निर्ग्रन्थ श्रमण ग्रन्थ का उपयोग अपने आत्म उत्थान के लिए ही करते हैं। चिन्तन करके उसे लेखन का रूप दे देते हैं, यह भी उनकी साधना का एक अंग है।
आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने ग्रन्थ तो बहुत लिखे और बहुत से ग्रन्थों का अनुवाद भी किया, किन्तु ग्रन्थ लिखने के लिए उन्होंने कभी कागज का चयन नहीं किया, उन्हें जैसा कागज मिल जाता था, उसका उपयोग कर लेते थे, कभी भी ग्रन्थ छपवाने की इच्छा नहीं रखते थे। श्रावक कहते थे महाराजजी आपने जो ग्रन्थ लिखे हैं, उनका क्या होगा। वे कहते थे भइया ग्रन्थ तो मैं उपयोग लगाने के लिए लिखता हूँ। श्रावकों ने कहा नहीं, महाराज हम तो उनको छपवाना चाहते हैं पर ज्ञानसागरजी मना करते थे। महाराजजी के मना करने पर भी श्रावकों के बार-बार आग्रह करने पर उन्होंने कहा कि यदि आप लोग इसका उपयोग समझते हैं तो यह कार्य कर सकते हैं। श्रावकों ने ग्रन्थ को छपवा दिया महाराजजी ने देखा तो उसमें अशुद्धि बहुत थीं और साथ में शुद्धि पत्र भी लगे हुए थे। उन्होंने देखकर कहा इसीलिए तो छपाने की मना करते थे, श्रावकों ने कहा आगे ऐसा नहीं करेंगे।
जब महाराजजी सीकर आये और देखा कि प्रवचनसार ग्रन्थ (जिसका उन्होंने अनुवाद किया था) आलमारी में पड़ा है। फिर भी उन्हें प्रकाशन की कोई चिन्ता नहीं हुई, यह थी उनकी निरीह वृत्ति। इन्हें स्वरचित ग्रन्थों से भी कोई मूच्र्छा नहीं थी, लगाव नहीं था, वे मूच्र्छा परिणाम से सदैव दूर रहते थे।
१५.०१.१९९३,मढियाजी