स्वाध्याय 3 - वक्ता/श्रोता विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- शब्द अर्थ नहीं है वह तो अर्थ की ओर ले जाने वाला संकेत मात्र है।
- परमार्थ अभिव्यक्त होने पर शब्द बौने-निरर्थक से हो जाते हैं, अत: शब्दों के माध्यम से स्वयं जागें और परमार्थ की अभिव्यक्ति कर उसका रसपान करें।
- शब्दों में ऐसा जादू है कि टूटता हुआ दिल जुड़ जाता है और जुड़ता हुआ टूट जाता है।
- निर्भीकता, गम्भीरता व मधुरता से बोला गया शब्द ही प्रभावक होता है।
- शब्दों के माध्यम से मन जितना जितना अर्थ की ओर जाता है उसकी एकाग्रता उतनी ही बढ़ती जाती है।
- शब्दों को फोड़ने का प्रयास करो, उसके माध्यम से अर्थ की यात्रा करो क्योंकि शब्दों में अर्थ भरा है और अर्थ में परमार्थ।
- भाषा भावों को अभिव्यक्त करने का माध्यम है इसके अतिरिक्त उसका और क्या प्रयोजन है ?
- वास्तविक उपदेश वह है जिसके द्वारा हम अपने देश (आत्मा) के पास आ सकें अन्यथा वह उपदेश उपदेश नहीं पर-देश ही समझो।
- पढ़ाने का उद्देश्य मात्र विद्वता की प्रस्तुति ही नहीं अपितु सामने वाले का तत्व के प्रति समर्पण भाव लाना ही सही अध्यापन है।
- वक्ता की विश्वसनीयता एवं प्रामाणिकता से ही उसके द्वारा कही गई बातों पर विश्वास जमता है।
- अपनी प्रतिष्ठावश अज्ञात विषय के समाधान का साहस वक्ता को कभी नहीं करना चाहिए।
- जो विपक्ष की बात सुनने की क्षमता नहीं रखता और बात-बात में उत्तेजित हो उठता है वह सभा मंच पर बैठने के अयोग्य है।
- जैसे माँ अपने बच्चे को बड़े प्रेम से दूध पिलाती है ठीक वैसी ही मनोदशा होती है बहुश्रुतवान उपाध्याय महाराज की। अपने पास आने वालों को वे बताते हैं सांसारिक क्रियाकलापों से बचने के उपाय। उनका प्रभाव भी पड़ता है क्योंकि वे स्वयं उस प्रक्रिया की साक्षात् प्रतिमूर्ति होते हैं।
- आचरण के बिना साक्षर मात्र बने रहने से ठीक उसके विपरीत राक्षस बन जाने का भी भय रहता है।
- अक्षरों के ज्ञानी पण्डित अक्षरों का अर्थ भी नहीं समझते। 'क्षर' यानी नाशवान और ‘अ’ यानी नहीं अर्थात् मैं अजर-अमर अविनाशी हूँ। यह अर्थ है अक्षर का; इसे समझना चाहिए।
- कथन की शैली भले ही लच्छेदार शब्दों से युक्त हो किन्तु वह कथचित् से रहित है तो वह ज्ञान सम्यकज्ञान नहीं माना जा सकता।
- सिद्धांत कभी भी अपना नहीं होता..... हाँ! उसे अपना जरूर सकते हैं हम। जैसे घर की दुकान हो सकती है पर घर के नाप तौल नहीं हो सकते।
- वक्ता को निर्भीक होने के साथ-साथ निरीह भी होना चाहिए।
- जिस वक्ता की आजीविका श्रोताओं पर आधारित है वह वस्तु तत्व का प्रतिपादन सही-सही नहीं कर सकता।
- जिस प्रकार वातावरण से प्रभावित होकर गिरगिट अपना रंग बदलता रहता है उसी प्रकार आजकल के वक्ता भी स्वार्थ-सिद्धि की वजह से श्रोताओं का माहौल देखकर आगम के अर्थ को बदलते रहते हैं।
- सही वक्ता वह है जो निरीह हो, वीतरागी हो, पक्षपाती न हो, किसी भी प्रकार के प्रलोभनवश आगम को उलट-पुलट करने वाला न हो।
- जिस वक्ता के मन में धन कचन की आस और पाद-पूजन की प्यास विद्यमान है वह सत्य का उद्घाटक कभी नहीं हो सकता।
- यदि कोई सिद्धान्त का गलत अर्थ निकालता है तो उस समय बिना पूछे ही उसका निराकरण करना चाहिए। यदि उस समय हम समंतभद्राचार्य जैसी गर्जना नहीं करते तो ध्यान रखिये हमारा सम्यकज्ञान भी दूषण को प्राप्त होगा।
- आज के श्रोता की स्थिति उस माइक के समान है जो सुनता तो सबसे पहले है किन्तु उस सुने हुए को अपने पास नहीं रखता, तुरंत ही दूसरों तक पहुँचा देता है।
- वक्ता की प्रामाणिकता से वचनों में प्रमाणता आती है, इसलिए उपदेश देने वाले का पद महान् और प्रामाणिक ही होना चाहिए।
- जिस विषय के बारे में हमें पूर्वापर सही-सही ज्ञान नहीं है उस विषय पर हमें नहीं बोलना चाहिए। ऐसी स्थिति में यदि हम बोलते हैं, प्रवचन करते हैं तो बहुत सारे व्यवधान भी आ सकते हैं और यदि इसमें कषाय और आ जाये तब तो बहुत सारे अनर्थ भी हो सकते हैं।
- बोलना तो सरल है पर हर किसी के प्रश्न का जवाब देना उतना सरल नहीं है। अत: सोच समझकर पूर्वापर विचार कर आगम परक जवाब देने की कोशिश करना, भले ही जवाब देने में देर हो जाये पर जल्दबाजी में कुछ भी बोलकर अनर्थ नहीं करना।
- केवल लम्बी-चौड़ी भीड़ के समक्ष प्रवचन देने से ही प्रभावना होने वाली नहीं है बल्कि सही प्रभावना तो अपने मन पर नियन्त्रण करने से होती है।
- किसी को भी उपदेश सुनाना हो तो ध्यान रहे उसे सर्वप्रथम संवेग और निर्वेग का ही उपदेश देना चाहिए ताकि इन दोनों के माध्यम से वह सरलता से समझकर अपना कल्याण कर सके ।
- शास्त्र का प्रयोग अपने लिए है, दूसरे को समझाने के लिए नहीं। दूसरा यदि अपने साथ समझ जाता है तो बात अलग है किन्तु उसको बुला बुलाकर आप उपदेश दोगे तो जिनवाणी का एक दृष्टि से अनादर होगा क्योंकि वह रुचि पूर्वक सुनेगा नहीं अथवा सुनेगा तो उसका दुरुपयोग करेगा इससे आप भी दोषी माने जायेंगे।