घटना चक्र है समूचा जीवन
शुभ-अशुभ घटित होता क्षण-क्षण
विद्याधर की जननी
नारी पर्याय की सर्वोत्कृष्ट अवस्था धारी
‘आर्यिका श्रीसमयमतिजी'
विगत आठ वर्षों से थी साधनारत साध्वी
सन् चौरासी में हुई दिवंगत
शांत भाव से सल्लेखना पूर्वक।
लेखन कार्य था अंतिम छोर पर
तभी मालवा से एक पण्डित आये वहाँ पर
जिनने जीवन में कभी मुनि का किया नहीं दर्श
नाम सुना था बहुत गुरू का । इ
सीलिए आ पहुँचे परीक्षणार्थ,
बैठे निकट बिना नमन किये ही
कविताएँ पढ़ने लगे बिना आज्ञा लिए ही,
गुरू ने नज़र उठाकर देखा तक नहीं
प्रत्येक पृष्ठ में कविता अध्यात्म रस भरी प
ढ़ने में मस्त हो गये पण्डित वहीं।
पूछने लगे जाते वक्त
क्या मैं ले जा सकता हूँ
आध्यात्मिक कविता की यह कॉपी?
निर्मोही गुरू ने एक मुस्कान दी...
समझ गये वह, मिल गई स्वीकृति
बगल में दबाये कॉपी
ले जा रहे घर की ओर...
तभी आ गये एक
ब्रह्मचारीजी उधर।
देखते ही कॉपी पहचान गये वह
किससे पूछकर ले जा रहे हो यह?
इधर-उधर ताककर बोले पण्डितजी
पूछ लिया मैंने आपके गुरू से ।
स्वीकृति ले ली मैंने उनसे,
झट हाथ में ले कॉपी
एक ही प्रति थी मूकमाटी
करके दूसरी कॉपी थमा दी।
पण्डितजी ने सुना जब
हो रहा उसी “मूकमाटी' का विमोचन
मान का हुआ अवसान
समर्पण भाव का हुआ जागरण
प्रथम बार जीवन में,
संत विद्यासागर गुरु-चरण में झुका दिया सिर
श्रद्धापूर्वक किया दर्शन,
बोले गद्गद् स्वर में
धन्य हुआ मम जीवन
जो मिले आपसे भावलिंगी श्रमण,
अज्ञानी एक भजन लिखकर भी
कर्ता बन ममत्व रखता उसमें
धन्य हैं आप विज्ञ महात्मा!
पाँच सौ पृष्ठ लिखने पर भी नहीं कर्तापन!!
जिनका उपयोग ज्ञानमयी
मातृभूमि आत्मा में ही रमता ।
भेदज्ञान-जल से शुष्क
राग-द्वेष की मरुभूमि में नहीं भटकता,
दुर्लभता से पाई यह शरण...
मान गया मैं आज
पंचमकाल में भी होते हैं सच्चे श्रमण;
आचार्यश्री के गुणों के प्रति
होकर के नम्रीभूत
श्रद्धा से अभिभूत स
मर्पित की भावाञ्जलि...।