धर्म को धारणकर धर्म को ऊँचा उठाने की भावना अच्छी हो, आस्था सच्ची हो तो स्मृति दृढ़ हो जाती है, जो पुस्तक से ज्ञान प्राप्त किया। वह मस्तिष्क में समा जाये और स्मृति का विषय बन कर ज्ञान का दान करने को प्रेरित करता रहे, यह ज्ञानगुण की महानता है। जब आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज मुनि श्री विद्यासागरजी को अष्टसहस्री पढ़ा रहे थे तब कहा कि लोग अष्टसहस्री को कष्टसहस्री कहते हैं, लेकिन यह तो मिष्टसहस्री है। बल्कि इस ग्रन्थ को पढ़ना उनके बॉये हाथ का काम था, राणोली ग्राम से एक प्रति मँगाई थी, उसमें पण्डित भूरामल जी के हाथ के निशान लगे थे। आचार्य ज्ञानसागरजी बिना पुस्तक के ही मुनि श्री विद्यासागरजी को न्याय ग्रन्थ पढ़ाते थे एवं अर्थ समझाते थे, कहा करते थे देखो वहाँ निशान लगा है, इससे उन्हें अपने निशान भी याद रहते थे, उनकी स्मृति हमेशा ताजी बनी रहती थी। इस संस्मरण से हमें धर्म को धारण करने का परिणाम देखने को मिल जाता है।