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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. जिस प्रकार शरीर का तापमान थर्मामीटर के द्वारा नाया जाता है, उसी प्रकार संसारी आत्मा का आध्यात्मिक विकास या पतन गुणस्थान रूपी थर्मामीटर के द्वारा नापा जाता है। अर्थात अपने आत्मा के परिणाम को नापने के थर्मामीटर का नाम गुणस्थान है। ये कितने होते हैं, इनका क्या स्वरूप्य है। इसका वर्णन इस अध्याय में है। 1. गुणस्थान किसे कहते हैं ? मोह और योग के निमित्त से आत्मा के परिणामों में प्रति क्षण होने वाले उतार-चढ़ाव को गुणस्थान कहते हैं। (गोजी, 3) 2. गुणस्थान कितने होते हैं ? जीवों के परिणाम यद्यपि अनन्त हैं परन्तु उन सभी को चौदह श्रेणियों में विभाजित किया है, अत: गुणस्थान चौदह होते हैं-1. मिथ्यात्व, 2. सासादन, 3.मिश्र या सम्यग्मिथ्यात्व, 4.अविरत सम्यक्त्व, 5देशविरत या संयमासंयम, 6. प्रमत्तविरत, 7. अप्रमत्तविरत, 8. अपूर्वकरण,9. अनिवृत्तिकरण, 10. सूक्ष्मसाम्पराय, 11.उपशान्तमोह, 12. क्षीणमोह, 13.सयोगकेवली, 14.अयोगकेवली। 3. मिथ्यात्व गुणस्थान किसे कहते हैं ? मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से होने वाले तत्वार्थ के अश्रद्धारूप परिणामों को मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं। इन परिणामों से युक्त जीवों को मिथ्यादृष्टि कहते हैं। इसके दो भेद हैं (अ) स्वस्थान मिथ्यादृष्टि (ब) सातिशय मिथ्यादृष्टि। जो जीव मिथ्यात्व में ही रचपच रहा है, उसे स्वस्थान मिथ्यादृष्टि कहते हैं एवं सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के सम्मुख जीव के जो अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप परिणाम होते हैं, उसे सातिशय मिथ्यादृष्टि कहते हैं। 4. सासादन गुणस्थान किसे कहते हैं ? प्रथमोपशम सम्यक्त्व अथवा द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के काल में कम-से-कम एक समय और अधिक-से-अधिक छ: आवली शेष रहने पर अनन्तानुबन्धी कषाय के चार भेदों में से किसी एक कषाय के उदय होने से उपशम सम्यक्त्व से च्युत होने पर और मिथ्यात्व प्रकृति के उदय न होने से मध्य के काल में जो परिणाम होते हैं, उसे सासादन गुणस्थान कहते हैं। (जी.का. 19) उपशम सम्यक्त्व से पतित होकर जीव जब तक मिथ्यात्व गुणस्थान में नहीं आता तब तक उसे सासादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं। इस गुणस्थान का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट से छ: आवली है। नोट - इस गुणस्थान में उपशम सम्यग्दृष्टि ही आता है। 5. सम्यग्मिथ्यात्व या मिश्र गुणस्थान किसे कहते हैं ? पूर्व स्वीकृत अन्य देवता के अपरित्याग के साथ-साथ अरिहंत भी देव हैं ऐसा अभिप्राय: वाला पुरुष मिश्र गुणस्थान वाला है। जिस गुणस्थान में सम्यक् और मिथ्यारूप मिश्रित श्रद्धान पाया जाए, उसे सम्यग्मिथ्यात्व या मिश्र गुणस्थान कहते हैं। दाल और चावल के मिश्रित स्वाद के समान सम्यक्त्व औरमिथ्यात्व से मिश्रित भाव को सम्यग्मिथ्यात्व कहते हैं। विशेष - सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में मारणान्तिक समुद्धात नहीं होता है। सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में मरण नहीं होता है। सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में आयुबन्ध भी नहीं होता है। सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान वाला संयम को भी प्राप्त नहीं कर सकता है। 6. अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान किसे कहते हैं ? जहाँ सम्यग्दर्शन तो प्रकट हो गया हो किन्तु किसी भी प्रकार का व्रत (संयमासंयम या सकल संयम) न हुआ हो, उसे असंयत सम्यक्त्व या अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान कहते हैं। (ध.पु., 1/172) 7. देशविरत या संयमासंयम गुणस्थान किसे कहते हैं ? इस गुणस्थान का धारक एक ही समय में संयत और असंयत दोनों होता है। वह श्रावक त्रसहिंसा से विरत होने से संयत है और स्थावर हिंसा से विरत न होने से असंयत है, अत: उसे देशविरत या संयमासंयम गुणस्थान कहते हैं। (धपु., 1/174-175) 8. प्रमतविरत गुणस्थान किसे कहते हैं ? जहाँ सकल संयम प्रकट हो गया है किन्तु संज्वलन कषाय का तीव्र उदय होने से प्रमाद हो, उसे प्रमतविरत गुणस्थान कहते हैं। (धपु., 1/176) 9. अप्रमतविरत गुणस्थान किसे कहते हैं ? जहाँ संज्वलन कषाय का मन्द उदय हो जाने से प्रमाद नहीं रहा उस परिणाम को अप्रमतविरत गुणस्थान कहते हैं। (ध.पु., 1/179) 10. अप्रमतविरत गुणस्थान के कितने भेद हैं ? अप्रमतविरत गुणस्थान के दो भेद हैं -स्वस्थान अप्रमतविरत एवं सातिशय अप्रमतविरत। जो सातवें गुणस्थान से छठवें में और छठवें गुणस्थान से सातवें में आते-जाते रहते हैं, उनको स्वस्थान अप्रमतविरत कहते हैं। जो उपशम अथवा क्षपक श्रेणी के सम्मुख होकर अध:प्रवृत्त करण रूप परिणाम करते हैं, उनको सातिशय अप्रमतविरत कहते हैं। (गो.जी., 46-47) 11. अध:प्रवृत्तकरण किसे कहते हैं ? जहाँ सम-समयवर्ती जीवों के परिणाम भिन्न-समयवर्ती जीवों के परिणामों से समान और असमान दोनों प्रकार के होते हैं, उन्हें अध:प्रवृत्तकरण कहते हैं। इन अध:प्रवृत्तकरण परिणामों की अपेक्षा अप्रमतविरत गुणस्थान का अपर नाम अध:करण भी है। 12. अपूर्वकरण गुणस्थान किसे कहते हैं ? 1. अ = नहीं, पूर्व = पहले, करण = परिणाम। जिस गुणस्थान में आत्मा के जो पूर्व में परिणाम नहीं थे ऐसे अपूर्व-अपूर्व परिणाम उत्पन्न होते हैं वह अपूर्वकरण गुणस्थान है। 2. इस गुणस्थान में सम-समयवर्ती जीवों के परिणाम समान-असमान दोनों होते हैं, किन्तु भिन्न समय में रहने वाले जीव के परिणाम भिन्न ही होते हैं। यहाँ मुनिराज पूर्व में कभी भी प्राप्त नहीं हुए थे, ऐसे अपूर्व परिणामों को धारण करते हैं इसलिए इस गुणस्थान का नाम अपूर्वकरण गुणस्थान है। (धपु., 1/181) 13. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान किसे कहते हैं ? अनिवृत्तिकरण के अन्तर्मुहूर्त काल में से किसी एक समय में रहने वाले अनेक जीव जिस प्रकार शरीर के आकार आदि से परस्पर में भिन्न-भिन्न होते हैं, किन्तु उनके परिणामों में भेद नहीं पाया जाता है,उसे अनिवृत्तिकरण गुणस्थान कहते हैं। (गो.जी., 57) तीनों करण के उदाहरण निम्नलिखित हैं - 1. अध:करण का उदाहरण - 1 बजे पाँच मुनिराजों ने विहार किया। वे गति की अपेक्षा से आगे-पीछे हो जाते हैं। एक तो सबसे आगे बढ़ गए तथा तीन पीछे रह गए तथा एक उनसे भी पीछे रह गए। इस प्रकार तीन भेद हो जाते हैं। 1 बजकर 5 मिनट पर फिर पाँच मुनिराजों ने विहार किया, उनमें से एक की तीव्रगति होने पर वह 1 बजे निकले मुनिराजों में जो सबसे आगे थे उन तक तो नहीं पहुँच पाते लेकिन बीच में जो तीन मुनिराज थे उनकी बराबरी कर लेते हैं और एक जो पीछे वाले थे, तीन उनके साथ हो जाते हैं और एक उनसे भी पीछे रह जाते हैं। 1 बजे निकले थे और जो 1 बजकर 5 मिनट पर निकले थे उनकी समानता मिल गई। इसी प्रकार जिन्होंने पहले अध:करण को प्राप्त किया उनकी विशुद्धि कम थी और जिन्होंने बाद में अध:करण को प्राप्त किया उनकी विशुद्धि अधिक थी तो पहले वाले के बराबर हो जाए उनसे मिल जाए, उसे अध:करण कहते हैं। 2. अपूर्वकरण का उदाहरण - जैसे-पाँच मुनिराजों ने 1 बजे विहार किया और उनमें से एक आगे निकल गए, तीन बीच में रह गए तथा एक उनसे भी पीछे रह गए अर्थात् एक समयवर्ती जीवों के परिणामों में तारतम्यता पाई जाती है। किन्तु 1 बजकर 5 मिनट पर जो पाँच मुनिराजों ने विहार किया तो वे भी आगे-पीछे हो गए लेकिन कितनी भी तीव्रगति से चले तो भी पहले वाले (1 बजे विहार करने वाले) की बराबरी नहीं कर पाएंगे अर्थात् भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणामों में असमानता ही पाई जाती है। 3. अनिवृत्तिकरण का उदाहरण - 1 बजे पाँच मुनिराजों ने विहार किया, वे सब एक साथ ही रहे आगे-पीछे नहीं हुए और 1 बजकर 5 मिनट पर जिन पाँच मुनिराजों ने विहार किया तो वे भी आगेपीछे न होकर एक साथ ही रहे। अत: अनिवृत्तिकरण में एक समयवर्ती जीवों के परिणामों में समानता और पूर्वोतर समयवर्ती जीवों के परिणामों में असमानता ही होती है। 14. ये तीन करण कहाँ-कहाँ होते हैं ? प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त करते समय। द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त करते समय। अन्तानुबन्धी की विसंयोजना करते समय। चारित्र मोहनीय का उपशम करते समय। चारित्र मोहनीय का क्षय करते समय। क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करते समय। विशेष - क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक चारित्र एवं संयमासंयम से पूर्व आदि के दो करण होते हैं। 15. करण किसे कहते हैं ? जिस परिणाम विशेष के द्वारा उपशमादि रूप विवक्षित भाव उत्पन्न किया जाता है, वह परिणाम करण कहलाता है। अथवा परिणाम को करण कहते हैं। (धपु., 1/181) 16. सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान किसे कहते हैं ? जिस गुणस्थान में संज्वलन लोभ कषाय का अत्यन्त सूक्ष्म उदय होता है, उसे सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान कहते हैं। सूक्ष्म = छोटा, साम्पराय=कषाय। (गो.जी., 59) 17. उपशांत मोह गुणस्थान किसे कहते हैं ? समस्त मोहनीय कर्म के उपशम से उत्पन्न होने वाले गुणस्थान को उपशांत मोह गुणस्थान कहते हैं। (ध.पु., 1/189) 18. क्षीण मोह गुणस्थान किसे कहते हैं ? समस्त मोहनीय कर्म के क्षय से उत्पन्न आत्मा का विशुद्ध परिणाम क्षीण मोह गुणस्थान कहलाता है। (ध.पु., 1/190) 19. सयोग केवली गुणस्थान किसे कहते हैं ? चार घातिया कर्मों के क्षय हो जाने से जहाँ अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख व अनन्त वीर्य प्रकट हो जाते हैं, उन्हें केवली कहते हैं और उनके जब तक योग रहता है, तब तक उन्हें सयोग केवली कहते हैं। (रा.वा., 9/24) 20. अयोग केवली गुणस्थान किसे कहते हैं ? सयोग केवली के जब योग नष्ट हो जाते हैं एवं जब तक शरीर से मुक्त नहीं होते हैं, तब तक इनको अयोग केवली कहते हैं। अयोग केवली का काल 5 हृस्व अक्षर (अ, इ, उ, ऋ, ल) बोलने में जितना समय लगता है, उतना ही है। इनके उपान्त्य समय में 72 एवं अन्तिम समय में 13 प्रकृतियों का क्षय हो जाता है। 21. किस गुणस्थान वाला जीव कौन-कौन-से गुणस्थानों में जा सकता है ? 22. उपशम श्रेणी किसे कहते हैं ? इसमें कितने गुणस्थान होते हैं एवं उपशम श्रेणी एक जीव कितने बार चढ़ सकता है ? जहाँ चारित्र मोहनीय कर्म का उपशम करता हुआ जीव आगे बढ़ता है, वह उपशम श्रेणी है। इसमें 8, 9,10,11 गुणस्थान होते हैं। उपशम श्रेणी वाले ही नीचे के गुणस्थानों में आते हैं एवं मरण भी उपशम श्रेणी वालों का होता है। उपशम श्रेणी अधिक-से-अधिक चार बार चढ़ सकते हैं किन्तु एक भव में दो बार से अधिक नहीं चढ़ सकते हैं। पाँचवीं बार यदि चढ़ेगा तो नियम से क्षपक श्रेणी ही चढ़ेगा। 23. क्षपक श्रेणी किसे कहते हैं ? इसमें कितने गुणस्थान होते हैं एवं क्षपक श्रेणी कितने बार चढ़ सकते है ? हाँ चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय करता हुआ जीव आगे बढ़ता है वह क्षपक श्रेणी है। इसमें 8,9,10 एवं 12 वाँ गुणस्थान होता है। इसमें मरण नहीं होता है एवं जीव एक ही बार क्षपक श्रेणी चढ़ता है और मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। (रावा, 9/1/18) 24.अनादि मिथ्यादृष्टि किसे कहते हैं ? जिसने अभी तक सम्यक् दर्शन को प्राप्त नहीं किया है, उसे अनादि मिथ्यादृष्टि कहते हैं। 25. सादि मिथ्यादृष्टि किसे कहते हैं ? जिसने एक बार सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लिया है एवं पुन: मिथ्यात्व में आ गया है, वह सादि मिथ्यादृष्टि है। अनादि मिथ्यादृष्टि प्रथम गुणस्थान से 4,5 एवं 7 वें गुणस्थान में जाता है एवं सादि मिथ्यादृष्टि प्रथम गुणस्थान से 3, 4, 5 एवं 7 वें गुणस्थान में जाता है। 26. एक जीव की अपेक्षा कौन से गुणस्थान का कितना काल है ? क्र. गुणस्थान जघन्मय क्राल उत्कृष्ट काल 1. मिथ्यात्व अन्तर्मुहूर्त अनादिअनंत, अनादि सांत और सादि सांत 2. सासादन एक समय 6 आवली 3. मिश्र या सम्यग्मिथ्यात्व अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त 4. अविरत सम्यक्त्व अन्तर्मुहूर्त एक समय कम 33 सागर एवं 9 अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि 5. देशविरत या संयमासंयम अन्तर्मुहूर्त एक पूर्व कोटि में 3 अन्तर्मुहूर्त कम 6. प्रमतविरत एक समय (मरण की अपेक्षा) अन्तर्मुहूर्त 7. अप्रमत्तविरत एक समय (मरण की अपेक्षा) अन्तर्मुहूर्त 8. अपूर्वकरण एक समय (मरण की अपेक्षा) अन्तर्मुहूर्त 9. अनिवृत्तिकरण एक समय (मरण की अपेक्षा) अन्तर्मुहूर्त 10. सूक्ष्म साम्पराय एक समय (मरण की अपेक्षा) अन्तर्मुहूर्त 11. उपशान्तमोह एक समय (मरण की अपेक्षा) अन्तर्मुहूर्त 12. क्षीण मोह अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त 13. सयोग केवली अन्तर्मुहूर्त 1 पूर्व कोटि में 8 वर्ष व 8 अन्तर्मुहूर्तकम 14. अयोग केवली अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त विशेष - जघन्य और उत्कृष्ट काल के बीच का समय मध्यम काल कहलाता है। 27. मरण किन-किन जीवों के नहीं होता है ? सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में, निवृत्यपर्याप्त अवस्था को धारण करने वाले मिश्रकाययोगी, क्षपकश्रेणी में, उपशम श्रेणी चढ़ते हुए अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम भाग में, प्रथमोपशम सम्यक्त्व में, तेरहवें गुणस्थान में, सप्तम पृथ्वी (नरक) के द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ गुणस्थान में, अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना करके मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने वाले जीव अन्तर्मुहूर्त तक मरण को प्राप्त नहीं होते हैं एवं कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि का मरण नहीं होता है। जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्क, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व का क्षय कर दिया है एवं सम्यक् प्रकृति का अनन्त बहुभाग क्षय कर दिया है, उसे कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि कहते हैं। (गोक, 560-561) आचार्य श्री यतिवृषभ जी के अनुसार कृतकृत्य वेदक का मरण होता है। विशेष - आचार्य यतिवृषभ के अनुसार कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि के मरण के बारे में दोनों उपदेश हैं। (ज.ध.2/213,215) 28. किस गुणस्थान में कितने जीव हैं ? प्रथम गुणस्थान में अनन्तानन्त जीव हैं। (धपु, 3/10) द्वितीय गुणस्थान में पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण जीव हैं। तृतीय गुणस्थान में पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण जीव हैं। चतुर्थ गुणस्थान में पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण जीव हैं। पञ्चम गुणस्थान में पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण जीव हैं। (धपु, 3/63) 29. मनुष्यगति के किस गुणस्थान में उत्कृष्ट से कितने जीव हो सकते हैं। 1. प्रथम गुणस्थान में - असख्यात 2. द्वितीय गुणस्थान में - 52 करोड 3. तृतीय गुणस्थान में - 104 करोड 4. चतुर्थ गुणस्थान में - 700 करोड 5. पञ्चम गुणस्थान में - 13 करोड 6. छठवें गुणस्थान में - 5,9398,206 7. सातवें गुणस्थान में - 2,9699,103 8. उपशम श्रेणी के अष्टम गुणस्थान में - 299 नवमे गुणस्थान में - 299 दसवें गुणस्थान में - 299 ग्यारहवें गुणस्थान में - 299 9. क्षपक श्रेणी के अष्टम गुणस्थान में - 598 नवमे गुणस्थान में - 598 दसवें गुणस्थान में - 598 बारहवें गुणस्थान में - 598 10. तेरहवें गुणस्थान में - 8,98,502 11. चौदहवें गुणस्थान में - 598 छठवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक के जीवों की कुल संख्या - 8,99,99,997 विशेष - कुल मनुष्यों की संख्या, असंख्यात है, वह सम्मूछन की अपेक्षा से है। गर्भज मनुष्यों की संख्या 29 अङ्क प्रमाण है। उपशम श्रेणी के प्रत्येक गुणस्थान में 299,300 एवं 304 जीव भी होते हैं एवं इससे दुगुने क्षपक श्रेणी के प्रत्येक गुणस्थान में 598,600 एवं 608 जीव भी होते हैं एवं चौदहवें गुणस्थान में भी क्षपक श्रेणी के किसी भी गुणस्थान के समान 598,600 एवं 608 जीव भी होते हैं। ऐसी तीन मान्यताएँ हैं। (धपु, 3/244-252 एवं 3/89, 3/95-97)
  2. लेश्या कितनी होती हैं, उनका लक्षण क्या है, किस गति में कितनी लेश्या होती हैं। इसका वर्णन इस अध्याय में है। 1. लेश्या के मूल में कितने भेद हैं ? लेश्या के दो भेद हैं-द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या। 2. द्रव्य लेश्या किसे कहते हैं ? वर्णनामकर्म के उदय से उत्पन्न हुआ जो शरीर का वर्ण है, उसको द्रव्य लेश्या कहते हैं। (गोजी,494) 3. भाव लेश्या किसे कहते हैं ? "कषायोदयरंजिता योग प्रवृतिरितिकृत्वा औदयिकीत्युच्यते" | कषाय के उदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति को भाव लेश्या कहते हैं। इसलिए वह औदयिकी कही जाती है। (रावा, 2/6/8) कषाय से अनुरंजित मन,वचन और काय की प्रवृत्ति को भाव लेश्या कहते हैं। "लिम्पतीति लेश्या" - जो लिम्पन करती है, उसको लेश्या कहते हैं। अर्थात् जो कर्मों से आत्मा को लिप्त करती है, उसको भाव लेश्या कहते हैं। संसारी आत्मा के भावों को (परिणामों को) भाव लेश्या कहते हैं। अन्य दर्शनकार इसे चित्तवृत्ति कहते हैं। वैज्ञानिकों ने इसे आभामण्डल कहा है। 4. द्रव्य एवं भाव लेश्या के भेद कितने हैं ? द्रव्य एवं भाव लेश्या के छ:भेद हैं - कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म एवं शुक्ल लेश्या। (गोजी,493) 5. कृष्णादि भाव लेश्याओं के लक्षण बताइए ? कृष्ण लेश्या - तीव्र क्रोध करने वाला हो, शत्रुता को न छोड़ने वाला हो, लड़ना जिसका स्वभाव हो, धर्म और दया से रहित हो, दुष्ट हो, दोगला हो, विषयों में लम्पट हो आदि यह सब कृष्ण लेश्या वाले के लक्षण हैं। (ध.पु., 1/390) नील लेश्या - बहुत निद्रालु हो, परवंचना में दक्ष हो, अतिलोभी हो, आहारादि संज्ञाओं में आसक्त हो आदि नील लेश्या वाले के लक्षण हैं। कापोत लेश्या - दूसरों के ऊपर रोष करता हो, निन्दा करता हो, दूसरों से ईष्र्या रखता हो, पर का पराभव करता हो, अपनी प्रशंसा करता हो, पर का विश्वास न करता हो, प्रशंसक को धन देता हो आदि कापोत लेश्या वाले के लक्षण हैं। पीत लेश्या - जो अपने कर्तव्य-अकर्तव्य, सेव्य-असेव्य को जानता हो, दया और दान में रत हो,मृदुभाषी हो, दृढ़ता रखने वाला हो आदि पीत लेश्या वाले के लक्षण हैं। पद्म लेश्या - जो त्यागी हो, भद्र हो, सच्चा हो, साधुजनों की पूजा में तत्पर हो, उत्तम कार्य करने वाला हो, बहुत अपराध या हानि पहुँचाने वाले को भी क्षमा कर दे आदि पद्म लेश्या वाले के लक्षण हैं। शुक्ल लेश्या - जो शत्रु के दोषों पर भी दृष्टि न देने वाला हो, जिसे पर से राग-द्वेष व स्नेह न हो,पाप कार्यों से उदासीन हो, श्रेयो कार्य में रुचि रखने वाला हो, जो पक्षपात न करता हो और न निदान करता हो, सबमें समान व्यवहार करता हो आदि शुक्ल लेश्या वाले के लक्षण हैं। 6. छ: लेश्याओं में से कितनी शुभ एवं कितनी अशुभ हैं ? कृष्ण, नील, कापोत लेश्याएँ अशुभ एवं पीत, पद्म, शुक्ल लेश्याएँ शुभ हैं। 7. तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर, मन्दतम लेश्याएँ कौन-कौन सी हैं ? तीव्रतम-कृष्ण लेश्या, तीव्रतर-नील लेश्या, तीव्र-कापोत लेश्या, मन्द-पीत लेश्या,मन्दतर-पद्म लेश्या एवं मन्दतम-शुक्ल लेश्या है। (गो.जी., 500) 8. लेश्याओं के दृष्टान्त क्या हैं ? छ: मनुष्य यात्रा को निकले, खाने को पास में कुछ भी नहीं था। सामने एक वृक्ष दिखा। उनके परिणाम कैसे-कैसे हुए। देखिए - कृष्ण लेश्या वाला कहता है कि जड़ से वृक्ष को उखाड़ो, तब फल खाएंगे। नील लेश्या वाला कहता है कि स्कन्ध (तने) को तोड़ो, तब फल खाएंगे। कापोत लेश्या वाला कहता है कि शाखा को तोड़ो तब फल खाएंगे। पीत लेश्या वाला कहता है कि उपशाखा को तोड़ो तब फल खाएंगे। पद्म लेश्या वाला कहता है कि फलों को तोड़कर खाएंगे। शुक्ल लेश्या वाला कहता है कि जो फल अपने आप जमीन पर गिर रहे हैं, उन्हें खाकर अपनी क्षुधा को शान्त करेंगे। (गो.जी., 507-508) 9. कौन-सी लेश्या कौन-से गुणस्थान तक रहती है ? कृष्ण, नील और कापोत लेश्या प्रथम गुणस्थान से चतुर्थ गुणस्थान तक एवं पीत और पद्म लेश्या प्रथम गुणस्थान से सप्तम गुणस्थान तक तथा शुक्ल लेश्या प्रथम गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थान तक। (ध.पु., 1/137-139,392-393) 10. नरकगति में कौन-कौन-सी लेश्याएँ होती हैं ? नरकगति में 3 अशुभ लेश्याएँ होती हैं। प्रथम एवं दूसरी पृथ्वी में कापोत लेश्या। तीसरी पृथ्वी में कापोत एवं नील लेश्या। चौथी पृथ्वी में नील लेश्या। पाँचवीं पृथ्वी में नील एवं कृष्ण लेश्या। छठवीं पृथ्वी में कृष्ण लेश्या एवं सप्तम पृथ्वी में परम कृष्ण लेश्या होती है। (स.सि. 3/3/371) 11. देवगति में कौन-कौन सी लेश्याएँ होती हैं ? देवगति में 6 लेश्याएँ होती हैं। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में अपर्याप्त अवस्था में कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएँ होती हैं एवं पर्याप्त अवस्था में जघन्य पीत लेश्या होती है। (धपु, 2/545) - सौधर्म एवं ऐशान स्वर्ग के देवों में मध्यम पीत लेश्या होती है। - सानत्कुमार एवं माहेन्द्र स्वर्ग के देवों में उत्कृष्ट पीत एवं जघन्य पद्म लेश्या होती है। - ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लान्तव-कापिष्ठ एवं शुक्र-महाशुक्र स्वर्ग के देवों में मध्यम पद्म लेश्या होती है। - शतार एवं सहस्रार स्वर्ग के देवों में उत्कृष्ट पद्म एवं जघन्य शुक्ल लेश्या होती है। - आनत से नवग्रैवेयक-तक के देवों में मध्यम शुक्ल लेश्या होती है। - नव अनुदिश एवं पञ्च अनुतरों के देवों में उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या होती है। (धपु, 2/545–567) विशेष - सौधर्म-ऐशान कल्प में पीत लेश्या होती है। सानत्कुमार-माहेन्द्र कल्प में पीत और पद्म दो लेश्याएँ होती हैं। ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लान्तव-कापिष्ठ कल्पों में पद्म लेश्या होती है। शुक्र-महाशुक्र, शतारसहस्रार कल्पों में पद्म और शुक्ल लेश्या होती हैं। आनत-प्राणत, आरण-अच्युत कल्पों में शुक्ल लेश्या होती है। नवग्रैवेयक में शुक्ल लेश्या होती है। नव अनुदिश एवं पञ्च अनुत्तर विमानों में परम शुक्ल लेश्या होती है। (स सि,4/22/485) सौधर्म स्वर्ग से पञ्च अनुत्तर विमानों तक पर्याप्त एवं अपर्याप्त दोनों अवस्था में एक-सी भाव लेश्या होती है। 12. मनुष्यगति में कौन-कौन-सी लेश्याएँ होती हैं ? मनुष्यगति में सभी छ: लेश्याएँ होती हैं। 13. तिर्यञ्चगति में कौन-कौन-सी लेश्याएँ होती हैं ? तिर्यञ्चगति में सभी छ: लेश्याएँ होती हैं किन्तु एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय एवं असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय में 3 अशुभ अर्थात् कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएँ होती हैं। (धपु., 1/393) 14. भोगभूमि के मनुष्यों एवं तिर्यञ्चों में कौन-कौन-सी लेश्याएँ होती हैं ? छ: लेश्याएँ होती हैं-विशेष यह है कि पर्याप्त अवस्था में तीन शुभ लेश्याएँ एवं अपर्याप्त अवस्था में तीन अशुभ लेश्याएँ होती हैं। 15. नारकियों की द्रव्य लेश्या कौन-सी होती है ? सभी नारकी कृष्ण लेश्या वाले होते हैं। (धपु.2/458) 16. पर्याप्त भवनत्रिक के देवों की द्रव्य से कितनी लेश्याएँ होती हैं ? पर्याप्त भवनत्रिक देवों की द्रव्य से छ: लेश्याएँ होती हैं। (ध.पु. 2/547) 17. पर्याप्त वैमानिक देवों में द्रव्य से कौन-सी लेश्या रहती हैं ? पर्याप्त वैमानिक देवों में द्रव्य एवं भाव लेश्या समान होती हैं। (गो.जी., 496) 18. अपर्याप्त अवस्था में द्रव्य लेश्या कौन-सी होती हैं ? अपर्याप्त अवस्था में शुक्ल एवं कापोत लेश्या होती है। सम्पूर्ण कर्मों का विस्रसोपचय शुक्ल ही होता है, इसलिए विग्रहगति में विद्यमान सम्पूर्ण जीवों के शरीर की शुक्ल लेश्या होती है। तदनन्तर शरीर को ग्रहण करके जब तक पर्याप्तियों को पूर्ण करता है तब तक छ: वर्ण वाले परमाणुओं के पुज्जों से शरीर की उत्पत्ति होती है, इसलिए उस शरीर की कापोत लेश्या कही जाती है। (ध.पु. 2/426) 19. मनुष्य एवं तिर्यञ्चों में द्रव्य लेश्याएँ कितनी होती हैं ? मनुष्य एवं तिर्यच्चों में छ: लेश्याएँ होती है। (गो.जी., 496)
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    03 अनासक्त महायोगी [Anasakt Mahayogi hindi.pdf] द्र्श्तियों में भी परिवर्तन आता हैं | कई युगद्रष्टा जन्म लेते हैं | अनेको की सिर्फ स्मर्तियाँ शेष रहेती हैं, लेकिन कुछ व्यक्तित्व अपनी अमर गाथाओं को चिरस्थाई बना देते हैं | उन्ही महापुरुषों का जीवन स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाता हैं | आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज एवं गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के सम्पूर्ण जिवंव्र्त पर आधारित चम्पू महाकाव्य का हिंदी अनुवाद |
  4. कौन-सी गति में कौन-कौन से संस्थान रहते हैं। इसका वर्णन इस अध्याय में है। 1. संस्थान नाम कर्म किसे कहते हैं ? जिस कर्म के उदय से औदारिक आदि शरीर की आकृति बनती है, उसे संस्थान नाम कर्म कहते हैं। 2. संस्थान कितने प्रकार के होते हैं, परिभाषा सहित बताइए ? संस्थान छ: प्रकार के होते हैं समचतुरस्र संस्थान - जिस नाम कर्म के उदय से शरीर की आकृति बिल्कुल ठीक-ठीक बनती है। ऊपर, नीचे, मध्य में सुन्दर हो, उसे समचतुरस्र संस्थान कहते हैं। न्यग्रोध परिमंडल संस्थान - न्यग्रोध नाम वट वृक्ष का है, जिसके उदय से शरीर में नाभि से नीचे का भाग पतला और ऊपर का भाग मोटा हो, उसे न्यग्रोध परिमंडल संस्थान कहते हैं। स्वाति संस्थान - स्वाति नाम वल्मीक (सर्प की बाँबी) या शाल्मली वृक्ष का है। जिसके उदय से शरीर में नाभि से नीचे का भाग मोटा और ऊपर का भाग पतला होता है, उसे स्वाति संस्थान कहते हैं। कुब्जक संस्थान - जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर कुबड़ा हो, उसे कुब्जक संस्थान कहते हैं। या जिस कर्म के उदय से शाखाओं में दीर्घता और मध्य भाग में हृस्वता होती है, उसे कुब्जक संस्थान कहते हैं। (ध-पु.,6/71) वामन संस्थान - सर्व अंग व उपांगो को जो छोटा बनाने में कारण होता है, उसे वामन संस्थान कहते हैं। या जिस कर्म के उदय से शाखाओं में हृस्वता और शरीर के दीर्घता होती है, उसे वामन संस्थान कहते हैं। (धपु, 6/72) हुण्डक संस्थान - जिसके उदय से शरीर का आकार बेडौल हो, उसे हुण्डक संस्थान कहते हैं। (रा.वा., 8/8) 3. नरकगति में कौन-सा संस्थान रहता है ? नरकगति में हुण्डक संस्थान रहता है। 4. तिर्यञ्चगति में कितने संस्थान रहते हैं ? तिर्यच्चगति में छ: संस्थान रहते हैं। 5. एकेन्द्रिय से असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तक के जीवों में कौन-सा संस्थान रहता है ? एकेन्द्रिय से असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तक के जीवों में हुण्डक संस्थान रहता है। 6. मनुष्यगति में कितने संस्थान रहते हैं ? मनुष्यगति में छ: संस्थान रहते हैं। 7. देवगति में कौन-सा संस्थान रहता है ? देवगति में समचतुरस्र संस्थान रहता है। 8. तीर्थंकरो के कौन-सा संस्थान रहता है ? तीर्थंकरो के समचतुरस्र संस्थान रहता है। 9. भोगभूमि में कौन-सा संस्थान रहता है ? भोगभूमि में समचतुरस्र संस्थान रहता है। 10. कौन से संस्थान कौन-कौन से गुणस्थानों तक रहते हैं ? प्रथम गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थान तक सभी छ: संस्थान होते हैं, किन्तु एक जीव में एक ही संस्थान रहता है।
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    02 अभिनव प्रकृत व्याकरण [Abhinav Prakrit Vyakaran.pdf] भाषा - परिज्ञान के लिए व्याकरण ज्ञान की नितांत आवश्यकता हैं | जब किसी भी भाषा के वांडमय की विशाल राशी संचित हो जाती है, तो उसकी विधिवत व्यवस्था के लिए व्याकरण ग्रन्थ लिखे जाते हैं |
  6. मनुष्य एवं तिर्यच्च किस सहनन के माध्यम से कौन से स्वर्ग एवं नरक तक जाते हैं।इसका वर्णन इस अध्याय में है। 1. संहनन नाम कर्म किसे कहते हैं ? जिसके उदय से हड़ियों के बंधन में विशेषता आती है, उसे संहनन नाम कर्म कहते हैं। 2. संहनन के कितने भेद हैं ? संहनन के छ: भेद हैं। 1. वज़ऋषभनाराचसंहनन, 2. वज़नाराचसंहनन, 3. नाराचसंहनन, 4. अर्द्धनाराच संहनन, 5. कीलक संहनन, 6.असम्प्राप्तासूपाटिका संहनन। 3. वज़, ऋषभ, नाराच और संहनन का क्या अर्थ है ? वज - जो वज़ के समान अभेद्य अर्थात् जिसका भेदन न किया जाए उसे वज़ कहते हैं। ऋषभ - जिससे बाँधा जाए उसे ऋषभ (बेस्टन) कहते हैं। नाराच - नाराच नाम कील का है। जैसे - दरवाजे के कब्जों के बीच लोहे की कील होती है। संहनन - हड़ियों का समूह। 4. संहननों की परिभाषा बताइए ? वज़ऋषभनाराच संहनन - जिस शरीर में वज़ की हड़ियाँ हों, वज़ का ऋषभ हो और वज़ का नाराच हो, उसे वज़ऋषभनाराचसंहनन कहते हैं। वज़नाराचसंहनन - जिसमें वज़ के बंधन न हों, सामान्य बंधन से बाँधा जाए किन्तु कील व हड़ियाँ वज़ की हों, उसे वज़नाराच संहनन कहते हैं। जैसे - लोहे के सामान को सुतली से बांधना। नाराच संहनन - जिसमें वज़ विशेष से रहित साधारण नाराच से कीलित हड़ियों की संधि हो, उसे नाराच संहनन कहते हैं। अर्द्धनाराच संहनन - जिसमें हड़ियों की सन्धियाँ नाराच से आधी जुड़ी होती हैं, उसे अर्द्धनाराच संहनन कहते हैं। कीलक संहनन - जिसमें हड़ियाँ परस्पर में नोंक व गड़े के द्वारा फँसी हों, अर्थात् अलग से कील नहीं रहती, उसे कीलक संहनन कहते हैं। असम्प्राप्तासूपाटिका संहनन - जिसमें अलग-अलग हड्डियो से बंधी हों, परस्पर में कीलित न हों, उसे असम्प्राप्तासूपाटिका संहनन कहते हैं। (जै.सि.को, 4/155) 5. नरकगति, देवगति व एकेन्द्रिय जीवों में कौन-सा संहनन रहता है ? नरकगति, देवगति व एकेन्द्रिय जीवों में किसी भी संहनन का उदय नहीं रहता है। 6. तिर्यउचगति में कितने संहनन रहते हैं ? तिर्यच्चगति में छ: संहनन रहते हैं। 7. द्वीन्द्रिय से असंज्ञी पज्चेन्द्रिय तक के जीवों में कौन-सा संहनन रहता है ? द्वीन्द्रिय से असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तक के जीवों में असम्प्राप्तासूपाटिका संहनन रहता है। 8. भोगभूमि के मनुष्य एवं तिर्यज्चों में कौन-सा संहनन रहता है ? भोगभूमि के मनुष्य एवं तिर्यज्चों में मात्र वज़ऋषभनाराच संहनन रहता है। 9. मनुष्यगति में कितने संहनन रहते हैं ? मनुष्यगति में छ: संहनन रहते हैं। 10. कर्मभूमि की महिलाओं में कितने संहनन रहते हैं ? कर्मभूमि की महिलाओं में अंतिम तीन संहनन रहते हैं। (गोक, 32) 11. कौन-सा संहनन कौन-से गुणस्थान तक रहता है ? वजत्रदृषभनाराच संहनन 1 से 13 गुणस्थान तक वज्रनाराच्च और नाराच्च संहनन अर्द्धनाराच,कीलक संहनन और 1 से 11 गुणस्थान तक असम्प्राप्तासूपाटिका संहनन 1 से 7 गुणस्थान तक 12. कौन-से संहनन वाला मरणकर कौन-से स्वर्ग तक जाता है ? असम्प्राप्तासूपाटिका संहनन 8 वें स्वर्ग तक कीलक संहनन 12 वें स्वर्ग तक अर्द्धनाराच 16 वें स्वर्ग तक नाराच्च संहनन नवग्रैवेयक तक वज्रनाराच नवअनुदिश तक वजत्रदृषभनाराच संहनन सर्वार्थसिद्धि एवं मोक्ष भी (गो.क.30) 13. कौन-से संहनन वाला मरण कर कौन-सी पृथ्वी (नरक) तक जाता है ? वजत्रट्टषभनाराच संहनन वाला सातवी पृथ्वी तक वज्रनाराच्च संहनन से अर्द्धनाराचसंहनन वाला छठवी पृथ्वी तक कीलक संहनन वाला पाँचवीं पृथ्वी तक असम्प्राप्तासूपाटिका संहनन वाला तीसरी पृथ्वी तक। (गो.क.31) 14. पञ्चम काल के मनुष्य व तिर्यञ्चों में कितने संहनन होते हैं ? पञ्चम काल के मनुष्य व तिर्यज्चों में अंतिम तीन संहनन होते हैं।
  7. संसारी जीव शरीर के माध्यम से ही सुख - दु:ख का अनुभव करता है | ये शरीर कितने प्रकार के होते हैं, शरीर किसके लिए उपकारी है.आदि का वर्णन इस अध्याय में है। 1. शरीर किसे कहते हैं ? जो विशेष नाम कर्म के उदय से प्राप्त होकर शीर्यन्ते अर्थात् गलते हैं, वे शरीर हैं। अथवा अनन्तानन्त पुद्गलों के समवाय का नाम शरीर है। 2. शरीर कितने प्रकार के होते हैं ? शरीर पाँच प्रकार के होते हैं औदारिक शरीर - मनुष्य और तिर्यच्चों का जो शरीर सड़ता, गलता है, वह औदारिक शरीर है। यह उराल अर्थात् स्थूल होता है। इसलिए औदारिक कहलाता है। उराल, स्थूल एकार्थवाची हैं। (ध.पु.14/322) वैक्रियिक शरीर - छोटा, बड़ा, हल्का, भारी, अनेक प्रकार का शरीर बना लेना विक्रिया कहलाती है। विक्रिया ही जिस शरीर का प्रयोजन है, वह वैक्रियिक शरीर कहलाता है। आहारक शरीर - छठवें गुणस्थानवर्ती मुनि को सूक्ष्म तत्व के विषय में जिज्ञासा होने पर उनके मस्तक से एक हाथ ऊँचा पुतला निकलता है, जहाँ कहीं भी केवली, श्रुतकेवली होते हैं, वहाँ जाकर अपनी जिज्ञासा का समाधान करके वापस आ जाता है। इसे आहारक शरीर कहते हैं। आहारक शरीर छठवें (प्रमतविरत गुणस्थान) गुणस्थानवर्ती मुनि के होता है एवं भाव पुरुषवेद वाले मुनि को होता है। इसके साथ उपशम सम्यकदर्शन, मन:पर्ययज्ञान एवं परिहार विशुद्धि संयम का निषेध है। तैजस शरीर - औदारिक वैक्रियिक और आहारक इन तीनों शरीरों को कान्ति देने वाला तैजस शरीर कहलाता है। यह दो प्रकार का होता है। अनिस्सरणात्मक तैजस - जो संसारी जीवों के साथ हमेशा रहता है। निस्सरणात्मक तैजस - जो मात्र ऋद्धिधारी मुनियों के होता है, यह दो प्रकार का होता है। अ. शुभ तैजस - जगत् को रोग, दुर्भिक्ष आदि से दुखित देखकर जिसको दया उत्पन्न हुई है, ऐसे महामुनि के शरीर के दाहिने कंधे से सफेद रंग का सौम्य आकार वाला एक पुतला निकलता है, जो 12 योजन में फैले दुर्भिक्ष, रोग आदि को दूर करके वापस आ जाता है। ब. अशुभ तैजस - मुनि को तीव्र क्रोध उत्पन्न होने पर 12 योजन तक विचार की हुई विरुद्ध वस्तु को भस्म करके और फिर उस संयमी मुनि को भस्म कर देता है। यह मुनि के बाएँ कंधे से निकलता है यह सिंदूर की तरह लाल रंग का बिलाव के आकार का 12 योजन लंबा सूच्यंगुल के संख्यात भाग प्रमाण मूल विस्तार और नौ योजन चौड़ा रहता है। अथवा लाऊडस्पीकर के आकार का। 5. कार्मण शरीर - ज्ञानावरणादि 8 कर्मों के समूह को कार्मण शरीर कहते हैं। 3. औदारिक शरीर तो स्थूल होता है फिर और शरीर कैसे होते हैं ? आगे-आगे के शरीर सूक्ष्म होते हैं। औदारिक शरीर से वैक्रियिक शरीर सूक्ष्म होता है। वैक्रियिक शरीर से आहारक शरीर सूक्ष्म होता है। आहारक शरीर से तैजस शरीर सूक्ष्म होता है। तैजस शरीर से कार्मण शरीर सूक्ष्म होता है। (तसू,2/37) 4. आगे-आगे के शरीर सूक्ष्म होते हैं, तो उनके प्रदेश (परमाणु) भी कम-कम होते होंगे ? नहीं। औदारिक शरीर से असंख्यात गुणे परमाणु वैक्रियिक शरीर में होते हैं। वैक्रियिक शरीर से असंख्यात गुणे परमाणु आहारक शरीर में होते हैं। आहारक शरीर से अनन्त गुणे परमाणु तैजस शरीर में होते हैं और तैजस शरीर से अनन्त गुणे परमाणु कार्मण शरीर में होते हैं। (तसू,2/38-39) मान लीजिए पाँच प्रकार के मोदक हैं, जो आकार में क्रमशः सूक्ष्म हैं, किन्तु उन में प्रदेश (दाने) ज्यादा-ज्यादा हैं। जैसे-मक्का की लाई (दाने)से बना लड्डू, ज्वार की लाई से बना लड्डू, नुकती (बूदी) का लड्डू, राजगिर का लड्डू एवं मगद (वेसन) का लड्डू। मक्का के लड्डू से आगे-आगे के लड्डू सूक्ष्म होते हैं किन्तु उनमें प्रदेश (दाने) ज्यादा हैं। इसी प्रकार क्रमश: शरीर सूक्ष्म, किन्तु प्रदेश ज्यादा हैं। 5. एक साथ एक जीव में अधिक-से-अधिक कितने शरीर हो सकते हैं ? एक जीव में दो को आदि लेकर चार शरीर तक हो सकते हैं। किसी के दो शरीर हों तो तैजस और कार्मण। तीन हों तो तैजस, कार्मण और औदारिक अथवा तैजस, कार्मण और वैक्रियिक। चार हों तो तैजस, कार्मण, औदारिक और वैक्रियिक शरीर (ध.पु., 14/237–238) अथवा तैजस, कार्मण, औदारिक और आहारक। एक साथ पाँच शरीर नहीं हो सकते क्योंकि वैक्रियिक तथा आहारक ऋद्धि एक साथ नहीं होती है। 6. कौन से शरीर के स्वामी कौन-सी गति के जीव हैं ? तैजस और कार्मण सभी संसारी जीव। औदारिक मनुष्य एवं तिर्यञ्च। वैक्रियिक नारकी एवं देव। वैक्रियिक मनुष्य (लब्धि वाल')एवं तिर्यञ्च । (रा.वा.,2/47/4) आहारक मनुष्य (प्रमत गुणस्थान वाले मुनि) तैजस (लब्धि वाला) मनुष्य (प्रमत्त गुणस्थान वाले मुनि) 7. कौन-कौन से शरीर अनादिकाल से जीव के साथ लगे हैं ? जैसे-चन्द्र, सूर्य के नीचे राहु, केतु लगे हुए हैं, वैसे ही प्रत्येक जीव के साथ तैजस और कार्मण शरीर अनादिकाल से लगे हुए हैं। 8. कौन-कौन से शरीर को हम चक्षु इन्द्रिय से देख सकते हैं ? चक्षु इन्द्रिय से हम मात्र औदारिक शरीर को देख सकते हैं। वैक्रियिक शरीर को हम नहीं देख सकते,किन्तु देव विक्रिया के माध्यम से दिखाना चाहें तो दिखा सकते हैं। आहारक शरीर को भी हम नहीं देख सकते हैं। तैजस और कार्मण तो और भी सूक्ष्म हैं। 9. कौन-कौन से शरीर किसी से प्रतिघात को प्राप्त नहीं होते हैं ? तैजस और कार्मण शरीर किसी से प्रतिघात को प्राप्त नहीं होते हैं। प्रतिघात- मूर्तिक पदार्थों के द्वारा दूसरे मूर्तिक पदार्थ को जो बाधा आती है, उसे प्रतिघात कहते हैं। 10. कौन-कौन से शरीर भोगने में आते हैं ? जिनमें इन्द्रियाँ होती हैं। जिनके द्वारा जीव विषयों को भोगता है। ऐसे तीन शरीर भोगने योग्य हैं। औदारिक, वैक्रियिक एवं आहारक। शेष दो शरीर (तैजस तथा कार्मण) भोगने योग्य नहीं है। 11. क्या शरीर दु:ख का कारण है ? हाँ। हे आत्मन् ! इस जगत् में संसार से उत्पन्न जो-जो दुख जीवों को सहने पड़ते हैं, वे सब इस शरीर के ग्रहण से ही सहने पड़ते हैं। इस शरीर से निवृत्त होने पर कोई दुख नहीं है। 12. शरीर किसके लिए उपकारी है ? जिसने संसार से विरत होकर इस शरीर को धर्म पालन करने में लगा दिया है। उसके लिए यह मानव का शरीर उपकारी है।
  8. संसारी जीव का मरण के बाद नियम से जन्म होता है। वह जन्म कितने प्रकार का होता है। योनि एवं जन्म में क्या भेद है आदि का वर्णन इस अध्याय में है। 1. जन्म किसे कहते हैं ? पूर्व शरीर को त्यागकर नवीन शरीर धारण करने को जन्म कहते हैं। 2. जन्म के कितने भेद हैं ? जन्म के तीन भेद हैं - सम्मूच्छन जन्म - जो चारों ओर के वातावरण से शरीर के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हैं, वह सम्मूच्छन जन्म है। जैसे - चुम्बक अपने योग्य लोह कण को ग्रहण करता है। गर्भजन्म - माता के उदर में रज और वीर्य के परस्पर गरण अर्थात् मिश्रण को गर्भ कहते हैं। अथवा माता के द्वारा उपभुत आहार के गरण होने को गर्भ कहते हैं। और इससे होने वाले जन्म को गर्भ जन्म कहते हैं। उपपाद जन्म - देव - नारकियों के उत्पत्ति स्थान विशेष को उपपाद और उनके जन्म को उपपाद जन्म कहते हैं। (स.सि. 3/31/322) 3. गर्भ जन्म के कितने भेद हैं ? गर्भ जन्म के तीन भेद हैं - जरायुज - जन्म के समय प्राणियों के ऊपर जाल की तरह खून और माँस की जाली सी लिपटी रहती है, उसे जरायु कहते हैं और जरायु से उत्पन्न होने वाले जरायुज कहलाते हैं। जैसे - गाय, भैंस, मनुष्य, बकरी अादि । अण्डज - जो नख की त्वचा के समान कठिन (कठोर) है, गोल है और जिसका आवरण शुक्र और शोणित से बना है, उसे अण्ड कहते हैं और जो अण्डों से पैदा होते हैं, वे अण्डज कहलाते हैं। जैसे कबूतर, चिड़िया, छिपकली और सर्प आदि। पोत - जो जीव जन्म लेते ही चलने-फिरने लगते हैं, उनके ऊपर कोई आवरण नहीं रहता है, उन्हें पोत कहते हैं। जैसे - हिरण, शेर आदि। नोट - जरायुज में माँस की थैली में उत्पन्न होता है और अण्डज में अण्डे के भीतर उत्पन्न होकर बाहर निकलता है वैसे पोत में किसी आवरण से युक्त नहीं होता, इसलिए पोतज नहीं कहलाता है,पोत कहलाता है। (रावा, 3/33/1-5) 4. कौन से जीवों का कौन-सा जन्म होता है ? देव और नारकियों का मनुष्यों और तिर्यञ्चों का 1, 2, 3, 4 इन्द्रियों का लब्धि अपर्याप्तक मनुष्य एवं तिर्यञ्चों का - उपपाद जन्म । - गर्भ जन्म और सम्मूच्र्छन जन्म। - सम्मूच्छन जन्म। - सम्मूच्छन जन्म। 5. योनि किसे कहते हैं ? जिसमें जीव जाकर उत्पन्न हो, उसका नाम योनि है। 6. योनि और जन्म में क्या भेद है ? योनि आधार है और जन्म आधेय है। 7. योनि के मूल में कितने भेद हैं ? योनि के मूल में 2 भेद हैं। गुण योनि और आकार योनि। गुण योनि के मूल में 9 भेद और उत्तर भेद 84 लाख हैं। गुण योनि के 9 भेद इस प्रकार हैं :- सचित्त योनि - जो योनि जीव प्रदेशों से अधिष्ठित हो। अचित योनि - जो योनि जीव प्रदेशों से अधिष्ठित न हो। सचिताचित योनि - जो योनि कुछ भाग में जीव प्रदेशों से अधिष्ठित हो और कुछ भाग जीव प्रदेशों से अधिष्ठित न हो। शीत योनि - जिस योनि का स्पर्श शीत हो। उष्ण योनि - जिस योनि का स्पर्श उष्ण हो। शीतोष्ण योनि - जिस योनि का कुछ भाग शीत हो, कुछ भाग उष्ण हो। संवृत योनि - जो योनि ढकी हो। विवृत योनि - जो योनि खुली हो। संवृतविवृत योनि - जो योनि कुछ ढकी हो कुछ खुली हो। 8 . आकार योनि के कितने भेद हैं ? आकार योनि के तीन भेद हैं - शंखावत - इसमें गर्भ रुकता नहीं है। कूर्मोन्नत - इसमें तीर्थंकर, चक्रवर्ती, अर्द्धचक्रवर्ती, बलदेव तथा साधारण मनुष्य भी उत्पन्न होते हैं। वंशपत्र - इसमें शेष सभी गर्भ जन्म वाले जीव जन्म लेते हैं। 9. कौन से जीव की कौन-सी योनि होती है ? देव और नारकियों की अचित योनि होती है, क्योंकि उनके उपपाद देश के पुद्गल प्रचयरूप योनि अचित है। गर्भजों की मिश्र योनि होती है, क्योंकि उनकी माता के उदर में शुक्र और शोणित अचित होते हैं, जिनका सचित माता की आत्मा से मिश्रण है इसलिए वह मिश्रयोनि है। संमूच्छनों की तीन प्रकार की योनियाँ होती हैं। किन्हीं की सचित योनि होती है अन्य की अचित योनि होती है और दूसरों की मिश्र योनि होती है। साधारण शरीर वाले जीवों की सचित योनि होती है, क्योंकि ये एक-दूसरे के आश्रय से रहते हैं। इनसे अतिरिक्त शेष संमूच्छन जीवों के अचित और मिश्र दोनों प्रकार की योनियाँ होती हैं। देव हैं और कुछ उष्ण। अग्निकायिक जीवों की उष्ण योनि होती है। इनसे अतिरिक्त जीवों की योनियाँ तीनों प्रकार की होती हैं। देव, नारकी और एकेन्द्रियों की संवृत योनियाँ होती हैं। विकलेन्द्रियों की विवृत योनि होती है तथा गर्भजों की मिश्र योनियाँ होती हैं। (स.सि. 2/32/324) सुविधा के लिए तालिका देखिए - सचित्त योनि अचित योनि मिश्र योनि अचित और मिश्र योनि शीत और उष्ण योनि उष्ण योनि शीत, उष्ण और मिश्रयोनि संवृत योनि विवृत योनि मिश्र योनि साधारण शरीर देव,नारकी गर्भज शेष संमूच्छनों की देव,नारकी अग्निकायिक इनके अतिरिक्त देव, नारकी, एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय एवं शेष संमूच्छनों की गर्भजों की 10. चौरासी लाख योनि कौन सी हैं ? चौरासी लाख योनि निम्न हैं 1. नित्य निगोद 2. इतर निगोद 3. पृथ्वीकायिक 4. जलकायिक 5. अग्निकायिक 6. वायुकायिक 7. वनस्पतिकायिक 8. दो इन्द्रिय 9. तीन इन्द्रिय 10. चार इन्द्रिय 11. नारकी 12. तिर्यञ्च 13. देव 14. मनुष्य 7 लाख 7 लाख 7 लारव 7 लाख 7 लाख 7 लारव 10 लाख 2 लाख 2 लाख 2 लाख 4 लाख 4 लाख 4 लाख 14 लाख कुल योग 84लाख 11. कुल किसे कहते एवं उसके कितने भेद हैं ? योनि को जाति भी कहते हैं और जाति के भेदों को कुल कहते हैं। कुल 1995 लाख कोटि होते हैं। 1 2 3 4 5 6 7 8 पृथ्वीकायिक जलकायिक अग्निकायिक वायुकायिक वनस्पतिकायिक दो इन्द्रिय तीन इन्द्रिय चार इन्द्रिय 22 लाख कोटि 7 लाख कोटि 3 लाख कोटि 7 लाख कोटि 28 लाख कोटि 7 लाख कोटि 8 लाख कोटि 9 लाख कोटि 9. पञ्चेन्द्रिय अ. जलचर ब. थलचर स. नभचर 10. नारकी 11. देव 12. मनुष्य तिर्यउचों में 12.5 लाख कोटि 19 लाख कोटि 12 लाख कोटि 25 लाख कोटि 26 लाख कोटि 14 लाख कोटि कुल योग 199.5 लाख कोटि
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