अपना काम, अपने हाथ इसी को कहते हैं-''अपना हाथ जगन्नाथ' और पुरानी कहावत भी है-“बिना मरे स्वर्ग प्राप्त नहीं होता है। इसलिए आचार्यों ने कहा है-षट् आवश्यकों का पालन जब भी होगा-स्वाश्रित क्रिया के द्वारा होगा न कि पर के आलम्बन द्वारा।स्व का आलम्बन ही वास्तविकता से परिचय कराकर आवश्यकता की निर्दोषता को कायम बनाये रखता है। जिस आवश्यक का जो समय श्रावकाचार में, मूलाचार में, पुराणों में, ग्रन्थों में मिलता है, वही उचित जान पड़ता है। दोष का परिमार्जन अपने ही द्वारा परिमार्जित, संशोधित किया जाता है। दोष हम लगाये और दूसरा धोये ऐसा कभी सम्भव नहीं है। ये कोई वस्त्र आभूषण नहीं जो धोबी के, सुनार के द्वारा साफ किये जायें।
अपने दोषों को स्मृति में लाकर उस प्रतिक्रमण से आत्म प्रतिक्रमण में समाकर मेरा मिथ्या कर्म, मिथ्या हो, ऐसी अन्तर प्रेरणा, द्रव्य और भाव प्रतिक्रमण के द्वारा नष्ट हुआ करती है। उन्होंने मुनिव्रत को धारण कर कभी अपने जीवन में वस्त्र का प्रयोग नहीं किया। न कोई वस्त्रों या वस्तुओं का संग्रह कर परिग्रह को बल प्रदान नहीं किया। न आसनों से कोई मतलब था न सिंहासन से, उन्हें तो अपने पद के अनुरूप व्रतों के आवश्यक अनुष्ठान से प्रयोजन रहता था। उन्हें गप्पे हाँकने का, फिजूल बातों का, हँसी-ठिठोली करने का समय नहीं रहता था। उन्हें तो अपने आवश्यक की फिक्र रहती थी। वे समय का दान आवश्यक में लगे साधकों को प्रदान करते थे। समय के दाता, श्रमण संघ के नायकत्व का निर्वाह करने वाले विद्याधर की आवश्यकों में लगनशीलता को देखकर ही आश्रय दान दिया। अपनी ही छाँव में रखकर धर्म के भावों से पोषण किया, सिंचन किया।
जैसे गुरु वैसे गुरु को शिष्य मिला। साधु के कार्य उसके ही २८ मूलगुणों के अनुसार सम्पादित होते हैं, दिन के कार्य दिन में, रात के कार्य रात में। यही साधुता की शोभा के सितारे उसके छह आवश्यक हैं। इनमें लगनशीलता ही धर्म को गगन की ऊँचाई को पा सकती है। जैसा हमने सुना वैसा हमने लिखा।