धर्मात्मा आत्म जागरण के सोपानों के साथ अपनी दैनिक क्रिया का चर्या का सम्पादन करते हैं। खाना, पीना, उठना, बोलनाचालना, पढ़ना-लिखना, इन सारी क्रिया में आत्महित को निहित करते हुए जीव की विराधना से रहित, चाहे वो पृथ्वीकायिक हो, जलकायिक हो, वायुकायिक हो, बादर हो, सूक्ष्म हो, एकेन्द्रिय हो, दो इन्द्रिय हो, तीन इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय हो, पंचेन्द्रिय हो, इन सबकी मन से, वचन से, काय से, कृत से, कारित से, अनुमोदना से विराधना के भाव से रहित, आत्मभाव से सहित आत्मा के द्वारा आत्मा का हित हो, हम भी जीयें तुम भी जिओ, जिओ और जीने दो के सिद्धान्त पर अमल की सीढ़ी पर चलते हुए पर की आलोचना नहीं, अपनी आलोचना में अपने दोषों के परिमार्जन में शरीर की स्थिति के अनुसार धर्म की श्रेणियों को पार करने का भाव मुनि ज्ञानसागर से लेकर आचार्य ज्ञानसागर, क्षपकाचार्य मुनि श्री ज्ञानसागर की अवस्था तक यही भाव बना रहता था। गुरु के परम उपकारी भाव के द्वारा जो शिव की साधना के लिए आचार्य शिवसागरजी से महाव्रतों के रूप में २८ मूलगुणों को प्राप्त कर निर्दोष रीति से धर्म की प्रीति से, आलस्य को त्याग कर परमार्थ के उत्थान के लिए, सम्पादित करते हुए रात-दिन का भेद छोड़कर शरीर की वेदना का भेद छोड़कर, क्योंकि उनके शरीर में ज्ञान-संयम के साथ रुग्णता ने जन्म लिया था। उन्हें साइटिका का रोग था।
फिर भी संयम के भाव और शिष्य के सहयोग, गुरु की आज्ञारूपी आशीष जो उन्हें पूर्व में प्राप्त हुआ था, इसके बल से उन्होंने आत्मबल को बढ़ाकर ग्रीष्म की तपन में पद्मासन के द्वारा काय के दोष को नष्ट कर मनोयोग, मनोभावों के द्वारा वह आत्म जागृति के सूत्र की धारा में समाहित होकर जैन जगत् के लिए मिशाल बन गये। अन्त की सावधानी, जीवनभर की आत्म सावधानी का परिपाक अन्त में चखने में आ ही जाता है। साधक को आत्म जागरण के साथ अपनी क्रिया को सम्पादन
आगम आज्ञा का प्रतीक माना जाता है।