पहले वह जमाना था, जब साधु के दर्शन दुर्लभ थे, उस समय यदि प्रतिमाधारी व्रती ब्रह्मचारी भी गाँव में आ जाये तो गाँव का गाँव उनके दर्शन के लिए उमड़ पड़ता था। उनके दर्शन करने वचन सुनने जब जन सैलाब उमड़ पड़ता था।
जब पण्डित भूरामलजी बनारस में पढ़ते थे, तब उन्हें ७-८ श्लोक एक दिन में याद हो जाते थे, दूसरे को २० श्लोक याद हो जाते। थे। फिर भी वे उससे द्वेष भाव, ईर्ष्या भाव नहीं रखते थे। वे हमेशा प्रत्येक परिस्थिति में समता धारण करते थे, समता का अभ्यास होने से ही उन्होंने महाव्रतों को अंगीकार किया और अंत में समता परिणामों के साथ ही अपने नश्वर शरीर का त्याग किया।
२६.०३.१९९८ ,बीनाबारहजी