अन्त भला सो सब भला ऐसा जानने वाले मरण को सार्थक बनाने वाले/जन्म-मरण के सोपान पर चलकर जन्म से ही मरण को उचित रीति से परिचय कराकर आगम के पथ के अनुसार रसों के परित्याग का जीवन भर निर्वाह करते हुए मोह की परिणति को विनष्ट कर शरीर से निर्मोहता को धारण कर कायोत्सर्ग की मुद्रा में समाहित होकर समता के भाव की समाधि का अनुभव, मन-वचनकाय की एक परिणति से बढ़ाते चलना। नित्य प्रति अपने को पर के परिचय से बचाकर स्व के परिचय में लगाना। शरीर की सेवा, शरीर के वेदन का विकल्प छोड़कर आत्मा को आत्म सेवा की ओर अग्रसर बनाये रखना ही साम्यभाव का ध्वजारोहण हो सकता है।
आगम में कथित मरण की साधना एक वर्ष में नहीं पूरे १२ वर्ष की काल अवधि का समय व्यतीत कर योग्य गुरु की खोज कर शिष्य के लोभ का परित्याग कर अपने गण से परगण में प्रवेश कर प्रतिकूल वातावरण में अनुकूल वातावरण का अनुभव कर प्रतिकूल मौसम में अनुकूल मौसम का अनुभव क्षपक की अन्तर यात्रा की परीक्षा की घड़ियाँ पार करने वाले आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज क्रमशः त्याग कर भीषण गर्मी में, शीत के वातावरण की अवधारणा के माध्यम से शरीर की शिथिलता में वही समयसारमयी भावनाएँ, वही प्रतिमायोग की मुद्रा, चौबीसों घण्टे सामायिक, समतारूपी चारित्र की शीतलधारा में आत्म अनुकूलता शब्दों को विराम, अंगुली के इशारों पर काम करना, अन्दरबाहर से मौनी बाबा का भेष धारण करना। वो जानते थे जो फूल खिला है वो झड़ेगा अवश्य। जो आग लगी है वो बुझेगी अवश्य। जन्म हुआ है तो मरण भी होगा। दुनिया में लोग मरते हैं, बेमौत मरते हैं, अपन जब भी मरेंगे, धर्म की मौत मरेंगे। ऐसा भाव उन्हें जिनवाणी और गुरु की वाणी, प्रभु के दर्शन से नित्य प्राप्त होकर अन्त भला सो सब भला के सिद्धान्त पर पहुँच गये।