यह सतयुग नहीं है
कलि-युग है,
भीतर ही भीतर
अहं को रस मिलता है
आज ! लक्ष्मी का हाथ
ऊपर उठा है
अभय बाँट रहा है
परसाद के रूप में
और नीचे है
जिसके चरणों में
शरण की अभिलाष ली
लजीली-सी
लचीली-सी
नतनयना
गतवयना
सती सरस्वती
प्रणिपात के रूप में |