शाम ढले वैय्यावृत्ति करते-करते
बोल गया एक शिष्य
मेरी अंतिम श्वास तक
इस जीवन की शाम न हो तब तक,
गुरूदेव आपका प्रत्यक्ष बना रहे संयोग य
ही है कर जोड़ आपसे अनुरोध…
क्योंकि
भूखे के लिए भोजन आवश्यक है।
प्यासे के लिए जल आवश्यक है।
रोग के लिए औषध आवश्यक है।
तो सम्यक् मरण के लिए
आप जैसे गुरु का
समागम आवश्यक है...
सुनते ही बात शिष्य की
मुखरित हुए आचार्यश्री
जब तक तुम्हें भासित होता रहेगा
मेरा संयोग,
तब तक मिल न पायेगा तुम्हें
निज स्वभाव का सहयोग,
इसीलिए अब करो कुछ ऐसा
स्थिर कर त्रियोग हो समयोग,
स्वभाव में संयोग का अभाव हो अनुभूत
तभी गुरु का संयोग हो फलीभूत।
कहकर घंटों डूबे रहे स्वयं में
निज ज्ञानबाग में विचरण कर
वैराग्य की फुहार पाकर
स्वानुभूति-कोयल की कुहुक श्रवण कर
निज में ही आनंदित रहते
स्वातम में नित रमते...
क्योंकि
अपनों के घेरे में
अंधेरा ही अंधेरा है...
और अपने घर में उ
जाला ही उजाला है।
भगवंत-पथ पर चलते
आध्यात्मिक रस चखते
जानते वे अंतर्मना कि
‘परायत्तं परोक्षं स्वायत्तं प्रत्यक्ष
पराधीन है परोक्ष
स्वाधीन है प्रत्यक्ष,
अक्ष का लक्ष्य है जब मेरा
तब पर का पक्ष ले
वर्द्धन नहीं करना जग-फेरा
अक्ष अर्थात् आत्मा के प्रति
प्रीत रहे मेरी
यह स्वाधीन परिणति ही मीत है मेरी।