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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञानधारा क्रमांक - 116

       (0 reviews)

    जगतवंद्य हैं ऐसे संत

    धन्य हैं ये भावी भगवंत

    जो अतीत के विकल्प से परे हैं

    वर्तमान के आनंद से भरे हैं,

    इसीलिए कुछ अनागत को जान लेते हैं

    यह घटना साक्षी है

    इस बात की

     

    जब श्रावक ने किया

    गुरूवर का पड़गाहन,

    ले गया कक्ष में

    की भक्ति से पूजन

    गुरु-चरण पा फूला न समाया,

    पर ज्यों ही सात मिनट में छोड़ अंजली

    कर लिया आहार संपन्न।

    उसका हृदय भर आया

    रोते-रोते गुरू-पद में सिर टेक

    बोल गया वह

    तनिक तन का भी ख्याल करिये...
    अपना नहीं तो

    हम भक्तों का ध्यान रखिये!

     

    श्रावक की बात सुनकर भी

    बिना बोले ही

    मुस्कान मात्र से संतुष्ट कर,

    चले आये मंदिर के द्वार

    साथ ही आ गया सारा परिवार...

     

    ज्यों ही निकल आये घर से

    छत गिर गई ऊपर से

    अचरज से देख रही सारी जनता

    यह कैसा है करिश्मा...

    भावी घटना को कैसे जान लिया?

    तरह-तरह की करने लगे बातें

    आश्चर्य से भर आयी सबकी आँखें…

     

    इसी श्रावक के यहाँ आहार को आये;

    क्योंकि

    मरण से बचाना था उन्हें,

    शीघ्र आहार कर आये

    इसीलिए कि

    स्वयं को अकालमरण से बचना था इन्हें

    धन्य है गुरु की विशुद्ध परिणति

    परिमार्जित प्रबुद्ध मति!

     

    दो तरह के विकल्प आते हैं

    लौकिक व्यक्ति में

    एक वह कि

    ऐसा सटीक लिखूँ कि

    लोग पढ़ने को मजबूर हो जाये,

    दूसरा यह कि

    ऐसा जीवन जीऊँ कि

    मुझ पर लिखने को

    लोग मजबूर हो जायें,

    किंतु अध्यात्मयोगी गुरूवर कहते हैं कि

    पढ़ने योग्य लिखा जाये इसकी अपेक्षा

    बेहतर है लिखने योग्य किया जाये।”

     

    वास्तव में

    दीपक को स्वयं के बारे में

    आवश्यकता नहीं पड़ती

    बोलने की,

    दीपक के विषय में

    बोल देता है प्रकाश स्वयं ही।

    संत को अपने बारे में

    आवश्यकता नहीं बोलने की

    उनका सदाचरण ही

    बोल देता है उनके बारे में।

     

    ज्ञानधारा के पास नहीं हैं कर्ण

    फिर भी सुना-अनसुना

    कर लेती है वह श्रवण,

    नहीं है उसके पास नयन

    फिर भी कर लेती है दरश,

    नहीं हैं उसके पास घ्राण

    फिर भी आ जाती है महक,

    नहीं है उसके पास रसन

    फिर भी कर लेती है रसास्वादन,

    नहीं है उसके पास परस

    फिर भी कर लेती है स्पर्शन,

    नहीं है उसके पास मन

    फिर भी रखती है वह स्मरण |

     

    स्मृतियाँ ताजी हो आयीं उसकी

    बात पुरानी है गिरनार के विहार की

    पद-विहार करते-करते

    दायें पैर के अँगूठे में।

     

    अचानक हो गई भयंकर पीड़ा...

    धरती से भी छू जाये तो हो असह्य वेदना

    फिर भी चलते रहे लगातार

    भीतर में चलती रही स्वसंवेदना…

     

    शिष्यों ने गुरु की पीड़ा जानकर

    अनेकों चिकित्सकों को बुलवाकर

    कराया उपचार, किंतु तनिक न मिली राहत

    परिश्रम व्यर्थ रहा निस्सार...

    तभी वहाँ दर्शनार्थ आये कहा एक भक्त ने

    “बड़ी कृपा होगी मुझ पर

    बस एक बार दें मुझे सेवा का अवसर

    इस दर्द को ठीक कर सकता हूँ मैं

    तकलीफ किञ्चित् भी नहीं होगी उन्हें

    निवेदन है आप विश्वास रखें मुझ पे।"

     

    देख उसके भावों की दृढ़ता

    भाषा की विनम्रता

    सौंप दिये चरण निश्चिंतता से

    प्रथमतः परोक्ष ही प्रणाम कर

    आज्ञा ली उसने अपने गुरु से,

    चरण को सीने से लगा दिया

    दोनों आँखों को मूंद लिया।

     

    लगे सब सोचने कि

    अब यह अँगूठे को खींचेगा

    कहीं दर्द तो नहीं बढ़ा देगा?

    लेकिन कुछ किया नहीं उसने

    श्रद्धा से सहलाया उसने

     

    आँखें खोल बोला वह

    दर्द रह गया क्या अब?

     

    सभी जन थे अति विस्मित

    चलकर देखा गुरुवर ने

    दर्द चला गया जड़ से

    चलने में वेदना नहीं किञ्चित्,

    घेर लिया लोगों ने उसे

    आखिर यह चमत्कार सीखा किससे?

     

    कुछ कहा नहीं उसने

    ज्यों ही

    ऊपर के वस्त्र उतार दिये बदन से,

    सबने पढ़ा अपनी आँखों से

    लिखा था उसके सीने पे

    “आचार्य विद्यासागरजी महाराज की जय”

    इन्हीं की कृपा से करता हूँ इलाज

    यही है मेरी चिकित्सा का राज़!

     

    हतप्रभ हुई शिष्य मण्डली

    एकसाथ फूटी स्वरावली,

    जिनका नाम खुदा है तुम्हारे सीने में

    वह यही हैं तुम्हारे सामने!

     

    सुनते ही वह लिपट गया गुरु के चरणों से...

    खोज रहा था जिन्हें वह वर्षों से,

    परोक्ष में ही सुनकर गुरु की वार्ता

    हो गई जिसे अपूर्व आस्था

    आज मिल गये वह गुरू-चरण...

    गुरु की कृपा ने ही

    गुरु को निरोग कर दिया,

     

    अपनी झोली में उसने

    सातिशय पुण्य भर लिया।

    सभी को श्रीराम का स्मरण हो आया

    नदी में बाँध हेतु पत्थर डालते राम
    तत्काल वह डूब जाता,

    शेष नल-नील आदि भक्तगण

    लेकर राम का नाम

    डालते पत्थर तो तैर जाता,

    राम-नाम से मंत्रित पत्थर भी तैरता है।

    राम के हाथ से छूटा पत्थर भी डूबता है।

     

    गुरु-नाम के स्पर्श से रोग भी भाग जाता है।

    सोया हुआ भाग्य भी जाग जाता है,

    ‘स विभवो मनुष्याणां यः परोपभोग्यः’

    मानव का वही धन है सही

    जो अन्य के लिए हो उपयोगी।


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