दूसरों के दोष देखने वाला अपने दोषों को ढकने में लगा है। यह बात निश्चित हो जाती है। एक बार किसी ने आकर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज से शिकायत की कि महाराज जी वो सामायिक ठीक से नहीं करते। कब बैठते हैं पता नहीं और एक बजे सामायिक से उठ जाते हैं। आचार्य श्री ने पूछा आपकी कितनी प्रतिमाएँ हैं उन्होंने उत्तर दिया- मेरी सात प्रतिमाएँ, महाराजजी ने पुनः पूछा क्या आपकी सामायिक का समय ? उत्तर मिला १२ से १ तक। आचार्य श्री ने पुनः पूछा आप सामायिक करते हो या उनको देखते रहते हो। आपने तो सामायिक की ही नहीं उसने तो की है अतः उससे पूर्व आप दण्ड के अधिकारी हो। अतः सर्वप्रथम आप अपना प्रायश्चित ले लो बाद में उससे पूछ लेंगे।
इसी प्रकार किसी ने फिर एक दिन कहा महाराज जी सात प्रतिमाओं का तो पालन हो रहा है आगे की प्रतिमाओं का पालन नहीं हो पा रहा है। तो आचार्य श्री ने कहा कि तुम्हें प्रतिमाओं के प्रति बहुमान ही नहीं है। “व्रतों के प्रति बहुमान एवं दोषों के प्रति घृणा होना साधक का सबसे पहला गुण है। ऐसा उनके जीवन दर्शन से ज्ञात होता है।
ज्ञानार्णव वाचना पर, २६.०४.१९९६,
तारंगाजी ज्ञानार्णव वाचना पर, २४.१०.१९९६, महुवा जी