वे जितने आचरण में कठोर थे, निपुण थे और स्नात थे उससे कहीं अधिक वे अनुशासन में भी कठोर थे। उन्हें अनुशासन के क्षेत्र में ढील कतई पसन्द नहीं थी। उनके प्रत्येक आवश्यक (मूलगुणादि) समय पर ही सम्पन्न होते थे आगे पीछे की बात ही नहीं थी। सामायिक के समय सामायिक, प्रतिक्रमण के समय प्रतिक्रमण, स्वाध्याय के समय स्वाध्याय, प्रत्याख्यान के समय प्रत्याख्यान, स्तुति के समय स्तुति, वंदना के समय वंदना। ऐसे षट् आवश्यक में ढला पला उनका जीवन दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित करता रहता था और जिससे सहज ही सामने वाले दर्शनार्थी का उनके चरणों में माथा झुक जाता था, किसी कवि की पंक्तियाँ याद आ रही हैं वह शिर, शिर नहीं, जो हर जगह झुक जाये। वह चरण, चरण नहीं, जहाँ शिर न झुक पाये |
एक बार की बात है साधु परमेष्ठी बैठे हुए थे तब ब्रह्मचारी विद्याद्यर जो बचपन के आँगन में आकर खड़े ही हुए थे और गुरु ने शिष्य को अध्ययन प्रारम्भ करा दिया तब शिष्य के मस्तिष्क में शंकायें उठने लगीं क्योंकि वे कन्नड़ भाषी थे और हिन्दी भाषा वो भी राजस्थान की मारवाड़ी भाषा समझना उनके लिए “टेड़ी खीर' थी। पुरुषार्थ, श्रम, बुद्धि के आयाम के द्वारा उन्होंने कठिन को सरल कर लिया फिर भी एक दिन वे अपने गुरु से कुछ जिज्ञासा वश पूछ ही बैठे तब गुरु ज्ञान दिवाकर ने कहा कि चुप बैठ, सभी बातें पूछता है तब शिष्य मस्तक झुका स्वीकारता प्रदान कर अपने शिर को नीचा करके विनय भाव के साथ बैठ गया तब लगा कि ज्ञानसागरजी महाराज जितने आचरण में कठोर हैं उतने ही अनुशासन प्रिय भी हैं।
मूलाचार प्रदीप की वाचना पर,
३०.०५.१९९९ (रविवार),नेमावर (देवास)