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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - 137 - दीक्षादिवस सानन्द सम्पन्न एवं हुई क्षुल्लक दीक्षा

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    Vidyasagar.Guru

    पत्र क्रमांक-१३७

    २१-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर

     

    इच्छा उत्सुकता व्याकुलता रहित ज्ञानजीवी ज्ञानमूर्ति परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चिह्नांकित कर्ता चरणों में कोटिशः नमन नमोऽस्तु निवेदित करता हूँ... | हे गुरुवर! आप जहाँ पर भी जाते तो संघ की भव्य आगवानी होती कारण कि आपकी ज्ञान-यशसुरभि जो सर्वत्र व्याप्त थी। आपके तार्किक, आध्यात्मिक, आगमिक प्रवचन सुनने को लोग लालायित रहते थे। इस कारण आपको पाकर लोग आनन्द उल्लास से भर जाते थे। इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने बताया ‘जून के अन्तिम सप्ताह में गुरुदेव रेनवाल पहुँचे थे। रेनवाल वालों ने भव्य आगवानी की ऐसा लग रहा था जैसे रेनवाल वालों को पूर्व से ही गुरुवर के आने की सम्भावना थी और इसलिए भव्य आगवानी की तैयारी कर रखी थी। आगवानी का जुलूस दिगम्बर जैन मन्दिरजी पहुँचा संघ ने दर्शन किए फिर संघ को जैन भवन में रुकाया गया था। २-३ दिन बाद मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज ने दीक्षोपरान्त आठवाँ केशलोंच किया। पूरी समाज केशलोंच देखने उपस्थित हुई। फिर कुछ दिन बाद आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने भी केशलोंच किया। इससे सम्बन्धित रेनवाल के गुलाबचंद जी गंगवाल ने संघ आगमन का समाचार ‘जैन गजट' में प्रकाशित कराया। जो २ जुलाई १९७० को प्रकाशित हुआ-

     

    संघ का शुभागमन

     

    ‘‘किशनगढ़ (रेनवाल)-यहाँ श्री १०८ आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के संघ का पदार्पण हुआ है। संघ का यहाँ गाजे-बाजे से अभूतपूर्व स्वागत हुआ है। संघ का चातुर्मास किशनगढ़ में ही होने की पूर्ण संभावना है। संघ में २ मुनि, १ ऐलक, १ क्षुल्लक तथा ३ ब्रह्मचारी हैं। प्रतिदिन दोपहर में श्री १०८ मुनि विद्यासागर जी महाराज का धर्मोपदेश होता है। धार्मिक समाज को यहाँ पधारकर धर्मलाभ लेना चाहिए।' 

     

    परमपूज्य मुनिराज श्री १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज की पूजन

    स्थापना

     

    दोहा-चरित मूर्ति परीषहजयी, जितेन्द्रिय गंभीर।

    निर्मल अविकारी छवि, दयावान अरु धीर ॥

    बाल ब्रह्मचारी सुधी, विनयवान गुणवन्त।

    शान्तिपुंज तेजोमयी, विद्यासागर सन्त ॥

    ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वर! अत्र अवतर-अवतर संवौषट्।

    ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वर! अत्र तिष्ठ-तिष्ठ ठः ठः।

    ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वर! अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट्।

     

    द्रव्याष्टक

    शीतल सुरभि जल लाय, चरण पखार करै ।

    दुःख जन्म जरा मृत जाय, पूजत पाप टरै ।।

    विद्याधर विद्यावान, तुम विद्यासागर ।

    चन्द्रोज्ज्वल कान्तिवान, बालयती मनहर ॥

    ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि. स्वाहा।

     

    ये चंदन सहित कपूर, घिसकर हूँ लाया।

    भव ताप दुःख से पूर, मेटो मुनिराया। विद्याधर...

    ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वराय संसारतापविनाशनाय चन्दनं नि. स्वाहा।

     

    ये तन्दुल चन्द्र समान, पूजन को लाया।

    अक्षय पद करुणावान, पाने ललचाया। विद्याधर..

    ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि. स्वाहा।

     

    पूजन को फूल गुलाब, बेला मंगवाये।

    नहीं जूही का है जवाब, काम व्यथा जाये। विद्याधर...

    ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वराय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि. स्वाहा।

     

    ये मोदक और मिष्ठान, पूजन को लाया।

    नश जाये क्षुधा ये जान, गुरु चरणन आया। विद्याधर...

    ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा।

     

    ये घृत से पूरित दीप, तुम ढिंग आय धरूँ।।

    मोहान्ध रहे न समीप, इतनी विनय करूं। विद्याधर...

    ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वराय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा।

     

    ले गंध सुगंध अनूप, धूपायन डा।

    पूजन कर शुद्ध स्वरूप, करमन को जाऊँ। विद्याधर...

    ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वराय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि. स्वाहा।

     

    नारंगी आम अंगूर, बहुफल हूँ लाया।

    शिव फल चाहूँ मैं हुजूर, गुण गण तब गाया। विद्याधर...

    ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वराय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. स्वाहा।

     

    ले अष्ट द्रव्य का थाल अर्घ चढाऊँ मैं।

    पद अनर्घ पाऊँ दयाल, बलि बलि जाऊँ मैं। विद्याधर...

    ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वराय अनर्थ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि. स्वाहा।

     

    जयमाला

    दोहा-आभा मुख लख शान्त हो, मन ज्यूँ चन्द्र चकोर ।

    मगन होय नाचन लगे, मेघ देख ज्यूँ मोर ।।

    पाप रहे ना पास में, शुद्धातम बन जाय।

    ऐसे गुरु पद पूज के, धन्य ‘प्रभु' कहलाय ।।

     

    पद्धरी छन्द  

    जय विद्यासागर शीलवान, तुम बाल ब्रह्मचारी महान।

    तुम प्रभापुंज हो वीर्यवान, समताधारी हो धैर्यवान ॥

    तब कामदेव सम सुभग रूप, मुख मण्डल महिमा है अनूप।

    अति प्रभावकर व्यक्तित्व आप, लख पड़े हृदय पर अमिट छाप ।।

    निर्ग्रन्थ रूप जन करत दर्श, बरबस चरणन पड़े धार हर्ष।

    मृदुभाषी लेते मन को जीत, जागृत करते मन धर्म प्रीत ॥

    शुभ भाव अनेकों मन जगाय, उन्नत पथ पर दीना लगाय।

    हर घड़ी रहें रत धर्म ध्यान, कर ज्ञानार्जन निज पर कल्याण ॥

    तुम धन्य-धन्य श्रीमंती लाल, दिया पितु मल्लप्पा कुल उजाल ।।

    लिया जन्म सदलगा ग्राम मांय, विद्याधर लीना नाम पाय।

    तुम नवम वर्ष की उम्र मांय, जब शेडवाल नगरी में आय ॥

    आचार्य शान्ति के दर्श पाय, वैराग्य पौध मन में लगाय।

    श्री देशभूषण से शील जाय, ले लिया श्रवण बेलगोल मांय ॥

    कालान्तर में गुरु ज्ञान पास, अजमेर आये ले एक आस।

    गुरु ज्ञानसिन्धु की शरण पाय, किया शास्त्र पठन बहु मन लगाय॥

    मुनि पद ताईं अभ्यास कीन, की विनय गुरु से होय दीन।

    तिथि पंचम सुद आषाढ़ मास, दो हजार पचीस में वरी आस ॥

    हुई अजयमेर भूमि पुनीत, भू गगन गा उठे हर्ष गीत।

    हर्षित हुए इन्द्रादिक अपार, ढोरे थे कलश बहा नीर धार ॥

    बाईस वर्ष लिया जोग धार, तुम धन्य जैन शासन सिंगार।

    अनुपम आदर्श रखा है लोक, ऐसे मुनि चरणन सहस ढोक ॥

    ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वराय पूर्णार्धं निर्वपामीति स्वाहा।

     

    दोहा-तजकर जग के भोग सुख, वरन चले शिवनार ।

    ऐसे साधु चरण गह, ‘प्रभु' होगा उद्धार ।

     

    ॥ इत्याशीर्वादः ॥

    इस प्रकार मुनि श्री का दीक्षादिवस सानन्द सम्पन्न हुआ ही था और ५ दिन बाद पुनः महोत्सव हो गया। इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा ने बताया

     

    रेनवाल में हुई क्षुल्लक दीक्षा

     

    ‘ब्र. जमनालाल जी ने केसरगंज अजमेर में २०२६ आषाढ़ शुक्ला १० को आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज से सप्तम प्रतिमा ग्रहणकर संघ में प्रवेश किया और उन्होंने कई बार गुरुदेव से दीक्षा का निवेदन भी किया था। तब गुरुदेव कहते थे देखो अभी साधना करो और जैसे ही रेनवाल पहुँचे तो समाज को ब्रह्मचारी जी की दीक्षा का संकेत किया और मुहूर्त बताया। समाज में उत्साह आ गया सब तैयारियाँ कर ली गईं। मुनि श्री विद्यासागर जी का द्वितीय दीक्षा दिवस से लेकर १४ जुलाई तक का कार्यक्रम प्रचारित हो गया।'

     

    जमनालाल जी के परिचय के बारे में रैनवाल के गुणसागर जी ने ज्ञानदीपिका नामक छोटी-सी पुस्तिका लाकर दी जिसके रचयिता मुनिराज श्री विजयसागर जी हैं। जिसमें सूरजमल जी गंगवाल ने रचयिता का परिचय दिया है। संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है-खाचरियावास (सीकर राज.) ग्राम में सेठ श्री उदयलाल जी गंगवाल की धर्मपत्नी श्रीमती धापूबाई जी की मंगलकुक्षि से भादवा सुदी १० दीतवार वि. संवत् १९७२ को आपका शुभ जन्म हुआ नाम रखा गया जमनालाल। लौकिक शिक्षा ग्रहणकर १६ वर्ष की अवस्था में विवाह हुआ और ३ पुत्र एवं २ पुत्रियाँ हुईं। आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के सम्पर्क में वि. संवत् २०१९ खाचरियावास में आये । वि. संवत् २०२३ अजमेर में दर्शन प्रतिमा ली।

     

    क्षुल्लक दीक्षा से सम्बन्धित मुनि श्री अभयसागर जी महाराज के द्वारा ‘जैन गजट' १३ अगस्त १९७0 अखबार की कटिंग प्राप्त हुई जिसमें गुलाबचंद जी गंगवाल ने इस प्रकार समाचार प्रकाशित कराया-

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    क्षुल्लक दीक्षा समारोह

     

    आषाढ़ शुक्ला १० मंगलवार १४ जुलाई ७0 वी.नि.स. २४९३ को किशनगढ़-रेनवाल में आ. श्री ज्ञानसागर जी महाराज के संघस्थ ब्रह्मचारी श्री जमनालाल जी गंगवाल खाचरियावास ने क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की (नाम-क्षुल्लक विनयसागर जी)। इस अवसर पर आचार्य महाराज के संघस्थ युवा मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का बहुत ही सारगर्भित प्रवचन हुआ। यहाँ आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के संघ का चातुर्मास सानन्द सम्पन्न हो रहा है। प्रातः ७:३०-८:३० बजे तक प्रौढ़ शिक्षण शिविर प्रारम्भ किया गया है। जिसमें स्वयं पूज्य आचार्य महाराज छहढाला का अध्ययन कराते हैं। करीब २५ प्रौढ़ पुरुष एवं महिलाएँ अध्ययन कर रहीं हैं। दोपहर में मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का प्रवचन होता है। दोपहर में ही स्थानीय करीब १०० बालक-बालिकाओं को ब्र. श्री दीपचंद जी धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन कराते हैं। अपूर्व धर्म प्रभावना हो रही है।''

     

    इस प्रकार रेनवाल प्रवेश से लेकर जो धर्म प्रभावना शुरु हुई वो चातुर्मास के अन्त तक चलती रही। क्षुल्लक दीक्षा के दिन श्री विजय कुमार जी शास्त्री एम.ए. जोबनेर ने परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर । जी महाराज की भक्ति करते हुए अपनी भावांजली व्यक्त की जो ‘जैन गजट' में छपी-

     

    हे! पूज्य ज्ञानसागर मुनिवर...

     

    ओ मानवता के चरम बिन्दु जीवन निधियों के धनागार।

    भविजन विकासि, हे पूर्ण इन्दु, तुम करुणा के सागर अपार ॥१॥

     

    काँटों की कुछ परवाह न कर, बढ़ चले साधना के पथ पर।

    दुर्दान्त तपस्वी परम धीर तुम सत्य शिवं सुन्दर के घर ॥२॥

     

    जग की मादक मोहकता ने तुमको न कभी ललचा पाया।

    पर में ममता को छोड़ सकल निज में शाश्वत सुख को पाया ॥३॥

     

    ओ श्रमण धीर, तुम घोर श्रमी, श्रम का मूल्यांकन कर पाये।

    कर घोर तपश्चर्या अविरत निज की निधियों को पा पाये ॥४॥

     

    तुम सागर से होकर गम्भीर, धरती सा धीरज धरते हो।

    गंगा-जल से पावन होकर ज्योत्स्नाकर सम सुख भरते हो ॥५॥

     

    तुम हिमधर से होकर उत्तुंग समता का पूर बहाते हो।

    रत्नत्रय निधि की गाँठ बाँध, योगी निर्ग्रन्थ कहाते हो ॥६॥

     

    तुम में शिशु का पावन तन है, माँ का स्नेह अमर्यादित ।

    नीरस मावस सम एक दृष्टि, पर स्वात्म ज्योति से अवभासित ॥७॥

     

    तुम फले हुए तरु से विनम्र जग आशा से न कभी झुकते।

    परिमल वाहक मलयानिल से, पर हित पथ पर न कभी रुकते ॥८॥

     

    निर्मुक्त गगन से हो स्वतन्त्र, बाह्याडम्बर का लेश नहीं।

    तुम साम्यवाद के अग्रदूत, तुमको श्रम का परिताप नहीं ॥९॥

     

    तुमने परिमित परिधान त्याग, दिग्मण्डल का अम्बर पहिना।

    तुम भूल सके क्या कभी इसे कैसा होता दुख का सहना ॥१०॥

     

    तुमने मन-वच-काया की सब अभिलाषाओं को ठुकराया।

    पर स्रोत अहिंसा का कैसे जग जीवन में नित सरसाया ॥११॥

     

    तुम साधक हो, अन्वेषक हो, परमार्थ तत्त्व के चिन्तक हो।

    फिर सतत निस्पृही बन करके क्यों निरी पहेली बनते हो ॥१२॥

     

    ओ जान चुका मानव विराट, तुम आत्म तेज के पुंज अहो!

    ओ साधक, ज्ञायक बनकर तुम, चित्त में आनन्द समीहक हो ॥१३॥

     

    हे वीतराग, हे निर्विकार, हो शान्ति-मूर्ति तुम आत्मजयी।

    जड़-चेतन का करते विचार हे उग्र तपस्वी कर्म-जयी ॥१४॥

     

    कल्याण मार्ग के परिचायक आत्मिक निधियों के हो अगार।

    भौतिक जग के प्रति उदासीन जीवन सम रसता के उभार ॥१५॥

     

    हे पूज्य ज्ञान-सागर मुनिवर, आचार्यवर्थ्य, यतिराज अहो।

    जग पूज्य तपस्विन् तुम सा है जग में भी कोई साधु कहो ॥१६॥

     

    समता के सागर हे ऋषिवर, तुम को इस जन का नमस्कार।

    भव-वारिधि में जो डूब रहे, तुम उनको नित लेते उबार ॥१७॥

     

    ओ पूज्य तपोनिधि चरणों में श्रद्धा से शीष झुकाता हूँ।

    तब सौम्य-मूर्ति की आभा में, मैं अपने पन को पाता हूँ ॥१८॥

     

    इस प्रकार किशनगढ़-रेनवाल में धर्म की गंगा बहने लगी। ऐसी ज्ञानगंगा बहाने वाले गुरु-शिष्य के पावन चरणों में त्रिकाल वंदन करता हुआ...

     

    आपका

    शिष्यानुशिष्य

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