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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. सुरखी से विहार करते समय आ गये ग्रामवासी करने निवेदन भीषण गर्मी है भगवन्! विहार मत कीजिए गुरूराज कल का उपवास आज का पूरा अंतराय! ऊपर से धूप सघन नीचे धरती की तपन यही चाहते थे सभी शिष्य-गण, किंतु दृढ़ संकल्पी महाश्रमण ज्यों ही विहार करने हुए उद्यत शिष्यों ने कहा विनम्रता से विहार करना है तो कर लीजिए पर हमसे पगतली में कुछ लगवा लीजिए। खुले आसमान को देख कहने लगे गुरूदेव नीचे से लगाना चाहते हो या ऊपर से गिरवाना चाहते हो? कहते हुए देकर निश्छल मुस्कान ले पिच्छी-कमण्डल हुए गतिमान… दो किलोमीटर भी चले नहीं कि मंद-मंद हवाएँ चलने लगीं... पिघल गया मेघेन्द्र का हृदय लो! जल की बूंदें बरसने लगीं... कुछ ही देर में तपन शांत हुई धरा की, देवों ने भी प्रशंसा की गुरु तपस्या की शिष्य-मण्डली आश्चर्य चकित थी। गुरू को पूर्व से ही कैसे यह बात ज्ञात थी! जिनके शब्दों का ध्यान सुरगण भी रखते हैं। आशीष को तरसते हैं, इन्द्रियजयी, दृढ़ निश्चयी देख परिणति ज्ञानमयी प्रकृति भी कुछ कह गई काँच के टुकड़े मिलते हैं हर जगह ढूंढना पड़ता है हीरे को! मिल जाते हैं दुर्जन हर जगह ढूँढ़ना पड़ता है सज्जनों को! अशांत मन असंत दिख जाते सर्वत्र शांतमना संत के दर्शन हैं दुर्लभ! चुपके से हर-हर हवाओं के बहाने गुरू-चरणों को छू गयी प्रकृति...
  2. आध्यात्मिक संत पुरूष की प्रत्येक क्रिया लगती है। ऋषियों की चर्या-सी शब्दावलियाँ लगती हैं। अनहद नाद-सी विचारधारा लगती है मंद सुगंधित बहती मलयानिल-सी आशु कवि-सा मिलता है उत्तर गुरू से वह भी अक्षरशः सटीक, सज्जन ने प्रश्न पूछा आकर समीप मुझे किसी ने दिया है यंत्र कहा है उसने ‘रखना अपने घर’ अच्छे से सँभालकर, मैं कुछ जानता नहीं आपकी आज्ञा बिन कुछ करना चाहता नहीं गुरुवर! मुझे समझाइये अबोध पर कृपा कीजिये! सहज भाव से कहा गुरु ने “घबराओ मत! घर में यंत्र रखो या न रखो। महत्त्वपूर्ण नहीं इतना, किंतु निज घट में महामंत्र को अवश्य रखना।" संशयहरणी जन-जन कल्याणी करूणा पूरित गुरु-वाणी सज्जन ने उतार ली अपने हृदय में... जिनकी चर्चा औ चर्या में जीवन और जिह्वा में कथनी और करनी में अंतर नहीं किञ्चित्, तभी तो देवता स्वयं रक्षा करते इनके वचनों की सत्य घटना है यह बात नहीं है सपनों की।
  3. व्यस्त रहकर भी प्राणी मात्र का ध्यान रखते अपने में लीन रहकर भी भक्त की भावना समझ लेते हज़ारों के हाथ में जाकर भी दो हज़ार का नोट टिकाये रखता है अपना मूल्य, संतात्मा अनेकों को जानते हुए भी बनाये रखते हैं निज का बोध। एक सज्जन सोचकर गया घर से पूछूंगा पाँचों प्रश्न गुरुवर से पर, पूछ नहीं पाया डर के मारे... कमाल तो यह हुआ कि पूछे बिना ही कक्षा में समाधान मिल गये सारे... मान गया वह अंतःकरण की बात गुरू जान लेते सब। नौकरी पेशे वाला भक्त दिन हो गये अट्ठाईस हुआ नहीं आहार अभी तक पुत्र को देने जाना है परीक्षा दो दिन बाद क्यों नहीं पधारे गुरु महाराज ? बेटे को हो रही आकुलता पिता ने किया आश्वस्त... अश्रु न बहाओ मेरे लाल! दयालु गुरूवर पढ़ लेते मन के भाव अवश्य आयेंगे हमारे द्वार एक-एक पल लग रहा सागर-सा परिवार सारा जाप कर रहा गुरू-नाम का मन में विचार हैं टंकी में भरे जल के समान, वचन में आने वाले शब्द हैं नल के समान, और तन में प्रगट आचरण है जल से भरे बर्तन के समान। यदि मन से की है अर्चना आराध्य की आराधना तो फलीभूत होती है अवश्य। दूसरे ही दिन वेला थी पड़गाहन की प्रतीक्षा थी गुरु के आगमन की लो! “भाव ही भव का मूल है भाव ही भव का कूल है” पंक्तियाँ यह सार्थक होती-सी सारा परिवार खड़ा है पड़गाहने हृदय में विश्वास मन में है पूरी आस जैसे-जैसे चरण आगे बढ़ते गये अन्य लोग अपने भाग्य को कोसते रहे... ज्यों ही कदमों की गति हुई धीमी हर्षाश्रु से आँखें हुईं गीली भवों-भवों का अतिशय पुण्य आ गया उदय में चरण रुक गये आकर सामने... खुशी का पारावार न रहा; क्योंकि गुरु ने हृदय-पृष्ठ को पढ़ लिया अनकहे ही अंतर्भावों को संत ने सुन लिया। विधिपूर्वक आहार देकर अंत में गुरूवर का आशीष पाकर शांत छवि को हृदय में बसाकर कर दिया प्रयाण अपने नगर की ओर… वाहन से आ पाये कुछ ही दूरी पर कि सामने से गाड़ी से हो गई जोर से टक्कर... सभी के मुख से निकली एकसाथ “जय हो श्री विद्यासागर जी महाराज” तीन-चार पलटी खाकर गाड़ी रूक गई। जहाँ थी गहरी खाई भक्त डूबा था गुरू-भक्ति में अचानक गुरु ने दर्शन दिये उसे किरणे निकलती हुईं आशीष की मुद्रा में। अदभुत करिश्मा हुआ! किसी को खरोंच तक नहीं आई गुरु-नाम की शक्ति ने सबको बचा लिया, आहारदान के प्रभाव से सभी ने नवजीवन पाया, संकट टला तो सारा परिवार पुनः गुरू-दर्शन को आया।
  4. जगतवंद्य हैं ऐसे संत धन्य हैं ये भावी भगवंत जो अतीत के विकल्प से परे हैं वर्तमान के आनंद से भरे हैं, इसीलिए कुछ अनागत को जान लेते हैं यह घटना साक्षी है इस बात की जब श्रावक ने किया गुरूवर का पड़गाहन, ले गया कक्ष में की भक्ति से पूजन गुरु-चरण पा फूला न समाया, पर ज्यों ही सात मिनट में छोड़ अंजली कर लिया आहार संपन्न। उसका हृदय भर आया रोते-रोते गुरू-पद में सिर टेक बोल गया वह तनिक तन का भी ख्याल करिये... अपना नहीं तो हम भक्तों का ध्यान रखिये! श्रावक की बात सुनकर भी बिना बोले ही मुस्कान मात्र से संतुष्ट कर, चले आये मंदिर के द्वार साथ ही आ गया सारा परिवार... ज्यों ही निकल आये घर से छत गिर गई ऊपर से अचरज से देख रही सारी जनता यह कैसा है करिश्मा... भावी घटना को कैसे जान लिया? तरह-तरह की करने लगे बातें आश्चर्य से भर आयी सबकी आँखें… इसी श्रावक के यहाँ आहार को आये; क्योंकि मरण से बचाना था उन्हें, शीघ्र आहार कर आये इसीलिए कि स्वयं को अकालमरण से बचना था इन्हें धन्य है गुरु की विशुद्ध परिणति परिमार्जित प्रबुद्ध मति! दो तरह के विकल्प आते हैं लौकिक व्यक्ति में एक वह कि ऐसा सटीक लिखूँ कि लोग पढ़ने को मजबूर हो जाये, दूसरा यह कि ऐसा जीवन जीऊँ कि मुझ पर लिखने को लोग मजबूर हो जायें, किंतु अध्यात्मयोगी गुरूवर कहते हैं कि पढ़ने योग्य लिखा जाये इसकी अपेक्षा बेहतर है लिखने योग्य किया जाये।” वास्तव में दीपक को स्वयं के बारे में आवश्यकता नहीं पड़ती बोलने की, दीपक के विषय में बोल देता है प्रकाश स्वयं ही। संत को अपने बारे में आवश्यकता नहीं बोलने की उनका सदाचरण ही बोल देता है उनके बारे में। ज्ञानधारा के पास नहीं हैं कर्ण फिर भी सुना-अनसुना कर लेती है वह श्रवण, नहीं है उसके पास नयन फिर भी कर लेती है दरश, नहीं हैं उसके पास घ्राण फिर भी आ जाती है महक, नहीं है उसके पास रसन फिर भी कर लेती है रसास्वादन, नहीं है उसके पास परस फिर भी कर लेती है स्पर्शन, नहीं है उसके पास मन फिर भी रखती है वह स्मरण | स्मृतियाँ ताजी हो आयीं उसकी बात पुरानी है गिरनार के विहार की पद-विहार करते-करते दायें पैर के अँगूठे में। अचानक हो गई भयंकर पीड़ा... धरती से भी छू जाये तो हो असह्य वेदना फिर भी चलते रहे लगातार भीतर में चलती रही स्वसंवेदना… शिष्यों ने गुरु की पीड़ा जानकर अनेकों चिकित्सकों को बुलवाकर कराया उपचार, किंतु तनिक न मिली राहत परिश्रम व्यर्थ रहा निस्सार... तभी वहाँ दर्शनार्थ आये कहा एक भक्त ने “बड़ी कृपा होगी मुझ पर बस एक बार दें मुझे सेवा का अवसर इस दर्द को ठीक कर सकता हूँ मैं तकलीफ किञ्चित् भी नहीं होगी उन्हें निवेदन है आप विश्वास रखें मुझ पे।" देख उसके भावों की दृढ़ता भाषा की विनम्रता सौंप दिये चरण निश्चिंतता से प्रथमतः परोक्ष ही प्रणाम कर आज्ञा ली उसने अपने गुरु से, चरण को सीने से लगा दिया दोनों आँखों को मूंद लिया। लगे सब सोचने कि अब यह अँगूठे को खींचेगा कहीं दर्द तो नहीं बढ़ा देगा? लेकिन कुछ किया नहीं उसने श्रद्धा से सहलाया उसने आँखें खोल बोला वह दर्द रह गया क्या अब? सभी जन थे अति विस्मित चलकर देखा गुरुवर ने दर्द चला गया जड़ से चलने में वेदना नहीं किञ्चित्, घेर लिया लोगों ने उसे आखिर यह चमत्कार सीखा किससे? कुछ कहा नहीं उसने ज्यों ही ऊपर के वस्त्र उतार दिये बदन से, सबने पढ़ा अपनी आँखों से लिखा था उसके सीने पे “आचार्य विद्यासागरजी महाराज की जय” इन्हीं की कृपा से करता हूँ इलाज यही है मेरी चिकित्सा का राज़! हतप्रभ हुई शिष्य मण्डली एकसाथ फूटी स्वरावली, जिनका नाम खुदा है तुम्हारे सीने में वह यही हैं तुम्हारे सामने! सुनते ही वह लिपट गया गुरु के चरणों से... खोज रहा था जिन्हें वह वर्षों से, परोक्ष में ही सुनकर गुरु की वार्ता हो गई जिसे अपूर्व आस्था आज मिल गये वह गुरू-चरण... गुरु की कृपा ने ही गुरु को निरोग कर दिया, अपनी झोली में उसने सातिशय पुण्य भर लिया। सभी को श्रीराम का स्मरण हो आया नदी में बाँध हेतु पत्थर डालते राम तत्काल वह डूब जाता, शेष नल-नील आदि भक्तगण लेकर राम का नाम डालते पत्थर तो तैर जाता, राम-नाम से मंत्रित पत्थर भी तैरता है। राम के हाथ से छूटा पत्थर भी डूबता है। गुरु-नाम के स्पर्श से रोग भी भाग जाता है। सोया हुआ भाग्य भी जाग जाता है, ‘स विभवो मनुष्याणां यः परोपभोग्यः’ मानव का वही धन है सही जो अन्य के लिए हो उपयोगी।
  5. शाम ढले वैय्यावृत्ति करते-करते बोल गया एक शिष्य मेरी अंतिम श्वास तक इस जीवन की शाम न हो तब तक, गुरूदेव आपका प्रत्यक्ष बना रहे संयोग य ही है कर जोड़ आपसे अनुरोध… क्योंकि भूखे के लिए भोजन आवश्यक है। प्यासे के लिए जल आवश्यक है। रोग के लिए औषध आवश्यक है। तो सम्यक् मरण के लिए आप जैसे गुरु का समागम आवश्यक है... सुनते ही बात शिष्य की मुखरित हुए आचार्यश्री जब तक तुम्हें भासित होता रहेगा मेरा संयोग, तब तक मिल न पायेगा तुम्हें निज स्वभाव का सहयोग, इसीलिए अब करो कुछ ऐसा स्थिर कर त्रियोग हो समयोग, स्वभाव में संयोग का अभाव हो अनुभूत तभी गुरु का संयोग हो फलीभूत। कहकर घंटों डूबे रहे स्वयं में निज ज्ञानबाग में विचरण कर वैराग्य की फुहार पाकर स्वानुभूति-कोयल की कुहुक श्रवण कर निज में ही आनंदित रहते स्वातम में नित रमते... क्योंकि अपनों के घेरे में अंधेरा ही अंधेरा है... और अपने घर में उ जाला ही उजाला है। भगवंत-पथ पर चलते आध्यात्मिक रस चखते जानते वे अंतर्मना कि ‘परायत्तं परोक्षं स्वायत्तं प्रत्यक्ष पराधीन है परोक्ष स्वाधीन है प्रत्यक्ष, अक्ष का लक्ष्य है जब मेरा तब पर का पक्ष ले वर्द्धन नहीं करना जग-फेरा अक्ष अर्थात् आत्मा के प्रति प्रीत रहे मेरी यह स्वाधीन परिणति ही मीत है मेरी।
  6. एक समर्पित शिष्या ने आज सवेरे मन में कुछ भावना ले कर जोड़ किया निवेदन क्षेत्र था पाटन तीन वर्ष से हो रहा लगातार वमन गुरुवर! मुझ पर कृपा कीजिये स्वास्थ्य-लाभ का आशीर्वाद दे मुझे दीक्षा के योग्य बना लीजिये...। स्नेह-भरी दृष्टि से निहार दे दिया आशीर्वाद का उपहार, ज्यों ही आशीष की रश्मियाँ उतर गईं हृदय के भीतर चेतना को कर गई तरबतर, अपूर्व-सा हुआ स्पंदन सहज ही मुकुलित हुए नयन... गुरू-कर से निःसृत तरंगों के स्पर्शन से अंतर स्नेह के वर्षण से रोग हुआ पलभर में छूमंतर, तन हुआ निरोग आ गया दीक्षा का योग। गुरू ने उँडेलकर अपनी ऊर्जा पिच्छी को सिर पर रखा पूर्ण हुई भावना उ स अपूर्व घड़ी का क्या कहना! जैसे सेठ और किंकर का संबंध है भौतिकता का शिक्षक और विद्यार्थी में बौद्धिकता का आत्मा-परमात्मा में भगवत्ता का वैसे ही गुरु-शिष्य में संबंध है आत्मीयता का, आत्मीय भाव पढ़ लेते वे भाषा की भी आवश्यकता नहीं उन्हें! एक दिवस एक सज्जन ने पाकर गुरुपद-छाँव कह दी मन की बात आबाल वृद्ध पर अद्भुत है आपका प्रभाव! सुनते ही बंद हुए नयन डूब गये चिंतन की गहराई में... पर के ऊपर प्रभाव पड़े मेरा इसमें मेरी कोई महिमा नहीं, मेरे स्वभाव का प्रभाव रहे मुझ पर यही मेरी गरिमा है सही, जिससे पर-भाव का अभाव नित्य अनुभूत हो। विभाव परिणति का तिरोभाव लक्ष्य मूलभूत हो, निजानंद की छाँव हो यथाख्यात संयम की नाव हो शाश्वत सिद्धालय-सा गाँव हो बस पर भाव न हो ऐसा मेरा मुझ पर स्वभाव का प्रभाव हो।
  7. नियमित दिनचर्या देख इनकी समझ में आता ‘मूलाचार' देख अध्यात्म-प्रवृत्ति इनकी दिख जाता ‘समयसार। आचरण में डूबा ज्ञान जिनका सहज होता रहता ध्यान जिनका, ज्ञान से सामने वालों को आकर्षित नहीं करना है जिन्हें बल्कि स्वयं के अज्ञान को प्रक्षालित करने का लक्ष्य है जिन्हें। स्मृति दिलाती है यह घटना जब मथुरा पहुँचे आचार्यश्री शाहदरा से आये तब लाला सुमतप्रसादजी बोले वह कर दी है मैंने आगे की सारी व्यवस्था, सुन लाला की बात कहा गुरु ने मंद मुस्कान के साथ मुझे पाना है सिद्धावस्था आवश्यक नहीं कोई व्यवस्था।'' तभी उठाकर पिच्छी कमण्डल पीछे-पीछे सारा शिष्य-मण्डल च ल दिये मथुरा से आगरा दिल्ली छूट गया भक्तों का मन से दिया।
  8. गुरु का लक्ष्य ज्ञान से पर को प्रभावित करना नहीं स्व को स्व में अवगाहित करना है। ज्ञान से प्रसिद्धि अर्जित करना नहीं सगुण विकसित करना है, अहं के आकाश में उड़ना नहीं नम्रता की नदी में तैरना है। तभी तो महा सद्गुणी गुरु-चरण में आ शरणागत हुई अनेकों शिष्य-शिष्या... शिल्पी ज्यों अनगढ़ पाषाण में मूरत गढ़ देता है। संत भावों से भरकर उसमें प्राण फेंक देता है, शिष्य त्यों अपने उपादान से गुरु-शरण पा लेते हैं। गुरु प्रबल निमित्त बनकर दीक्षा दे मंत्रित करते हैं। आठ ब्रह्मचारी ब न गये क्षुल्लक व्रतधारी क्षेत्र ‘अहार' हुआ पावन । वैराग्य-फुहारों से रिमझिम मानो बरसा संयम सावन! आत्म विहारी विहरते अभूतपूर्व धर्म-प्रभावना करते पपौरा थूबौनजी चौमासा करके पुनः पधारे जबलपुर अठासी में। जहाँ गुरु का आगमन होता वहाँ का हर भक्त भक्ति से सराबोर हो जाता; क्योंकि मुनिमना यह आकाश की भाँति अलिप्त रहते परद्रव्य से, अलि-सुमन की भाँति संयुक्त रहते परमात्म पदार्थ से, पौगलिक रस से विमुक्त रहते लगन निज तत्त्व से, नीरस आहार भी लेते साम्य भाव से।” एक तो समय शीत ऋतु का और चौके में भोजन भी शीतल था फिर भी शांत समरसी दृष्टि से चिंतन करते, निर्ममत्व मति से मनन करते, रसादि गुण वाला पौगलिक आहार आखिर कब तक लेना पड़ेगा? कोई भी जड़ पुद्गल आहार यह रस रहित हो नहीं सकता। आखिर इस रस का भोग कब तक चलेगा? यों तत्त्व चिंतन कर स्वानुभूति का रस एकाग्र होकर पीते निजात्मा रमा संग। आनंदित होकर जीते।
  9. कीड़ा भी बैठता कुसुम पर भौंरा भी बैठता सुमन पर, पर छेद कर देता कीड़ा रस पीकर फूल में दुर्जन की तरह, किंतु षट्पद रस पीकर खिलाकर सुमन को गीत सुना देता बदले में सज्जन की तरह। आप ज्ञानी हैं गुरूवर हंस के समान मैं अज्ञानी हुँ यतिवर! जोंक के समान। क्षमा कीजिए मुझ अज्ञ को गर आपश्री का मिल न पाता समागम तो बनी रहती उलझन, हुआ सार्थक आज यह नरतन पाकर आपसे गुरु को। प्रत्येक प्राणी के उद्धार की करते कामना नारी-उत्थान की भी रखते भावना तभी सागर, जबलपुर में ब्राह्मी विद्याश्रम की हुई स्थापना कई दशक श्वेत शाटिका धारी एक से एक सुशिक्षित ब्रह्मचारिणी क रतीं धर्म उपासना, अनुशासित हो गुरुकृपा-छाँव तले कर रहीं आत्म-साधना। देखते ही उन्हें... ब्राह्मी, सुंदरी की होती स्मृति तामस, राजस दोष से परे सात्विकता की लगती मूर्ति रजोगुण अर्थात् राग तमोगुण अर्थात् द्वेष इन दोनों से विरहित सात्विक गुण से परिपूरित... या यूँ कहें कि विरागता से आपूरित संचालिकाएँ आश्रम को करतीं संचालित, देख आश्रम को लगता ज्यों भावी आर्यिका समूह है विराजित अनुभव करती दिन-रात वे आगामी भव में कोई अन्य गुरू नहीं चाहिए हमें एक विद्यागुरू ही पर्याप्त हैं। चिरकाल का मिथ्या तमस मिटाने अपार भवसागर सुखाने… ज्यों पर्याप्त थे अकेले कृष्ण ही सौ कौरवों के लिए यतः कृष्णः ततो जयः यतो विद्यागुरो! ततः पाप क्षयः जिन्हें पर से ममत्व नहीं न ही पर का स्वामित्व कहीं स्वात्म सत्ता में करते हैं। अनंत गुण ग्राम वास जिनके एक-एक गुण ग्राम में... करते हैं अनंत शक्ति-अंश निवास... सच! ऐसे गुरु की प्रीत ही जगाती आत्म-प्रतीति ऐसे गुरु की भक्ति ही कराती निज आत्मानुभूति। नामानुसार है काम इनका स्वात्म चतुष्टय है धाम इनका, सरल है नाम रखना कठिन है नाम कमाना सरल है काम में लगना कठिन है निष्काम होना।
  10. घटना चक्र है समूचा जीवन शुभ-अशुभ घटित होता क्षण-क्षण विद्याधर की जननी नारी पर्याय की सर्वोत्कृष्ट अवस्था धारी ‘आर्यिका श्रीसमयमतिजी' विगत आठ वर्षों से थी साधनारत साध्वी सन् चौरासी में हुई दिवंगत शांत भाव से सल्लेखना पूर्वक। लेखन कार्य था अंतिम छोर पर तभी मालवा से एक पण्डित आये वहाँ पर जिनने जीवन में कभी मुनि का किया नहीं दर्श नाम सुना था बहुत गुरू का । इ सीलिए आ पहुँचे परीक्षणार्थ, बैठे निकट बिना नमन किये ही कविताएँ पढ़ने लगे बिना आज्ञा लिए ही, गुरू ने नज़र उठाकर देखा तक नहीं प्रत्येक पृष्ठ में कविता अध्यात्म रस भरी प ढ़ने में मस्त हो गये पण्डित वहीं। पूछने लगे जाते वक्त क्या मैं ले जा सकता हूँ आध्यात्मिक कविता की यह कॉपी? निर्मोही गुरू ने एक मुस्कान दी... समझ गये वह, मिल गई स्वीकृति बगल में दबाये कॉपी ले जा रहे घर की ओर... तभी आ गये एक ब्रह्मचारीजी उधर। देखते ही कॉपी पहचान गये वह किससे पूछकर ले जा रहे हो यह? इधर-उधर ताककर बोले पण्डितजी पूछ लिया मैंने आपके गुरू से । स्वीकृति ले ली मैंने उनसे, झट हाथ में ले कॉपी एक ही प्रति थी मूकमाटी करके दूसरी कॉपी थमा दी। पण्डितजी ने सुना जब हो रहा उसी “मूकमाटी' का विमोचन मान का हुआ अवसान समर्पण भाव का हुआ जागरण प्रथम बार जीवन में, संत विद्यासागर गुरु-चरण में झुका दिया सिर श्रद्धापूर्वक किया दर्शन, बोले गद्गद् स्वर में धन्य हुआ मम जीवन जो मिले आपसे भावलिंगी श्रमण, अज्ञानी एक भजन लिखकर भी कर्ता बन ममत्व रखता उसमें धन्य हैं आप विज्ञ महात्मा! पाँच सौ पृष्ठ लिखने पर भी नहीं कर्तापन!! जिनका उपयोग ज्ञानमयी मातृभूमि आत्मा में ही रमता । भेदज्ञान-जल से शुष्क राग-द्वेष की मरुभूमि में नहीं भटकता, दुर्लभता से पाई यह शरण... मान गया मैं आज पंचमकाल में भी होते हैं सच्चे श्रमण; आचार्यश्री के गुणों के प्रति होकर के नम्रीभूत श्रद्धा से अभिभूत स मर्पित की भावाञ्जलि...।
  11. बहती सरिता को कोई रोक न पाता आसमान को आँचल में कौन बाँध पाता ! श्रावक मनाते निवेदन करते पलक पावड़े बिछा देते, पर गुरू-पद आगे बढ़ जाते रूआँसे श्रावक घर लौट आते... गोंदिया बालाघाट से पधारे घंसोर चमत्कार हो गया जनता हुई आत्म विभोर... वर्षों से खारे जल के नाम से बदनाम था कूप आज मिश्री-सम मिष्ट जल में हुआ परिवर्तन, हुआ जब आहार गृह में चरणोदक को डाला जो कूप में उधर मीठे जल के स्रोत फूट पड़े ज्ञात होते ही कूप की ओर लोग दौड़ पड़े... जिनके स्पर्श से प्राणी का क्षार हृदय भी हो जाता क्षीर-सा फिर भला पानी का क्षारपना क्यों न हो क्षीर-सा!! जबलपुर वासियों का अंतर्नाद करके श्रवण कहीं न रूके संत के चरण जिधर देखो उधर दुल्हन-सा लग रहा महानगर बच्चों में कौतुहल, श्रावकों में उत्साह नारियों की उत्सुकता का कहना ही क्या! ज्यों वीर के आगमन की चंदना देख रही राह... घर-घर में आबाल वृद्ध-गण। ‘ विद्यासागर'- ‘विद्यासागर' गा रहा कण-कण... चल पड़े चरण पिसनहारी मढ़िया की ओर… सभी जिनालय का करके दर्शन । आ विराजे गुरुकुल- भवन मढ़िया का समूचा परिसर भर गया सौभाग्यवती की गोद की तरह। चतुर्थकाल के दिखने लगे नज़ारे सैकड़ों की तादाद में लगे चौके ऐसा लगा मानो आश्विन की नयी सुहानी धूप में वैशाख की सन्नाटे-भरी तपती दोपहरी में उमड़ आये हों घटाटोप बादल-दल। गुरु वचनामृत सुन श्रोता धन्य! व्यवस्थापक स्वयं को मानते धन्य! नगर के नर-नारी सभी धन्य! प्रवचन में यथार्थ ज्ञान के भंडारी शांत भाव के अधिकारी गुरू-मुख से अध्यात्म बरसने लगा... चातक की भाँति टकटकी लगाये श्रद्धा से जो श्रवण करने आये उन श्रोताओं का मिथ्यात्व विनशने लगा। यथार्थ ही है। ज्ञानी स्वानुभव के समंदर में आनंदानुभूति-जल को पीकर होते तृप्त, अज्ञ संसार-समंदर में वैकारिक जल को पीकर होते हैं संतप्त। स्व तत्त्व की समझ से पर तत्त्व की परख से भव्यों का समकित सुमन विकसने लगा जीवन का सार दिखने लगा । भक्तों को यह ज्ञात हो गया कि आत्मनिधि-सी कोई निधि नहीं, गुरू समागम-सी कोई सन्निधि नहीं, अन्य निधि है पराधीन, आत्म निधि है स्वाधीन पराधीनेषु नास्ति शमसंपत्तिः'' दिखलाई गुरु ने जो निधि । मिलती इसी से स्वात्मोपलब्धि! इस प्रसंग में पंक्तियाँ उभर आईं ज्ञानधारा में गुरोरेव प्रसादेन लभ्यते ज्ञानलोचनः" इसी मढ़िया की सौंधी माटी पर गुरू की अनुभूति भरी लेखनी ज्ञान की स्याही में डूबकर आनंद पृष्ठों पर उकेर कर प्रगट हो आयी 'मूकमाटी' के रूप में। रात के गहन सन्नाटे में भाव-समुद्र लहराता। एकाकी अपने आप में मन गहन चिंतन में डूब जाता... प्रातः तरणि” के आने पर शब्दों के पहनाकर अंबर उतार लेते स्मृति को पृष्ठों पर... प्रत्येक दिन नव्य नूतन कविताएँ... लेखनी की नोंक पर क्रीड़ा करते शब्द भावों से भरी भाषा की विविध भंगिमाएँ पढ़ते ही मन होता तृप्त, माटी के मिष चेतना को मिल जाता बोध! मूक होकर भी है मुखरित महाकाव्य जगाता है अंतर्शोध आत्मोन्नति का कारण अनूठा काव्य है यह! जन-जन के लिए श्राव्य है यह। कर रहे थे जब पनागर से जबलपुर विहार भक्तों की भारी भीड़ में ‘आचार्य भगवंत' की दाहिनी कोहनी में लग गई तेजी से चोट तत्क्षण आ गई सूजन सारे भक्त गण हो गए बेचैन अपनी लापरवाही पर कर रहे पश्चाताप, किंतु निर्मम गुरुवर के मन में किञ्चित् भी नहीं ताप मुख से निकली नहीं 'आह'! देह-नेह के त्यागी चलते चले जा रहे थे सहजता से मढ़िया जी तक आ गये थे हाथ की ललाई देख लगा निश्चित ही हड्डी टूटी है ऐसी स्थिति में भी लेखनी ले मूकमाटी की लिखाई चल रही है... एक कवि लेखक से रहा न गया मंद स्वर में आखिर वह कह गया गुरूदेव! थोड़ा आराम दे दो हाथ को मुस्कुराते हुए बोले माना कि पर है यह गात भले ही साथ न दे यह हाथ, लेकिन चेतना है जब तक मेरे साथ। परम के विषय में लिखता रहूँगा निज के लिए लखता रहूंगा। तभी सामायिक के काल में एक अविवेकी भक्त ने हल्दी-चूना लगा, कर दी सिकाई सामायिक में लीन थे मुनिराई। बाद में देखा संघस्थ शिष्यों ने बड़े-बड़े फोले पड़ गये हाथ में, जल गई चमड़ी वेदना थी भारी पर आचार्य श्री के चेहरे पर एक भी सलवट नहीं आई धन्य हो! ऐसे निर्मोही संत!
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