जग के सारे समन्दर की गहराई को,
जोड़ने से भी अधिक गहराई है आपमे।
निज उपयोग को सूक्ष्म करके ज्ञानसागर में डुबकी लगाकर,
मौलिक रत्नत्रय के मोती पाये हैं आपने।
मोती किसी को दिखने में भी नहीं आते,
मात्र दिखती है, झलकती है उसकी आभा।
जिसकी आभा इतनी अनुपम तो,
वह रत्नत्रय के मोती कितने सुंदर होंगे,
और वह मोती है पास जिनके,
ऐसे गुरुदेव कितने पावन होंगे।
"विधार्णव गंभीर गहन हैं, थाह न कोई पा सकता।
गुणानुवाद का अभिप्राय हैं, मेरा मन भी ना थकता।।
अलंकार भाषाविद् ना हूँ, भक्ति भाव की हैं भाषा।
सभी जानते गुरुवर तुम तो, क्या हैं मेंरी अभिलाषा।।"