भोजन से सम्बन्ध टूटने से भजन से सम्बन्ध जुड़ता चला जाता है। भजन समता की ओर पहुँचने का मार्ग है जहाँ पर बुद्धिपूर्वक शरीर के त्याग
की कला सफलीभूत होती है।
आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज समाधि तपन के दिनों में चल रही थी, उन्होंने जीवन भर जो तप किया था, उस समय वह तपन को शीतल बना रहा था। उन्हें साइटिका रोग हो गया था। यह मौसम उनकी साधना के अनुकूल था। एक-दो श्रावक भक्त आते थे और पं. द्यानतराय, भूधरदास, भागचंद आदि विद्वान् पंडितों द्वारा रचित आध्यात्मिक भजन सुनाते थे।
समाधि के ६ माह पूर्व ही आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने अनाज (अन्न) का त्याग कर दिया था। दूध और फलों का रस लेते थे, बाद में उन्होंने दूध भी छोड़ दिया मात्र रस और जल लेते थे, फिर रस का भी त्याग कर दिया मात्र जल लेते थे, उसके बाद जल भी छोड़ दिया अंत में चार दिन निराहार रहे अर्थात् निर्जल उपवास किए और एक ही स्थान पर लेटे रहते थे। गर्मी की कोई आकुलता नहीं थी। उनके शरीर त्यागने के पूर्व भागचंद जी सोनी महाराज के दर्शन हेतु आये और उन्होंने कहा कि आचार्य श्री मुझे आशीर्वाद दे दो। महाराज जी का शरीर क्षीण हो जाने के कारण उनका हाथ नहीं उठता था तो सोनीजी ने पुनः महाराजजी से कहा कि महाराजजी यदि आपका हाथ नहीं उठता तो आँख खोलकर ही आशीर्वाद दे दो, यह सुनकर आचार्यश्री ने प्रसन्न मुद्रा से सेठजी की ओर देखा। आशीर्वाद प्राप्त करके सेठ जी वहाँ से चले गये। उनके जाने के १० मिनट बाद ही सुबह ११ बजकर १० मिनट पर महाराजजी की चेतना लुप्त हो गई मात्र शरीर रह गया और सब देखते ही रहे। वे भोजन से सम्बन्ध छोड़कर समता के भजन में समा गये।
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव