साहित्य का सही प्रयोग आत्मा का हित करने वाला है और साहित्य का दुरुपयोग आत्मा का अहित करने वाला है। साहित्य गलत नहीं होता बल्कि उसका अर्थ गलत निकालने से अनर्थ होने में देर नहीं लगती। आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज कहते थे कि ग्रन्थ के प्रथम सर्ग से ही लेखक की मानसिकता समझ में आ जाती है।
जब वे अणुव्रतधारी (क्षुल्लक) थे, उस समय एक बार वे दिल्ली गये थे, उन्होंने वहाँ के श्रावकों को समयसार सुनाया तो वे लोग बोले हमने तो ऐसा समयसार न कभी पढ़ा है और न कभी सुना है। उनसे प्रभावित होकर बहुत से लोगों ने प्रतिमारूप व्रत को ग्रहण कर लिया। और उन्होंने पुनः निवेदन किया कि हम लोगों को जीवकाण्ड पढ़ना है।२ साल के बाद महाराजजी का पुनः दिल्ली जाना हुआ तो ज्ञात हुआ उन लोगों ने दूसरों से पढ़ना प्रारम्भ कर दिया है और ग्रहण की हुई प्रतिमाओं को छोड़ दिया है। तब महाराजजी ने कहा ज्ञान का प्रभाव नहीं, बल्कि पढ़ाने वाले का प्रभाव पड़ता है। इस प्रसंग से हमें शिक्षा मिलती है कि संयमी से पढ़ने से संयम के भाव बनते हैं और असंयमी से ग्रन्थ पढ़ते हैं तो इस प्रकार की हानि हो सकती है।
जीवकांड वाचना पर,१५.०३.१९९४, अमरकंटक
ज्ञानार्णव वाचना पर, २३.०३.१९९६, तारंगाजी