Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    894

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. निर्ग्रन्थ श्रमण ग्रन्थ का उपयोग अपने आत्म उत्थान के लिए ही करते हैं। चिन्तन करके उसे लेखन का रूप दे देते हैं, यह भी उनकी साधना का एक अंग है। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने ग्रन्थ तो बहुत लिखे और बहुत से ग्रन्थों का अनुवाद भी किया, किन्तु ग्रन्थ लिखने के लिए उन्होंने कभी कागज का चयन नहीं किया, उन्हें जैसा कागज मिल जाता था, उसका उपयोग कर लेते थे, कभी भी ग्रन्थ छपवाने की इच्छा नहीं रखते थे। श्रावक कहते थे महाराजजी आपने जो ग्रन्थ लिखे हैं, उनका क्या होगा। वे कहते थे भइया ग्रन्थ तो मैं उपयोग लगाने के लिए लिखता हूँ। श्रावकों ने कहा नहीं, महाराज हम तो उनको छपवाना चाहते हैं पर ज्ञानसागरजी मना करते थे। महाराजजी के मना करने पर भी श्रावकों के बार-बार आग्रह करने पर उन्होंने कहा कि यदि आप लोग इसका उपयोग समझते हैं तो यह कार्य कर सकते हैं। श्रावकों ने ग्रन्थ को छपवा दिया महाराजजी ने देखा तो उसमें अशुद्धि बहुत थीं और साथ में शुद्धि पत्र भी लगे हुए थे। उन्होंने देखकर कहा इसीलिए तो छपाने की मना करते थे, श्रावकों ने कहा आगे ऐसा नहीं करेंगे। जब महाराजजी सीकर आये और देखा कि प्रवचनसार ग्रन्थ (जिसका उन्होंने अनुवाद किया था) आलमारी में पड़ा है। फिर भी उन्हें प्रकाशन की कोई चिन्ता नहीं हुई, यह थी उनकी निरीह वृत्ति। इन्हें स्वरचित ग्रन्थों से भी कोई मूच्र्छा नहीं थी, लगाव नहीं था, वे मूच्र्छा परिणाम से सदैव दूर रहते थे। १५.०१.१९९३,मढियाजी
  2. धर्म को धारणकर धर्म को ऊँचा उठाने की भावना अच्छी हो, आस्था सच्ची हो तो स्मृति दृढ़ हो जाती है, जो पुस्तक से ज्ञान प्राप्त किया। वह मस्तिष्क में समा जाये और स्मृति का विषय बन कर ज्ञान का दान करने को प्रेरित करता रहे, यह ज्ञानगुण की महानता है। जब आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज मुनि श्री विद्यासागरजी को अष्टसहस्री पढ़ा रहे थे तब कहा कि लोग अष्टसहस्री को कष्टसहस्री कहते हैं, लेकिन यह तो मिष्टसहस्री है। बल्कि इस ग्रन्थ को पढ़ना उनके बॉये हाथ का काम था, राणोली ग्राम से एक प्रति मँगाई थी, उसमें पण्डित भूरामल जी के हाथ के निशान लगे थे। आचार्य ज्ञानसागरजी बिना पुस्तक के ही मुनि श्री विद्यासागरजी को न्याय ग्रन्थ पढ़ाते थे एवं अर्थ समझाते थे, कहा करते थे देखो वहाँ निशान लगा है, इससे उन्हें अपने निशान भी याद रहते थे, उनकी स्मृति हमेशा ताजी बनी रहती थी। इस संस्मरण से हमें धर्म को धारण करने का परिणाम देखने को मिल जाता है।
  3. उपसर्ग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/anya-sankalan/upasarg/
  4. जब अध्ययन आचरण में ढल जाता है तब अध्ययन की सार्थकता सिद्ध हो जाती है। सही(सम्यक्) ज्ञान वही है जो आचरण के रूप में परिवर्तित हो जाये। जैसा जीवन में पढ़ा वैसा ही जीवन में धारण करना बहुत कठिन है। लेकिन पण्डित भूरामलजी शास्त्री ने शास्त्रों का अध्ययन ब्रह्मचर्य व्रत लेकर किया और उन्होंने पाण्डित्य को प्राप्त किया। इस प्रकार क्रमशः आगे बढ़ते हुए १० वीं प्रतिमा को स्वीकार कर मंसूरपुर पहुँचे तो पहले दाँत में दर्द हुआ फिर बाद में मलेरिया बुखार का रोग चला वह बुखार तो उनको नहीं आया, क्योंकि वे भोजन में हरी मिर्च लेते थे, लाल नहीं। आयुर्वेद में हरीमिर्च को ज्वरनाशक माना गया है साथ में सुपाच्य भी। इस प्रकार अध्ययन से साधना की ओर बढ़ते हुए सन् १९५६ में पं० भूरामलजी ने भगवान् की प्रतिमा के सामने मंसूरपुर में ही क्षुल्लक के व्रतों को धारण किया। भोजन में नमक ऊपर से नहीं लेते थे। गेहूँ, चना की रोटी चूरा करके लेते थे। इस प्रकार अध्ययन करते हुए भी उनके कदम साधना की ओर बढ़ते ही रहे। अतः इस संस्मरण से हमें शिक्षा मिलती है कि हमें शिक्षा के साथ-साथ आचरण की ओर भी कदम बढ़ाते रहना चाहिए।
  5. भोजन से सम्बन्ध टूटने से भजन से सम्बन्ध जुड़ता चला जाता है। भजन समता की ओर पहुँचने का मार्ग है जहाँ पर बुद्धिपूर्वक शरीर के त्याग की कला सफलीभूत होती है। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज समाधि तपन के दिनों में चल रही थी, उन्होंने जीवन भर जो तप किया था, उस समय वह तपन को शीतल बना रहा था। उन्हें साइटिका रोग हो गया था। यह मौसम उनकी साधना के अनुकूल था। एक-दो श्रावक भक्त आते थे और पं. द्यानतराय, भूधरदास, भागचंद आदि विद्वान् पंडितों द्वारा रचित आध्यात्मिक भजन सुनाते थे। समाधि के ६ माह पूर्व ही आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने अनाज (अन्न) का त्याग कर दिया था। दूध और फलों का रस लेते थे, बाद में उन्होंने दूध भी छोड़ दिया मात्र रस और जल लेते थे, फिर रस का भी त्याग कर दिया मात्र जल लेते थे, उसके बाद जल भी छोड़ दिया अंत में चार दिन निराहार रहे अर्थात् निर्जल उपवास किए और एक ही स्थान पर लेटे रहते थे। गर्मी की कोई आकुलता नहीं थी। उनके शरीर त्यागने के पूर्व भागचंद जी सोनी महाराज के दर्शन हेतु आये और उन्होंने कहा कि आचार्य श्री मुझे आशीर्वाद दे दो। महाराज जी का शरीर क्षीण हो जाने के कारण उनका हाथ नहीं उठता था तो सोनीजी ने पुनः महाराजजी से कहा कि महाराजजी यदि आपका हाथ नहीं उठता तो आँख खोलकर ही आशीर्वाद दे दो, यह सुनकर आचार्यश्री ने प्रसन्न मुद्रा से सेठजी की ओर देखा। आशीर्वाद प्राप्त करके सेठ जी वहाँ से चले गये। उनके जाने के १० मिनट बाद ही सुबह ११ बजकर १० मिनट पर महाराजजी की चेतना लुप्त हो गई मात्र शरीर रह गया और सब देखते ही रहे। वे भोजन से सम्बन्ध छोड़कर समता के भजन में समा गये।
  6. स्वाध्याय करने से यदि स्व की ओर दृष्टि चली जाती है तो स्व का ज्ञान होने में देर नहीं लगती। यही जीवन का सच्चा स्वाध्याय है। इसी बात को ध्यान में रखकर आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज कहते थे कि “बहुत ग्रन्थ पढ़ने की आवश्यकता नहीं बहुत बार पढ़ने की आवश्यकता है।'' बहुत ग्रन्थ पढ़ने से कोई विद्वान् नहीं होता बल्कि शब्दों के रहस्य को समझने से पाण्डित्य गुण प्राप्त होता है। इसलिए उन्होंने अपने जीवन में १०८ बार सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ को पढ़ा। जो उनके जीवन में सर्वसाधनों की सिद्धि का कारण बना। वे कहते थे कि हम जितनी बार ग्रन्थ का पाठ करेंगे या टीका ग्रन्थ पढ़ेंगे उतना ही हमारा मन (जीवन) पवित्र होता जायेगा। यह पूज्य ज्ञानसागरजी महाराज के जीवन दर्शन से सिद्ध होता है कि पवित्र जीवन वाले साधक के जीवन का उपसंहार किस तरह हुआ करता है। ३.५.९४ अमरकण्टक (जीवकाण्ड वाचना के अवसर पर) ३.६.९५ कुण्डलपुर, श्रुतपञ्चमी
  7. दूसरों के दोष देखने वाला अपने दोषों को ढकने में लगा है। यह बात निश्चित हो जाती है। एक बार किसी ने आकर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज से शिकायत की कि महाराज जी वो सामायिक ठीक से नहीं करते। कब बैठते हैं पता नहीं और एक बजे सामायिक से उठ जाते हैं। आचार्य श्री ने पूछा आपकी कितनी प्रतिमाएँ हैं उन्होंने उत्तर दिया- मेरी सात प्रतिमाएँ, महाराजजी ने पुनः पूछा क्या आपकी सामायिक का समय ? उत्तर मिला १२ से १ तक। आचार्य श्री ने पुनः पूछा आप सामायिक करते हो या उनको देखते रहते हो। आपने तो सामायिक की ही नहीं उसने तो की है अतः उससे पूर्व आप दण्ड के अधिकारी हो। अतः सर्वप्रथम आप अपना प्रायश्चित ले लो बाद में उससे पूछ लेंगे। इसी प्रकार किसी ने फिर एक दिन कहा महाराज जी सात प्रतिमाओं का तो पालन हो रहा है आगे की प्रतिमाओं का पालन नहीं हो पा रहा है। तो आचार्य श्री ने कहा कि तुम्हें प्रतिमाओं के प्रति बहुमान ही नहीं है। “व्रतों के प्रति बहुमान एवं दोषों के प्रति घृणा होना साधक का सबसे पहला गुण है। ऐसा उनके जीवन दर्शन से ज्ञात होता है। ज्ञानार्णव वाचना पर, २६.०४.१९९६, तारंगाजी ज्ञानार्णव वाचना पर, २४.१०.१९९६, महुवा जी
  8. साहित्य का सही प्रयोग आत्मा का हित करने वाला है और साहित्य का दुरुपयोग आत्मा का अहित करने वाला है। साहित्य गलत नहीं होता बल्कि उसका अर्थ गलत निकालने से अनर्थ होने में देर नहीं लगती। आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज कहते थे कि ग्रन्थ के प्रथम सर्ग से ही लेखक की मानसिकता समझ में आ जाती है। जब वे अणुव्रतधारी (क्षुल्लक) थे, उस समय एक बार वे दिल्ली गये थे, उन्होंने वहाँ के श्रावकों को समयसार सुनाया तो वे लोग बोले हमने तो ऐसा समयसार न कभी पढ़ा है और न कभी सुना है। उनसे प्रभावित होकर बहुत से लोगों ने प्रतिमारूप व्रत को ग्रहण कर लिया। और उन्होंने पुनः निवेदन किया कि हम लोगों को जीवकाण्ड पढ़ना है।२ साल के बाद महाराजजी का पुनः दिल्ली जाना हुआ तो ज्ञात हुआ उन लोगों ने दूसरों से पढ़ना प्रारम्भ कर दिया है और ग्रहण की हुई प्रतिमाओं को छोड़ दिया है। तब महाराजजी ने कहा ज्ञान का प्रभाव नहीं, बल्कि पढ़ाने वाले का प्रभाव पड़ता है। इस प्रसंग से हमें शिक्षा मिलती है कि संयमी से पढ़ने से संयम के भाव बनते हैं और असंयमी से ग्रन्थ पढ़ते हैं तो इस प्रकार की हानि हो सकती है। जीवकांड वाचना पर,१५.०३.१९९४, अमरकंटक ज्ञानार्णव वाचना पर, २३.०३.१९९६, तारंगाजी
  9. जीवन में साधना की गहराई/निरीहवृत्ति/निर्लोभता साधक को अतिशय कारी बना देती है। ऐसे साधक की चरणरज यदि माथे पर लगा लें तो मस्तिष्क के रोग ठीक हो जाते हैं। दर्शन करने से समस्या का समाधान हो जाता है। शारीरिक रोग मिट जाते हैं। ऐसे आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज पद-विहार करते हुए राजस्थान-प्रान्त के रैनवाल ग्राम में पहुँचे। प्रतिदिन आहारचर्या को जाते समय वहाँ के श्रावक गुलाबचंद्रजी, रतनचंद्रजी गंगवाल महाराज के पीछे-पीछे चले जाते थे, उनके हाथ में कोढ़ जैसा रोग हो गया था। वे महाराजजी के पादप्रक्षालन का चरणोदक हाथ में लगा लेते थे। लगभग २० दिन ऐसा करने से उनका रोग दूर हो गया। इस प्रकार साधक की साधना रोगों को दूर करने में सहायक होती है।
  10. उपदेश विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/anya-sankalan/upadesh/
×
×
  • Create New...