शरीर में विभिन्न प्रयोजन को लेकर अंग हुआ करते हैं। आँख का प्रयोजन प्रभु और गुरु के दर्शन से प्रारम्भ होता है। कान का प्रयोजन प्रभु और गुरु वाणी सुनने से होता है। मुख का प्रयोजन प्रभु और गुरु के गुणगान करने से होता है। नासा का प्रयोजन सुगन्धदुर्गन्ध साम्यभाव से जान पड़ता है। पैरों की सार्थकता तीर्थों और गुरुओं के दर्शन से सार्थक होती है। इसी प्रकार हाथों की सार्थकता का प्रयोजन दान से हुआ करता है। जिन हाथों से दान नहीं होता वह हाथ मांस और खून बने हुए तक सीमित रह जाते हैं। आचार्यों ने दान को चार श्रेणी में विभाजित किया है। आहार दान, औषध दान, अभयदान, उपकरण दान ब्रह्मचारी भूरामल, पण्डित भूरामल, क्षुल्लक ज्ञानसागरजी, ऐलक ज्ञानसागरजी, मुनि ज्ञानसागरजी, आचार्य ज्ञानसागरजी, इन सभी पदों का निर्वाह करते हुए वे दान के क्षेत्र में कभी पीछे नहीं रहे। श्रावक धर्म का मुख्य अंग प्रथम कर्तव्य आहार दान हुआ करता है। जब वे अपने गाँव में रहा करते थे, साधु के आने पर घर पर चौका हुआ करता था।
बालक भूरामल धार्मिक रुचि का होने से आहार दान के लिए धोती दुपट्टा पहनकर सबसे आगे भागते थे। ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने के बाद मुनि संघों में जब भी अध्ययन कराने जाते थे, आहार दान से कभी वंचित नहीं रहते थे। इसी प्रकार औषध दान रुग्ण साधुओं की सेवा-वैय्यावृत्ति आहार के समय यथोचित औषध यथाविधि से दान करते हुए देखा जाता था और अब शास्त्र दान की बात रही वे जिनवाणी को निःशुल्क ही प्रदान करते थे। कण्ठ की विद्या का कोई दाम नहीं होता है। उपकरण दान में भी पीछे नहीं
रहते थे। अभयदान में ग्राम में साधु आने पर उनकी रुकने की यथोचित व्यवस्था किया करते थे, यही दानशीलता का संस्कार उन्हें स्नत्रय के दान का अधिकारी बनाने में सक्षम कारण रहा। मुनि बनने के बाद में उन्होंने अणुव्रतों का श्रावकों के लिए दान दिया और ब्रह्मचारियों के लिए स्नत्रय का दान दिया। सबसे महत्त्वपूर्ण दान की विधा उनके जीवन में शुरू से अन्त तक बनी रही। वह थी समय के दान की सीमा, कोई भी जिज्ञासु कभी ज्ञान की अभिलाषा से आता था तो खाली हाथ नहीं जाता था।