सारी क्रिया में आत्महित को निहित करते हुए जीव की विराधना से रहित, चाहे वो पृथ्वीकायिक हो, जलकायिक हो, वायुकायिक हो, बादर हो, सूक्ष्म हो, एकेन्द्रिय हो, दो इन्द्रिय हो, तीन इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय हो, पंचेन्द्रिय हो, इन सबकी मन से, वचन से, काय से, कृत से, कारित से, अनुमोदना से विराधना के भाव से रहित, आत्मभाव से सहित आत्मा के द्वारा आत्मा का हित हो, हम भी जीयें तुम भी जिओ, जिओ और जीने दो के सिद्धान्त पर अमल की सीढ़ी पर चलते हुए पर की आलोचना नहीं, अपनी आलोचना में अपने दोषों के परिमार्जन में शरीर की स्थिति के अनुसार धर्म की श्रेणियों को पार करने का भाव मुनि ज्ञानसागर से लेकर आचार्य ज्ञानसागर, क्षपकाचार्य मुनि श्री ज्ञानसागर की अवस्था तक यही भाव बना रहता था। गुरु के परम उपकारी भाव के द्वारा जो शिव की साधना के लिए आचार्य शिवसागरजी से महाव्रतों के रूप में २८ मूलगुणों को प्राप्त कर निर्दोष रीति से धर्म की प्रीति से, आलस्य को त्याग कर परमार्थ के उत्थान के लिए, सम्पादित करते हुए रात-दिन का भेद छोड़कर शरीर की वेदना का भेद छोड़कर, क्योंकि उनके शरीर में ज्ञान-संयम के साथ रुग्णता ने जन्म लिया था। उन्हें साइटिका का रोग था। फिर भी संयम के भाव और शिष्य के सहयोग, गुरु की आज्ञारूपी आशीष जो उन्हें पूर्व में प्राप्त हुआ था, इसके बल से उन्होंने आत्मबल को बढ़ाकर ग्रीष्म की तपन में पद्मासन के द्वारा काय के दोष को नष्ट कर मनोयोग, मनोभावों के द्वारा वह आत्म जागृति के सूत्र की धारा में समाहित होकर जैन जगत् के लिए मिशाल बन गये। अन्त की सावधानी, जीवनभर की आत्म सावधानी का परिपाक अन्त में चखने में आ ही जाता है। साधक को आत्म जागरण के साथ अपनी क्रिया को सम्पादन आगम आज्ञा का प्रतीक माना जाता है।
  11. मुख की उपयोगिता उसके बोल से होती है, बोल हमेशा जब तोल कर प्रयोग किये जाते हैं, तब वे प्रभावी शब्द वाक्य मंत्रबद्ध प्रभावी शक्तिशाली बन जाते हैं। अशब्द शब्द भाषा का असंतुलन प्रकट करने वाले होते हैं। वचन की चाल अंदर के भाव के साथ ही निकला करती है, इसे ही भाव भाषण कहते हैं। इसलिए मुनियों को मौन की मूर्ति, भाषा समिति के जानकार, हित-मित वचनों के प्रयोग धर्मी की संज्ञा प्राप्त है। आचार्य ज्ञानसागरजी कहते थे जो प्रभु की, गुरु की, आगम की आज्ञा के अनुसार चलेगा अपनी बुद्धि के आयाम को रोककर उसके पालन में कटिबद्ध होगा, उसका ही वचन सिद्ध होगा और उसे ही वचन की सिद्धि प्राप्त होगी। आज्ञा धर्म शिष्य के उत्थान का विकास का कारण/साधन हुआ करता है। वैज्ञानिकों ने प्रयोग के आधार पर सिद्ध किया है, एक शब्द बोलने में ६-७ प्रतिशत कैलोरी खर्च होती है, इसलिए वे कहते थे जब भी वचन शुद्ध होगा तो आज्ञा पर चलने से होगा। आचार्यश्री के श्री मुख से ८.४.२००४, शुक्रवार मूलाचार कक्षा, कुण्डलपुर सिद्धक्षेत्र (मध्यप्रदेश)
  12. प्रतिष्ठा नहीं, अपने में प्रतिष्ठित होने की विचार शक्ति से साधक जीता रहता है। यही प्रतिष्ठा के प्रलोभन से रहित होने की प्रतिक्रिया हुआ करती है। न पूजा है, न प्रतिष्ठा है, न मंच है, न माला और न माइक है। मात्र आत्मा में साधना की समाहिता है। लिखना, पढ़ना, प्रवचन करना ये सभी कार्य अपने उपयोग को स्थिर करने के आयाम हैं। जो प्रगति और वृद्धि की ओर बढ़ा करते हैं। ब्रह्मचारी भूरामल पण्डित भूरामल ने कभी जिनवाणी के पठन-पाठन, लेखन को जीविका का साधन नहीं बनाया। मुनि संघों में, आचार्य संघों में पण्डित भूरामल अध्ययन कराते थे। आचार्य वीरसागर के संघ में वर्तमान में जो आर्यिका ज्ञानमति हैं, ये भूरामल से ही धर्म शिक्षा को प्राप्त कर संयम लब्धिस्थान की ओर बढ़ना हुआ। सभी को निःशुल्क शिक्षा बस बदले में त्यागी-व्रती होने के नाते शुद्ध प्रासुक भोजन ग्रहण करते थे या लठ्ठ के वस्त्रों को ग्रहण करते थे। मोटा खाना, मोटा पहनना, एक ज्ञान के आराधक की यह साधारण-सी वेशभूषा हुआ करती थी। गाँव में भी पाठशालाओं में बाल-गोपालों को पढ़ानालिखाना संस्कारवान बनाना। तब भी अर्थ की कोई बात नहीं, परमार्थ की ही बात करते थे। तब कहीं संयम के लब्धि स्थान को प्राप्त कर क्षुल्लक ज्ञानसागर, ऐलक ज्ञानसागर, मुनि ज्ञानसागर, आचार्य ज्ञानसागर, क्षपकाचार मुनि ज्ञानसागर के पदों को प्राप्त किया। कभी साहित्य का सृजन, पद प्रतिष्ठा के भाव से नहीं किया, न ही शहरों में जाकर कोई बड़े-बड़े समारोह की अभिलाषा भी उनके मानस पटल पर उत्पन्न हुई। यही उनकी सज्जनता का बिन्दु जैन जगत् को प्रकाशित करता रहा। इतिहास के पन्नों में, साहित्य के पन्नों में, आचार्य परम्परा के पन्नों में उनका नाम ऐसा टंकोत्कीर्ण हो गया, जिसे कोई मिटाना भी चाहे तो, मिटा नहीं सकता है। वे ज्ञान के अर्जन से अपने मन का रंजन, मनोरंजन कर आत्महित के सम्पादन में जीवन की अन्तिम क्षण तक संलग्न जान पड़ते थे।
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