स्वयं को कृतकृत्य करने वाली,
शरणागत के दुष्कृत्य मिटाने वाली,
गुरूणाम् गुरु ने जो कृति रची,
आप भी न रच पाये,
रचते भी कैसे,
लाते भी कहाँ से,
अपने जैसे विद्यासागर को,
विनीत विनम्र विद्याधर को,
आपसा कोई नहीं जहाँ में,
अति दुर्लभ है दर्शन जिनका
ऐसे गुरु को पाऊँ कहाँ मैं।
“ज्ञानसिंधु की चेतना कृति यह, सबको प्यारी लगती है।
चर्म नयन बिना ज्ञान नयन से, दुनिया इनको पढ़ती है।।
मोक्षपंथ का दिशाबोध दें, दीक्षा देकर तार रहे।
गुरुवर विद्यासागर पद में, वंदन बारंबार रहे॥”