जब पुराण पढ़ने की बात आती थी, तब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ग्रन्थ के चयन की ओर चले जाते थे। चयन करना इसलिए आवश्यक है क्योंकि पुराणों में श्रृंगार रस का भी वर्णन है। नये-नये वैरागी का, स्वाध्यायी का, अध्येता का कहीं वैराग्य घट न जाये श्रृंगार रस में बह न जाये। ऐसा ही एक बार विद्याधर के शुरुआत के दिनों में जब पुराण पढ़ने की बात आई तो आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज तत्त्व के मर्म को समझने वाले साधु परमेष्ठी ने विद्याधर को आदेश की भाषा में बुलाकर कहा उस समय ब्र. विद्याधर हाथ जोड़कर गुरु के सम्मुख बैठ गए फिर उन्हें गुरुदेव से आदेश प्राप्त हुआ कि आदिपुराण के पूर्वार्द्ध को एवं जयोदय को अभी तुम्हें नहीं पढ़ना तब शिष्य अपनी छोटी/अल्प बुद्धि से बड़ी बातें समझ गये और सिर झुकाकर अपने गुरुवर को स्वीकारता प्रदान कर दी। ऐसे आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज अनोखी प्रतिभा के धनी थे, जो पात्र को देखकर ग्रन्थ का चयन करते थे, जिससे पात्र में परिपक्वता आ जाती थी।
मूलाचार प्रदीप वाचना पर
३०.०५.१९९९, रविवार,नेमावर