ग्रन्थ का विकल्प ही ग्रन्थी का कारण हुआ करता है। ज्ञानी भले बुद्धि में ज्ञान को रखता हो, या निर्ग्रन्थ होकर ग्रन्थ का प्रयोग करता हो, इसमें कोई बाधा नहीं जान पड़ती, लेकिन जब वह ज्ञानीध्यानी की मुद्रा को धारण कर लेता है तो ग्रन्थ यों ही छूट जाते हैं, क्योंकि ध्यान के समय ज्ञान का आलंबन नहीं रहता।
आचार्य ज्ञानसागरजी कहते थे-कोई ज्ञानी है, पण्डित है, विद्वान् है, सरस्वती पुत्र है, तो भी वह अपने ध्यान काल में हमेशा पुस्तकों को, ग्रन्थों को, जिनवाणी को साथ नहीं रखेगा। क्योंकि ध्यान काल में ज्ञान भी विकल्प का कारण बनता है, इसलिए उसके आलम्बन से रहित होकर ही ध्यान का अभ्यास किया जाता है। ध्यान हमेशा बिना आलम्बन के चलता है और ज्ञान आलम्बन से सहित होता है। ज्ञान जब भी प्राप्त होगा गुरुओं से या ग्रन्थों से और ध्यान जब भी प्राप्त होगा तो साधना के द्वारा। एक अध्ययन से प्राप्त होता है। दूसरा साधना के द्वारा प्राप्त होता है।
आचार्यश्री जी के श्री मुख से
१०.०९.२००५, सोमवार
धवला पहली पुस्तक, सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर (मध्यप्रदेश)