सुरखी से विहार करते समय
आ गये ग्रामवासी करने निवेदन
भीषण गर्मी है भगवन्!
विहार मत कीजिए गुरूराज
कल का उपवास आज का पूरा अंतराय!
ऊपर से धूप सघन
नीचे धरती की तपन
यही चाहते थे सभी शिष्य-गण,
किंतु दृढ़ संकल्पी महाश्रमण
ज्यों ही विहार करने हुए उद्यत
शिष्यों ने कहा विनम्रता से
विहार करना है तो कर लीजिए
पर हमसे पगतली में कुछ लगवा लीजिए।
खुले आसमान को देख
कहने लगे गुरूदेव
नीचे से लगाना चाहते हो या
ऊपर से गिरवाना चाहते हो?
कहते हुए देकर निश्छल मुस्कान
ले पिच्छी-कमण्डल हुए गतिमान…
दो किलोमीटर भी चले नहीं कि
मंद-मंद हवाएँ चलने लगीं...
पिघल गया मेघेन्द्र का हृदय
लो! जल की बूंदें बरसने लगीं...
कुछ ही देर में तपन शांत हुई धरा की,
देवों ने भी प्रशंसा की गुरु तपस्या की
शिष्य-मण्डली आश्चर्य चकित थी।
गुरू को पूर्व से ही कैसे यह बात ज्ञात थी!
जिनके शब्दों का ध्यान
सुरगण भी रखते हैं।
आशीष को तरसते हैं,
इन्द्रियजयी, दृढ़ निश्चयी
देख परिणति ज्ञानमयी
प्रकृति भी कुछ कह गई
काँच के टुकड़े मिलते हैं हर जगह
ढूंढना पड़ता है हीरे को!
मिल जाते हैं दुर्जन हर जगह
ढूँढ़ना पड़ता है सज्जनों को!
अशांत मन असंत दिख जाते सर्वत्र
शांतमना संत के दर्शन हैं दुर्लभ!
चुपके से हर-हर हवाओं के बहाने
गुरू-चरणों को छू गयी प्रकृति...