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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - 134 - स्वाभिमानी मुनि श्री विद्यासागर की अयाचकवृत्ति

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    Vidyasagar.Guru

    पत्र क्रमांक-१३४

    १८-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर

     

    स्वाभिमानी अयाचकवृत्ति सम्पन्न परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में विनयार्थ्यं समर्पित करता हूँ... हे गुरुवर! आपने ब्र. विद्याधर जी को दीक्षा देकर बाहर से ही नहीं भीतर से भी नंगा कर एक वर्ष से भी कम अवधि में मूलाचार को ऐसा हृदयंगम कराया कि वह आचरण में बोलने लगा। इस सम्बन्ध में आपको एक संस्मरण लिख रहा हूँ जो मुझे दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने बताया । यद्यपि आपको पढ़ते ही यह बात स्मरण में आ जायेगी क्योंकि इस संस्मरण में आपका जवाब भी लाजवाब है-

     

    स्वाभिमानी मुनि श्री विद्यासागर की अयाचकवृत्ति

     

    ‘‘सन् १९७0 मई माह की बात है आचार्य गुरुदेव संघ सहित फुलेरा पहुँचे। तब एक दिन मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को चौके में प्रारम्भ में एक लोटा भरकर नीम का पानी दिया और श्रावकश्राविकाएँ गर्म दूध को ठण्डा करने बैठ गए। मुनिश्री जी की अंजुली कुछ समय खाली रही इस कारण मुनिश्री जी अन्तराय मानकर बैठ गए। श्रावक-श्राविकाएँ घबरा गये। मुनिश्री जी ने मन्दिर आकर गुरु महाराज को चर्या सम्बन्धी समाचार दिये। तब श्रावकों ने गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज से पूछा- ‘विद्यासागर जी महाराज ने ऐसा क्यों किया?' तो गुरुदेव बोले- ‘दिगम्बर मुनि महाराज अयाचकवृत्ति वाले होते हैं। वे किसी भी वस्तु की याचना नहीं करते इसलिए ज्यादा समय तक अंजुली खोलकर नहीं रखते ।ज्यादा समय तक अंजुली खोलकर रखने पर दीनता प्रकट होती है, जो दिगम्बर मुनि की सिंहवृत्ति के विपरीत है। इसलिए विद्यासागर जी ने अच्छा किया।' श्रावक अपनी गलती पर पश्चाताप करते हुए रोते रहे और मुनि श्री विद्यासागर जी मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए आशीर्वाद देते रहे।"

     

    इस तरह स्वाभिमानी आत्मरस के रसिक मेरे गुरुवर की सिंहवृत्ति ने आज इस पंचमकाल में चतुर्थकाल की साधना को करके दिखा दिया है कि भगवान महावीर की चर्या कैसी थी? और पंचमकाल के अन्तिम समय तक आगम वर्णित दिगम्बर मुनि की २८ मूलगुणात्मक चर्या विद्यमान रहेगी। ऐसे भगवान महावीर के लघुनंदन गुरु-शिष्य के पावन चरणों में त्रिकाल त्रिकरणयुक्त त्रिभक्तिपूर्वक कोटि-कोटि नमोऽस्तु करता हुआ...

     

    आपका

    शिष्यानुशिष्य


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