पत्र क्रमांक-१३९
२३-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
अपृथग्भूत-पृथग्भूत चैतन्यपरिणाम स्वरूप उपयोग से परिणमित दादागुरु परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों की सदा वन्दना करता हूँ... हे गुरुवर! आपने अपने लाड़ले शिष्य को समयसार का स्वाध्याय कराया तो उन्होंने उसकी अनुभूति रूप पुरुषार्थ भी किया। जब आपने मूलाचार पढ़ाया तो उसकी साधना को भी साधने लगे। इस सम्बन्ध में पूर्व में लिख चुका हूँ किन्तु वे जब कभी अवसर मिलता तो विशेष साधना करते, जो लोगों को देखने में आ जाती, जिससे लोग बड़े प्रभावित होते । इसी तरह की एक साधना के बारे में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने बताया-
मूलगुणों के विशेष साधक मुनि श्री विद्यासागर
‘‘रेनवाल चातुर्मास में मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज अपने २८ मूलगुणों के साथ-साथ उत्तर गुणों की भी विशेष साधना करते रहे। चातुर्मास के दौरान उन्होंने २८ मूलगुणों के अन्तर्गत भू-शयन नामक मूलगुण को विशेष रूप से पालन किया। आषाढ़ शुक्ला १४ से कर्तिक शुक्ला १४ तक, ४ माह चौबीसों घण्टे जमीन पर बिना पाटे, बिना चटाई, बिना घास-फूस के बैठते-उठते-सोते । मात्र दोपहर में प्रवचन करने के समय पर सामाजिक दृष्टि से मर्यादा का पालन करने के लिए समाज के नम्र निवेदन पर तखत पर बैठते थे। वर्षायोग में कई बार धूप नहीं निकलती और ठण्ड भी लगती थी फिर भी उनकी शीत परिषहजय की साधना अखण्ड चलती रही जो पंचमकाल में श्लाघनीय है, स्तुत्य है और सबसे बड़ी साधना तो यह देखने में आयी कि चार माह के प्रवचन में इस विषय पर कोई भी चर्चा नहीं की।
इस तरह आपके लाड़ले शिष्य मेरे अपने गुरुवर को हमने कभी भी मुँह मिट्ठू बनते नहीं देखा अर्थात् अपने मुख से स्वयं की प्रशंसा करते नहीं देखा-सुना। यही कारण है कि वे अपने बारे में कभी भी चर्चा नहीं करते। गुरुदेव की इस विशिष्ट साधना के बारे में जब चर्चा की तो लोगों ने बताया कि हमारे पिताजी बताते थे कि मुनिराज विद्यासागर जी को कहते कि महाराज आप पाटे पर बैठ जाएँ, जमीन पर अच्छा नहीं लगता; तो विद्यासागर जी कहते-‘मैं प्रकृति के पाटे पर बैठा हूँ, धरती माँ की गोद में बैठने पर कैसी शरम? गुरु शरण में कोई तकलीफ होने वाली नहीं है।' उनकी साधना से बहुत बड़ी प्रभावना हुई। तबसे आज तक रेनवाल के लोग उनको अपना गुरु मानते हैं। दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने मेरे गुरु की प्रभावना का एक और संस्मरण भीलवाड़ा २०१५ में बताया-
मुनि श्री विद्यासागर जी के प्रभावोत्पादक प्रवचन
‘‘रेनवाल चातुर्मास में मुनि श्री विद्यासागर जी के प्रवचन लोगों को बहुत अच्छा लगा करते थे, खास तौर पर युवा वर्ग के लिए। एक दिन प्रवचन में दो पंक्ति की कविता बोली-
अधिक हवा भरने से फुटबॉल फट जाये।
बड़ी कृपा भगवान की पेट नहीं फट पाये ॥
इन शब्दों पर प्रवचन करते हुए बड़ी गहरी बात बोली-'अइमत्तभोयणाए' अर्थात् अतिमात्रा में भोजन करना अचौर्याणुव्रत का उल्लंघन है। एक बार प्रवचन में सुमधुर स्वरों में गाते हुए चार पंक्तियाँ बोलीं-
साधना अभिशाप को वरदान बना देती है।
भावना पाषाण को भगवान बना देती है ।
विवेक के स्तर से नीचे उतरने पर।
वासना इन्सान को शैतान बना देती है ।
इन पंक्तियों पर विशेष प्रभावोत्पादक प्रवचन किया। प्रवचन समाप्त होने पर बहुत सारे लोगों ने तरह-तरह के नियम लिए। कुछ लोगों ने सप्त व्यसन का त्याग किया। कुछ लोगों ने नशीले पदार्थ बीड़ीसिगरेट-तम्बाकू आदि का त्याग किया। कुछ श्राविकाओं ने जमीकंद का त्याग किया। कुछ बुजुर्गों ने रात्रि जल का त्याग किया। ऐसे हैं मुनि श्री विद्यासागर जी, जो शुरु से ही आज तक प्रभावशाली प्रवचन करते यह सब आपका ही ज्ञान संस्कार है जो मेरे गुरु के अन्दर बोलता है। आप जैसे गुरु-शिष्यों को नमन करता हूँ...
आपका
शिष्यानुशिष्य