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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • निर्लोभ वृत्ति के धारक

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    साधु जीवन निर्लोभता का जीवन जगत् में प्रसिद्धि को प्राप्त है। वस्तुओं का लोभ, वस्तुओं का संग्रह, ये नहीं करना, यहाँ तक तो ठीक है जब साधु बन गया, गुरु बनेगा तो शिष्य होगा तब ही गुरु शिष्य का सम्बन्ध स्थापित होगा। फिर भी शिष्यों के संग्रह की वृत्ति नहीं रखना। भीड़ का संग्रह नहीं, शीलवानों का चारित्र वालों का संग्रह चयन-पद्धति से उनके गुण-दोषों को देखकर, उनकी इन्द्रिय आदि दोषों को देखकर निर्दोष इन्द्रिय वाला व्यक्ति ही साधु बनने की योग्यता का धारक होता है। मुनि ज्ञानसागर के पास बहुत लोग पढ़ने के लिए आते थे लेकिन कोई पढ़ने के बाद रुकता नहीं था, न रोकने की इच्छा रखते थे। ज्ञान के दान तक सीमित रहते थे। वो स्नत्रय की अभिलाषा रखे, निवेदन करे तो विचार करते थे। मांगते ही व्रतों को प्रदान नहीं करते थे, उसकी धर्म पिपासा को बढ़ाकर ग्रहण करते थे। उन्हें पिच्छीधारियों की भीड़ का संग्रह करने का लोभ नहीं था। वे आचार्य माघनन्दि के ध्यानसूत्र लोभरहितोऽहम् का पालन करते हुए चलते थे, उन्हें एक ही शिष्य की आवश्यकता थी, जो अनेक शिष्यों को जन्म देकर गुरु परम्परा को जीवित बनाये रखे। यह जीवन के अन्तिम क्षणों में अवसर प्राप्त हुआ। विद्याधर आया।

     

    चार वर्ष के अन्दर ज्ञान कात्नत्रय का दान कर विद्यासागर बना दिया। आज विद्यासागर के नाम से गुरु ज्ञानसागरजी एवं उनके साहित्य को जाना और माना जा रहा है। वे जैसे सीधे और सरल सहज थे, सीधे सहज, सरल शिष्य की प्राप्ति के लिए लालायित रहते थे। गुरु और शिष्य जब एक गुणात्मक विचारधारा के होंगे तो वह गुरु के ज्ञानदान को ऋण को चुकाने के लिए उनके चरणों को छोड़कर जाने की चेष्टा नहीं कर सकता। जिनसे ज्ञान प्राप्त किया। उन्हीं से स्नत्रय प्राप्त करने वाले एकल ब्रह्मचारी विद्याधर बन गुरु की शिष्य परम्परा को भरते चले गये। यही निर्लोभ वृत्ति उन्हें जगत् में प्रसिद्धि को प्राप्त करा गई।


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