अशुभ को शुभ में बदलने के लिए मङ्गलपाठ का प्रयोग किया जाता है। इसी धारणा-भावना को ध्यान में रखते हुए पञ्च परमेष्ठी वाचक णमोकारमहामंत्र जो कि ८४ लाख मंत्रों का जनक है। जिसके प्रथम पद का उच्चारण आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज अपने प्रवचन के पूर्व मंगल वातावरण बनाने हेतु तीन बार किया करते थे जो भिन्न-भिन्न अर्थ को लिये हुए है जैसे-
१. णमो अरिहंताणं = णमो अर्थात् नमस्कार हो, किन्हें नमस्कार हो ? जो कर्मरूपी शत्रु के हंता हैं अर्थात् जिन्होंने कर्म रूपी शत्रुओं का हनन कर दिया है।
२. णमो अरहंताणं = जो पूज्यता की योग्यता को प्राप्त किये हुए हैं ऐसे अरहंत को नमस्कार हो।
३. णमो अरुहंताणं= जिसका संसार में पुनः जन्म मरण नहीं होगा, ऐसे संसार के बीजत्व को नष्ट करने वाले अरुहंत परमेष्ठी को नमस्कार हो।
इस प्रकार णमोकारमंत्र के प्रथम पद का रहस्यमय मंगलाचरण ही प्रवचन का अंश बन श्रोताओं का मन मोह लेता था और उनका प्रमाद छूट जाता था। ऐसे पूज्य आचार्य परमेष्ठी आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज थे।
प्रवचनांश
२१.०१.२००१, रविवार,
सिद्धक्षेत्र, कुण्डलपुर