रुपयों-पैसों के माध्यम से व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति सहज रीति से हो जाती है। परिवार का भी निर्वाह हो जाता है। लोगों की मदद करना हो तो भी धन की आवश्यकता होती है। लेकिन ज्ञानधन कभी भी खर्च करने के बाद घटता नहीं है। ज्ञान देने से ज्ञान बढ़ता ही है।
बात उस समय की है-जब ब्रह्मचारी भूरामलजी स्याद्वाद महाविद्यालय बनारस में पढ़ा करते थे उस समय धन-पैसों की ही पूजा नहीं होती थी, सरस्वती-ज्ञान की भी स्याद्वादमय वाणी सरस्वती माता हमेशा पूज्यनीय है इसलिए भूरामलजी ने धन की सेवा को नहीं, ज्ञान की सेवा को अपने जीवन का मुख्य अंग बनाया।
आचार्य श्री के मुख से
२०.१२.२०००, रविवार
ज्ञानकल्याणक दिवस करेली (मध्यप्रदेश)