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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - 138 - रेनवाल ने देखा सन् १९७० का चातुर्मास

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    Vidyasagar.Guru

    पत्र क्रमांक-१३८

    २२-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर

     

    भक्तों के मन में भक्ति पैदा करने वाले आचरण के धारक गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में कोटिशः नमोऽस्तु करता हूँ...। हे गुरुवर! आपके संघ सान्निध्य में धर्म का आनन्द पाने से समाज आपका चातुर्मास कराने हेतु हर रोज निवेदन करने लगी, किन्तु आप न तो आश्वासन देते न ही कुछ बोलते, क्योंकि बन्धन आपको स्वीकार नहीं। आश्वासन से तो बंधन की स्वीकारोक्ति है। समाज के लोग आश्वासन चाहते किन्तु आपने आगम अनुसार मौन धारण किया और रेनवाल दिगम्बर जैन समाज की भक्ति-भावना-समर्पण को देखते हुए आपका मन रेनवाल में चातुर्मास करने का हो गया। यद्यपि आस-पास के कई गाँव व शहरों के लोग आपका चातुर्मास कराने का निवेदन कर चुके थे, तथापि अतिश्रद्धा-भक्ति-समर्पण की जीत हुई और किशनगढ़-रेनवाल में चातुर्मास की स्थापना हुई । इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने बताया-

     

    रेनवाल ने देखा सन् १९७० का चातुर्मास

     

    १७-०७-१९७० शुक्रवार आषाढ़ शुक्ल १३-१४ विक्रम संवत् २०२७ को प्रात:काल आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज, मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज, ऐलक सन्मतिसागर जी महाराज, क्षुल्लक सुखसागर जी महाराज, क्षुल्लक सम्भवसागर जी महाराज, क्षुल्लक विनयसागर जी महाराज, ब्र.मांगीलाल जी, ब्र. बनवारीलाल जी, ब्र. दीपचंद जी आदि सभी ने उपवास पूर्वक भक्तियों के पाठ कर चातुर्मास स्थापित किया। तत्पश्चात् मंच पर मुनि श्री विद्यासागर जी एवं आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का मार्मिक प्रवचन हुआ और चातुर्मास का बंधन क्यों किया जाता है? और मुनि आश्वासन क्यों नहीं देते? इस पर विशद व्याख्या की।

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    रेनवाल चातुर्मास की दैनन्दिनी

     

    ‘‘चातुर्मास में प्रतिदिन प्रातः ७:३०-८:३० बजे तक धर्मसभा का अयोजन जैन भवन में होता था। जिसमें पूज्य गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज छहढाला के छन्दों को सुरीले स्वर में गाकर बोलते थे और इस पर प्रवचन करते थे। इसमें पूरी समाज उपस्थित होती थी। फिर ९:३० बजे आहारचर्या, १२:00 सामायिक, १:३० बजे से आचार्य महाराज मुनि श्री विद्यासागर जी को न्याय विषयक ग्रन्थ प्रमेयकमल मार्तण्ड एवं अष्टसहस्री पढ़ाते थे। मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज उच्चारण करते और आचार्य महाराज उसका शब्दार्थ, भावार्थ, विशेषार्थ बताते थे। फिर दोपहर में ३:00-४:00 बजे तक मुनि श्री विद्यासागर जी प्रवचन करते थे। इसके बाद आचार्य गुरुदेव मुनि श्री विद्यासागर जी को आचार्य पूज्यपाद स्वामी विरचित संस्कृत व्याकरण ग्रन्थ जैनेन्द्र प्रक्रिया पढ़ाते थे। फिर संघ प्रतिक्रमण करता, देवदर्शन करता और अंधेरा होने से पूर्व सामायिक में हम सब बैठ जाते थे, फिर रात्रि में गुरुदेव की वैयावृत्य करके १० बजे विश्राम में चले जाते थे।

     

    चातुर्मास में पूज्य मुनिश्री विद्यासागर जी महाराज जब कभी समय मिलने पर गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज द्वारा ब्रह्मचारी अवस्था में रचित 'जयोदय महाकाव्य' की सूक्तियाँ लिखा करते थे।' इसी प्रकार रेनवाल के श्रीमान् गुणसागर जी ठोलिया ने बताया कि दोपहर में प्रतिदिन मुनि श्री विद्यासागर जी का प्रवचन होता था। तब उस प्रवचन में आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज भी बैठते थे और प्रवचन सुनते थे। जब मुनि श्री प्रवचन में कन्नड़ की कोई विशेष बात बताते तो ज्ञानसागर जी महाराज हँसते थे। उनके प्रवचन की टोन कन्नड़ भाषा से प्रभावित थी इसलिए हम सभी को बड़े अच्छे लगते थे।'' इसी प्रकार ‘जैन सन्देश' में ०६-०८-१९७० को रेनवाल के प्रचारकर्ता रतनलाल जी गंगवाल ने समाचार प्रकाशित करवाया-

     

    संघ समाचार

     

    ‘‘किशनगढ़-रेनवाल में श्री १०८ आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के संघ का चातुर्मास सानन्द सम्पन्न हो रहा है। प्रातः ७:३०-८:३० बजे तक प्रौढ़ शिक्षण शिविर को आरम्भ किया गया है। जिसमें पूज्य आचार्य महाराज स्वयं छहढाला का अध्ययन कराते हैं। दोपहर में श्री १०८ मुनि श्री विद्यासागर महाराज का प्रभावशाली सरस प्रवचन होता है। आचार्य श्री से श्री नेमीचंद जी गंगवाल पचार वालों ने ७ प्रतिमा के व्रत लिए। इस तरह रेनवाल चातुर्मास में आपने प्रथम बार प्रौढ़ जनों का शिविर आयोजित किया और स्वयं अपने अनुभवों से समाज को संस्कारित किया। ऐसे सम्यग्ज्ञान संस्कार दाता के पावन चरणों में त्रिकाल वन्दन करता हूँ...

    आपका

    शिष्यानुशिष्य


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