संस्तुति 1 - आराध्य/आराधना विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- उपास्य की उपासना उपास्य बनने के लिये ही होती है।
- उपासना से नहीं किन्तु वासना से उदासीन होना जरूरी है बन्धुओ!
- स्व-संवेदन रूप आत्मकथा के दरवाजे खोलने के लिये पंच परमेष्ठी की कथा सद्कथा मानी जाती है।
- प्रभु का अवलम्बन लेकर प्रभु बना जा सकता है।
- पंच परमेष्ठी की आराधना विषय कषायों से बचने के लिये होती है।
- पाप से भीति बिना भगवान् से प्रीति नहीं और भगवान् से प्रीति बिना आत्मा की प्रतीति नहीं।
- भगवान् की वीतरागता देखकर मन आह्वादित हो जाता है और उन जैसा बनने की भावना होती है।
- जिस प्रकार पहलवान को देखने से पहलवान बनने की और साहूकार को देखकर साहूकार बनने की भावना होती है उसी प्रकार भगवान् को देखकर भगवान् बनने की भावना होती है।
- अपने मित्र और आत्मीय बन्धु को देखकर जितनी प्रसन्नता होती है उससे भी अधिक प्रसन्नता जिनेन्द्र भगवान् का दर्शन करने से होनी चाहिए।
- पंच परमेष्ठी के अलावा आत्म कल्याण के लिये इस संसार में न कोई मंगलकारी है और न शरण ।
- जैन दर्शन में व्यक्ति नहीं व्यक्तित्व पूजा गया है, यही कारण है कि अनादि अनिधन गुणों में स्थित पंच परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है।
- देव शास्त्र गुरु के माध्यम से जिस व्यक्ति ने अपने जीवन को वीतरागता की ओर मोड़ लिया वह एक दिन अवश्य विराम पायेगा।
- स्व की ओर आने का रास्ता यदि मिल सकता है तो मात्र देव-शास्त्र-गुरु के माध्यम से ही मिल सकता है अन्य किसी से नहीं।
- प्रभु के हृदय की बात जब तक नहीं समझोगे तब तक आप उन जैसे चैतन्य की परिणति को प्राप्त नहीं कर सकते।
- जब तक हमारा सम्बन्ध भगवान् से है तभी तक हम भक्त कहलाने के अधिकारी हैं।
- हे भगवन्! यह बात सही है कि आप सूर्य के समान हैं और हम दीपक के समान।लेकिन यह बात भी सही है कि सूरज की आरती सूरज से नहीं बल्कि दीपक से ही होती है।
- हे प्रभु! द्रव्य दृष्टि से हम और आप समान हैं पर पर्याय दृष्टि से हममें और आपमें बहुत अन्तर है।हीरा, हीरा ही है पर एक खान में पड़ा है और एक शान पर चढ़ा है।
- भक्त और भगवान् की दिशा एक ही है यह बात अलग है कि दशा भिन्न-भिन्न हैं।
- राग का ही यह प्रतिफल है कि हम भगवान् के समान होकर भी भगवान् जैसा अनुभव नहीं कर पा रहे हैं।
- जिस प्रकार नदी सागर को देखकर ही नहीं किन्तु सागरमय होकर ही सागर बन पाती है, ठीक उसी प्रकार भगवान् को अकेले देखने मात्र से भगवान् नहीं बना जाता किन्तु उन जैसा आचरण करने से भगवान् बना जाता है।
- जिन और जन में इतना ही अन्तर है कि एक वैभव के ऊपर बैठा है और एक के ऊपर वैभव बैठा है।
- जिसमें रागद्वेष, अहंकार, ममकार आदि नहीं पाये जाते वे ही वास्तव में भगवान् हैं, ईश्वर हैं, वे ही हमारे लिये सुख-शांति के आधार हैं। हमें उन्हीं वीतरागी प्रभु की शरण लेनी चाहिए।
- भगवान् की रक्षा कोई नहीं करता बल्कि उनके पास रहने से हम स्वयं अपनी रक्षा कर लेते हैं।
- भगवान् की प्रतिमा दर्पण के समान है, उस दर्पण में अपने आपको देखकर अंतरंग पर लगी हुई कालिमा को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।
- पंचपरमेष्ठी तो निमित्त मात्र हैं, कार्य की सिद्धि के लिये उपादान आप स्वयं हैं। अपनी शक्ति की ओर दृष्टिपात करो उसी से कल्याण होने वाला है।
- पारसमणि के स्पर्श से लोहा भी सोना बन जाता है लेकिन सच्चे देव तो ऐसी अद्भुत पारसमणि हैं जो अपने स्पर्श से लोहे को सोना तो क्या पारसमणि ही बना देते हैं।
- जिस प्रकार लौकिक क्षेत्र में आई समस्यायों को पंचायत की साक्षी में सुलझाया जाता है ठीक उसी प्रकार परमार्थ के क्षेत्र में पंचपरमेष्ठी रूपी पंचायत की साक्षीपूर्वक अपनी समस्यायों को सुलझाया जाता है।
- देव-शास्त्र-गुरु से आगे बढ़ने का जो मान होता है वह नियम से अनन्तानुबन्धीकषाय का मान है क्योंकि जिनके माध्यम से अपना सम्यग्दर्शन बना हुआ है अब उन्हीं से आगे बढ़ने का मान (अहंकार) कौन करेगा।
- पूजा करो, पूर्ण की करो, अनंत की करो। लोक में विख्यात है कि सुखी की पूजा करोगे तो तुम भी सुखी बन जाओगे।
- उस लौकिक प्रभु और उसकी भक्ति से क्या प्रयोजन जो सिर्फ संसार को ही दिलाता है। वास्तविक प्रभु और उसकी भक्ति तो वह है जो उसे भी प्रभु-परमात्मा बना दे। भगवान् की पूजन करने से हमें बहुत कुछ उपलब्ध होगा ऐसा भाव नहीं करना यानी फल के प्रति हेयबुद्धि हो, न कि पूजा के प्रति। हाँ! इतनी भावना जरूर भानी चाहिए कि हे भगवन्! जैसे आप स्वस्थ स्वरूपस्थ हुए हैं वैसे ही मैं भी स्वस्थ स्वरूपस्थ हो जाऊँ।
- हम अपने परिणामों से ही भगवान् से दूर हैं और परिणामों की निर्मलता से ही उन्हें हम निकट देख सकते हैं।
- भक्ति-आराधना सातिशय पुण्य का कारण तो है ही साथ ही साथ परम्परा से मुक्ति का कारण भी है।
- भगवान् आयतन ही हैं वह कभी अनायतन नहीं हो सकते, ऐसा नहीं कि व्यवहार नय से तो आयतन और निश्चयनय से अनायतन हैं।भले ही हमारी दृष्टि कैसी हो पर जो साधन सम्यक का कारण है वह कभी किसी भी परिस्थिति में मिथ्यात्व पोषक नहीं हो सकता।
- अपार वैभवशाली इन्द्र भी जब समवसरण में जाकर भगवान् के चरणों में झुक जाता है तब मिथ्यादृष्टि देव भी भगवान् की महिमा से प्रभावित हो जाते हैं और सम्यग्दर्शन प्राप्त कर भक्ति गुणगान करने लगते हैं। धन्य है प्रभु की महिमा जिसका वर्णन हम शब्दों में नहीं कर सकते।
- अर्थ और परमार्थ की दृष्टि का अन्तर तो देखिये! वही भरत प्रभु आदिनाथ के चरणों में रत्न चढ़ाता है और वही भरत छोटे भैय्या बाहुबली के ऊपर चक्ररत्न चलाता है।
- पूज्य और पूजक दोनों एक ही स्थान पर है। फर्क इतना है कि एक सिंहासन पर बैठा है और एक नीचे बैठा है। एक पूज्य है और एक पूजता है, एक व्यवस्था कर रहा है और एक की व्यवस्था हो रही है।
- मंदिर और मूर्तियाँ हमारी आस्था-निष्ठा के केन्द्र हैं, जहाँ हम अपनी भक्ति-भावनाओं को प्रदर्शित कर सकते हैं।
- मंदिर में जाकर यदि भगवान् से पूछो कि तुम कौन हो तो प्रतिध्वनि आती है कि तुम कौन हो? यदि हम कहें कि आप भगवान् हो तो प्रतिध्वनि सुनाई पड़ेगी कि आप भगवान् हो। इससे बड़ी महिमा मन्दिरों की और क्या हो सकती है।
- पूजा के समय चढ़ाये गये द्रव्य के माध्यम से श्रावक का परिग्रह के प्रति राग घटता है।
- भगवान् के सामने जाकर चावलादि चढ़ाने का अर्थ ही यही है कि हम त्याग के आदर्श के सामने जाकर त्याग की शिक्षा लेते हैं।
- विपत्ति के समय तो कोई भी भगवान् को याद कर सकता है किन्तु सुख के क्षणों में भी जो भगवान् को नहीं भूलता उसके जीवन में विपत्ति आती ही नहीं।
- अधिक कुछ स्वाध्याय साधना नहीं होती तो कम से कम निराकुलता से भगवान् का नाम तो लिया करो, यह नाम ही एक न एक दिन संसार से पार करा देगा।
- संसारी प्राणी दुनिया की नकल करने में लगा है पर उसे सही-सही नकल करना भी अभी नहीं आता, यदि नकल करना ही है तो भगवान् की नकल करो जो तुम्हें मुक्ति दिलायेगी।
- भगवन्! आप कहाँ? और हम संसारी जन कहाँ? फिर भी जिस प्रकार बहुत दूर रहने पर भी सूरज कमलों को खिला देता है ठीक उसी तरह आपका दर्शन-गुणस्मरण भी भव्यजीव रूपी कमलों को आनंदित करा देता है विकसित करा देता है।
- चैत्य और चैत्यालय को देखकर हमें जो बोध होता है वह बोध अन्य किसी के माध्यम से नहीं होगा।
- भगवान् के मन्दिर में प्रवेश करते ही दुनिया के सारे महल और मकान फीके लगने लगते हैं।
- भगवान् की पूजा संसार को दग्ध करने वाली है तथा काम वासना को शांतकर जीवन को पवित्र बनाती है।
- भगवान् का दर्शन करते-करते जिस दिन आपके अन्दर का सोया हुआ भगवान् जाग जाये, समझ लो उस दिन दर्शन करना सार्थक हो गया। पैसों से मंदिर और मूर्तियाँ बनाई जा सकती हैं पर भगवान् नहीं, भगवान् तो भावनाओं से ही बनते हैं।
- मूर्ति, पाषाण और कला की कीमत हो सकती है पर भगवान् की नहीं, भगवान् तो अनमोल हैं।
- हे भगवन् अब हमें प्रसिद्धि की नहीं सिद्धि की जरूरत है।
- जिस प्रकार सामान्य रंग और कपड़ों की ध्वजा होकर भी हम उसमें राष्ट्र के प्रति गौरव समान प्रतिष्ठापित कर लेते हैं ठीक इसी प्रकार स्थापना निक्षेप के माध्यम से हम पाषाण निर्मित प्रतिमा में भी प्राण प्रतिष्ठा द्वारा भगवत्पने का आरोपण कर लेते हैं जिससे हमारी अनन्य भक्ति निष्ठा जुड़ जाती है।
- भाव निक्षेप (साक्षात् भगवान्) के अभाव में स्थापना निक्षेप (मूर्तियाँ) ही एक ऐसा साधन है जिससे अपने आराध्य की तन्मयता के साथ आराधना की जा सकती है।
- मूर्ति पूजा का अर्थ मात्र धातु या पाषाण पूजा नहीं किन्तु मूर्ति में स्थापित गुणारोपण रूप अपने आराध्य की कल्पना कर उनका गुणगान करना है।
- भगवान् ने हमारी खोज नहीं की किन्तु हमने ही भगवान् को खोजा है। अहो! इस विषय बहुल संसार में भगवान् को खोज लेना कम पुरुषार्थ की बात नहीं है।
- सरोवर के बीच बैठा हुआ व्यक्ति जिस तरह दावानल से घिरे रहने पर भी उसकी दाह से बच जाता है ठीक उसी तरह भगवान् के मंदिर में पहुँचने पर भक्त पुरुष बाहरी विषय-कषायों के दावानल से भली-भांति बच जाता है।
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