प्रतिष्ठा नहीं, अपने में प्रतिष्ठित होने की विचार शक्ति से साधक जीता रहता है। यही प्रतिष्ठा के प्रलोभन से रहित होने की प्रतिक्रिया हुआ करती है। न पूजा है, न प्रतिष्ठा है, न मंच है, न माला और न माइक है। मात्र आत्मा में साधना की समाहिता है। लिखना, पढ़ना, प्रवचन करना ये सभी कार्य अपने उपयोग को स्थिर करने के आयाम हैं। जो प्रगति और वृद्धि की ओर बढ़ा करते हैं। ब्रह्मचारी भूरामल पण्डित भूरामल ने कभी जिनवाणी के पठन-पाठन, लेखन को जीविका का साधन नहीं बनाया। मुनि संघों में, आचार्य संघों में पण्डित भूरामल अध्ययन कराते थे। आचार्य वीरसागर के संघ में वर्तमान में जो आर्यिका ज्ञानमति हैं, ये भूरामल से ही धर्म शिक्षा को प्राप्त कर संयम लब्धिस्थान की ओर बढ़ना हुआ। सभी को निःशुल्क शिक्षा बस बदले में त्यागी-व्रती होने के नाते शुद्ध प्रासुक भोजन ग्रहण करते थे या लठ्ठ के वस्त्रों को ग्रहण करते थे।
मोटा खाना, मोटा पहनना, एक ज्ञान के आराधक की यह साधारण-सी वेशभूषा हुआ करती थी। गाँव में भी पाठशालाओं में बाल-गोपालों को पढ़ानालिखाना संस्कारवान बनाना। तब भी अर्थ की कोई बात नहीं, परमार्थ की ही बात करते थे। तब कहीं संयम के लब्धि स्थान को प्राप्त कर क्षुल्लक ज्ञानसागर, ऐलक ज्ञानसागर, मुनि ज्ञानसागर, आचार्य ज्ञानसागर, क्षपकाचार मुनि ज्ञानसागर के पदों को प्राप्त किया। कभी साहित्य का सृजन, पद प्रतिष्ठा के भाव से नहीं किया, न ही शहरों में जाकर कोई बड़े-बड़े समारोह की अभिलाषा भी उनके मानस पटल पर उत्पन्न हुई। यही उनकी सज्जनता का बिन्दु जैन जगत् को प्रकाशित करता रहा। इतिहास के पन्नों में, साहित्य के पन्नों में, आचार्य परम्परा के पन्नों में उनका नाम ऐसा टंकोत्कीर्ण हो गया, जिसे कोई मिटाना भी चाहे तो, मिटा नहीं सकता है। वे ज्ञान के अर्जन से अपने मन का रंजन, मनोरंजन कर आत्महित के सम्पादन में जीवन की अन्तिम क्षण तक संलग्न जान पड़ते थे।