Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • स्वाध्याय 1 - अनेकान्त/स्याद्वाद

       (0 reviews)

    स्वाध्याय 1 - अनेकान्त/स्याद्वाद विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. अनेकान्त वस्तु का धर्म है और स्याद्वाद उसकी कथन पद्धति।
    2. ‘ही' एकान्त का प्रतीक है और ‘भी' अनेकांत का। 'ही' में किसी कि अपेक्षा नहीं है जबकि 'भी' पर के अस्तित्व को स्वीकार करता है।
    3. ‘ही' देखता है हीन दृष्टि से सबको और ‘भी' देखता है समीचीन दृष्टि से सबको।
    4. ‘ही' पश्चिमी सभ्यता है 'भी' है भारतीय संस्कृति। भाग्य विधाता रावण था ‘ही' का उपासक और राम के भीतर ‘भी' बैठा था, यही कारण है कि राम उपास्य हुए हैं और रहेंगे आगे भी।
    5. ‘ही' के आसपास बढ़ती सी भीड़ लगती अवश्य किन्तु भीड़ नहीं ‘भी' लोकतन्त्र की रीढ़ है।
    6. हमें सबकी बात बिना पूर्वाग्रह के सुनना चाहिए यही तो अनेकान्त का मूल मन्त्र है।
    7. अनेकान्त की सहिष्णुता सभी धर्मों की विषमता का अन्त करती है तथा समझने का मार्ग खोलती है।
    8. अहिंसा धर्म की सुरक्षा के लिए अनेकान्त का आश्रय अनिवार्य है। दूसरों को द्वेष की दृष्टि से देखने वाला व्यक्ति अनेकान्त का उपासक नहीं बल्कि उपहासक है।
    9. प्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आईन्सटाईन के द्वारा खोजा गया 'सापेक्षता का सिद्धान्त' (Theory of Relativity) वस्तुतः जैनदर्शन की ही देन है। इसी सिद्धान्त के माध्यम से वस्तु में अनेक धर्मों की सिद्धि होती है।
    10. जो आगम के आलोक में तत्व व्यवस्था देखना चाहते हैं उन्हें अनेकान्त के आलोक में आगम को देखना चाहिए।
    11. भले ही आप अनेकान्त के उपासक हैं लेकिन ये एकांत है कि एकांत में ही अकेले की मुक्ति होगी, वहाँ अनेकान्त नहीं रहेगा।
    12. अनेकान्त का मर्म जानने वाला व्यक्ति तीन काल में भी किसी दार्शनिक से भिड़ेगा नहीं। हाँ.....भेंट अवश्य कर सकता है।
    13. कभी निश्चय कभी व्यवहार दोनों हो लेकिन उपसंहार अनेकान्त में ही होना चाहिए। एकांतवाद की बू आने पर हम इन दोनों को नहीं पा सकेंगे।
    14. स्याद्वाद से एकांतवाद का खंडन और अनेकान्त का मण्डन होता है।
    15. हेय को छोड़ना और उपादेय को ग्रहण करना यही स्याद्वाद का सही फल है। अपना छोड़ना और पर को जोड़ना यह स्याद्वाद का फल नहीं है।
    16. वाद-विवाद नहीं अपितु निर्विवाद होने के लिए स्याद्वाद और अनेकांत का अवलम्बन लिया गया है।
    17. वाद् के पीछे एकांत लगाओगे तो गलत हो जायेगा। वाद् के पीछे तो स्यात् लगाओ, स्याद्वाद कहो, अनेकान्त धर्म कहो।
    18. जैनदर्शन का हृदय है अनेकान्त और अनेकान्त का हृदय है समता। सामने वाला जो कहता है उसे सहर्ष स्वीकार करो। विश्व में ऐसा कोई भी मत नहीं है जो भगवान महावीर की देशना से सर्वथा असम्बद्ध हो।
    19. दूसरों का विरोध करने की आदत छोड़िये, कोई कुछ कहे उसे सर्वप्रथम मंजूर करो, कैसे करो मंजूर ? कि हाँ भाई! आपका कहना भी कथंचित् ठीक है। कथंचित् यह एक ऐसा शब्द है जिसके माध्यम से हम सभी मान्यतायें स्वीकार कर सुन्दर समाधान दे सकते हैं।
    20. अनेकान्त की प्ररूपणा के लिए सहायक है नयवाद। जो कोई भी नीति है-अनीति है, ध्रुव है अध्रुव है, जितने भी नयजाल हैं, वे सब नयाश्रित है।
    21. जैन दर्शन वकालत नहीं करता अपितु जो वकालत करने के लिए विविध तर्कों से लैस (तैयार) होकर संघर्ष की मुद्रा में वकील आते हैं उन्हें साम्य भाव से सुनकर सही-सही जजमेंट (Judgement) देता है निष्पक्ष होकर निर्णय देता है।
    22. ६ के आगे ३ होने पर ६३ का संबंध बनता है और ३ के आगे ६ होने पर ३६ का आँकड़ा। ३ के आगे होने की स्थिति में अनेकान्तात्मक वस्तु मिट जाती है, स्याद्वाद समाप्त हो जाता है और जब ६ और ३ एक दूसरे की ओर देखते हैं तब मिलन की स्थिति बनती है पीठ दिखाने की नहीं। स्याद्वादी पीठ नहीं दिखाता किसी को।
    23. ‘ही' से हटकर यदि ‘भी' की ओर हमारी दृष्टि जाती है तो समझना कि हमने वीर प्रभु के शासन को समझा। मात्र अपनी लीक पर अड़कर लड़ने का नाम वीर-शासन नहीं है।
    24. अपने जीवन में आये वैधर्म्य विरोध और वैर आदि को छोड़ो। साम्य साधर्म्य भाव को धारण करो। तभी वीर शासन जयंती मनाना सार्थक होगी।

    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    There are no reviews to display.


×
×
  • Create New...