जब अध्ययन आचरण में ढल जाता है तब अध्ययन की सार्थकता सिद्ध हो जाती है। सही(सम्यक्) ज्ञान वही है जो आचरण के रूप में परिवर्तित हो जाये। जैसा जीवन में पढ़ा वैसा ही जीवन में धारण करना बहुत कठिन है। लेकिन पण्डित भूरामलजी शास्त्री ने शास्त्रों का अध्ययन ब्रह्मचर्य व्रत लेकर किया और उन्होंने पाण्डित्य को प्राप्त किया। इस प्रकार क्रमशः आगे बढ़ते हुए १० वीं प्रतिमा को स्वीकार कर मंसूरपुर पहुँचे तो पहले दाँत में दर्द हुआ फिर बाद में मलेरिया बुखार का रोग चला वह बुखार तो उनको नहीं आया, क्योंकि वे भोजन में हरी मिर्च लेते थे, लाल नहीं। आयुर्वेद में हरीमिर्च को ज्वरनाशक माना गया है साथ में सुपाच्य भी। इस प्रकार अध्ययन से साधना की ओर बढ़ते हुए सन् १९५६ में पं० भूरामलजी ने भगवान् की प्रतिमा के सामने मंसूरपुर में ही क्षुल्लक के व्रतों को धारण किया। भोजन में नमक ऊपर से नहीं लेते थे। गेहूँ, चना की रोटी चूरा करके लेते थे। इस प्रकार अध्ययन करते हुए भी उनके कदम साधना की ओर बढ़ते ही रहे।
अतः इस संस्मरण से हमें शिक्षा मिलती है कि हमें शिक्षा के साथ-साथ आचरण की ओर भी कदम बढ़ाते रहना चाहिए।
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव