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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. परम पूज्य आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के दीक्षा के 50 वर्ष पूर्ण होने पर उनकी दीक्षा स्थली अजमेर में परम पूज्य मुनि पुंगव श्री सुधासागर जी महाराज के मंगल आशीर्वाद एवं प्रेरणा से संस्थापित 71 फुट ऊंचा भव्य कीर्ति स्तंभ का लोकार्पण हुआ | जैन समाज के श्रेष्ठी पाटनी परिवार (आर के मार्बल्स समूह) को इस कीर्ति स्तम्भ के पुण्यार्जन का लाभ मिला । कीर्ति स्तम्भ के साथ अन्य लोकार्पण: बड़ा दड़ा संयम स्वर्ण भवन का भी लोकार्पण हुआ डाक टिकिट हुआ जारी आचार्य श्री के हायकू एवं विचारों पर विशेष डायरी इस सम्पूर्ण कार्यक्रम को आप यहाँ देख सकते हैं : समाज में आरके मार्बल जैसे परिवार की जरुरत-जैन मुनि सुधासागर। नारेली तीर्थ का मुख्य द्वारा आचार्य विद्यासागर महाराज के नाम से बनेगा। स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल होगा जीवन चरित्र 30 जून को अजमेर के महावीर सर्किल के निकट पंचायत बड़ धड़ा की नसिया के परिसर में आचार्य विद्यासागर महाराज के 71 फिट ऊंचे कीर्ति स्तंभ का लोेकार्पण जैन मुनि सुधासागर महाराज ने किया। इसी स्थान पर 50 वर्ष पूर्व आज के दिन ही बालक विद्यासागर ने आचार्य ज्ञान सागर महाराज से दीक्षा ग्रहण की थी। इस स्तंभ पर कोई 2 करोड़ रुपए की राशि खर्च हुई है। कीर्ति स्तंभ का सम्पूर्ण निर्माण कार्य आरके मार्बल और वंडर सीमेंट के मालिक अशोक पाटनी की ओर से करवाया गया है। इसलिए लोकार्पण समारोह में पाटनी परिवार के सदस्यों का अभिनंदन भी किया गया। सुधासागर महाराज ने कहा कि पैसा तो बहुत लोगों के पास होता है। लेकिन ऐसे लोग कम होते हैं जो धर्म के कार्यों पर खर्च करते है। आचार्य विद्या सागर महाराज के कीर्ति स्तंभ का निर्माण कर अशोक पाटनी ने अजमेर के धार्मिक महत्व को और बढ़ाया है। आज समाज में पाटनी परिवार जैसों की जरुरत है। अशोक पाटनी ने बिना कहे कीर्ति स्तंभ का निर्माण कर समाज के सामने उदाहरण प्रस्तुत किया है। अब अजमेर आने वाले लोग इस कीर्ति स्तंभ का अवलोकन भी करेंगे। इस अवसर पर पाटनी का कहना रहा कि मैं आज जो कुछ भी हंू उसके पीछे आचार्य विद्यासागर महाराज और जैन मुनि सुधासागर महाराज का आशीर्वाद है। नारेली तीर्थ का द्वारः समारोह में अजमेर प्राधिकरण के अध्यक्ष शिव शंकर हेड़ा ने घोषणा की कि नारेली तीर्थ स्थल का मुख्य द्वार आचार्य विद्या सागर महाराज के नाम पर बनाया जाएगा। द्वार के निर्माण का कार्य प्राधिकरण करेगा। वहीं स्कूली शिक्षा मंत्री देवनानी ने कहा कि अगले शिक्षा सत्र में आचार्य विद्यासागर महाराज की जीवनी को भी पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा। (एस.पी.मित्तल) (30-06-18)
  2. ?३० जून २०१८, शनिवार? ⛳आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के ५० वे दीक्षा संयम स्वर्ण महोत्सव के उपलक्ष्य में समस्त पाटनी परिवार (आर के मार्बल्स) द्वारा ⛳फव्वारा सर्किल स्थित बड़े धड़े की नसियां, जिला अजमेर, राजस्थान में⛳ ?६५ फीट ऊँचे कीर्तिस्तम्भ का निर्माण कराया गया है? ?इस कीर्तिस्तम्भ का लोकार्पण ⛳मुनिश्री सुधासागर जी महाराज ⛳मुनिश्री महासागर जी महाराज ⛳मुनिश्री निष्कम्पसागर जी महाराज ⛳क्षुल्लकश्री गंभीरसागर जी महाराज ⛳क्षुल्लकश्री धैर्यसागर जी महाराज के पावन सानिध्य में श्री कंवरीलाल जी पाटनी, श्री अशोक जी पाटनी, श्री सुरेश जी पाटनी, श्री विमल जी पाटनी, एवं समस्त पाटनी परिवार और अन्य गणमान्य श्रावकों द्वारा ३० जून २०१८, शनिवार को किया जाएगा ?कीर्तिस्तम्भ की विशेषता? ⛳यह कीर्तिस्तम्भ आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज की दीक्षाभूमि पर स्थित है ⛳इस कीर्तिस्तम्भ पर आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के जन्म से लेकर बाल्यकाल, किशोरावस्था, दीक्षा एवं संयम जीवन के अनेक जीवन वृतांत पत्थर में उत्कीर्ण किए गए हैं ⛳इस कीर्तिस्तम्भ पर आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा शिष्यों को दी गई दीक्षा के दृश्यों को भी पत्थर में तराशा गया है ⛳इस कीर्तिस्तम्भ पर आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज का पूर्ण जीवन परिचय भी तराशकर लिखा गया है ⛳यह कीर्तिस्तम्भ मुनिश्री सुधासागर जी महाराज की प्रेरणा और आशीर्वाद से बनाया गया है ⛳इस कीर्तिस्तम्भ पर अद्वितीय नक्काशी और शिल्पकला का सृजन किया गया है ⛳यह कीर्तिस्तम्भ भारत का सबसे ऊँचा कीर्तिस्तम्भ है ⛳ इस कीर्तिस्तम्भ की नींव (फ़ाइल फाउंडेशन) जमीन के नीचे ४५ फीट तक है ⛳यह कीर्तिस्तम्भ बयाना भरतपुर के बंसी पहाड़पुर के पत्थर (पिंक स्टोन) से बनाया गया है ⛳इस कीर्तिस्तम्भ के निर्माण में एक वर्ष का समय लगा ?आप सभी श्रावक इस कीर्तिस्तम्भ के लोकार्पण के कार्यक्रम में सहभागी होकर पुण्यार्जन करें? ???हम समस्त पाटनी परिवार के इस पुण्य कार्य की अनुमोदना करते हैं एवं समस्त पाटनी परिवार को ?जिनशासन संघ? की ओर से शुभकामनाएं और बधाई ???
  3. कैसी लगी आपको फ़िल्म ? कौनसा दृश्य आपको सबसे पहले याद आ रहा हैं
  4. थूबौन चौमासे के लिए आ रहे गुरूदेव पद विहार करते हुए... क्षेत्र के समीप तब सात फीट के अजगर ने रोका पथ, तभी रास्ता बदल दिया गुरूवर ने झट आ गया वह भी वहीं पे बार-बार रोककर रास्ता दे रहा था संकेत सही, फिर भी किया चौमासा वहीं तो आचार्य श्री अस्वस्थ हुए बहुत साथ ही शिष्य भी। जिस संत के पास मन की अडिगता हृदय की निश्छलता वचनों में मृदुता और स्वभाव की है शीतलता, उनकी शरण में देव, मनुज ही क्या क्रूर पशु भी आकर होते शांत! स्मृति दिलाती है यह घटना जब गुरूदेव का थूबौन में था चौमासा अर्द्ध रात्रि का काल था यतिवर कर रहे थे ध्यान...। तभी माली खिड़की बंद करने आया देखते ही अदभुत दृश्य विस्मित हो गया आँखें रह गई फटी-सी नाग-नागिन का जोड़ा आचार्य श्री के चरणों में शांत बैठा दोनों की आँखों से निःसृत किरणों की अदभुत चमक! सीधी गुरु नयनों से कर रही संपर्क अहा! जहरीले जीव भी निजामृतपायी गुरु छवि को चाहते हैं निहारना तो फिर भक्तों का क्या कहना!! वही थूबौन क्षेत्र प्यारा माली ने देखा दूसरा नज़ारा चार बज रहा था प्रातः का ज्यों ही द्वार खोला धीरे से गुरु कक्ष का उसे विश्वास नहीं हुआ अपनी ही आँखों पर, कहीं स्वप्न तो नहीं देख रहा यहाँ पर... आचार्य श्री ध्यान में थे विराजमान, बालिश्त भर का एक चक्र दैदीप्यमान घूम रहा लगातार सिर से पैर तक बार-बार... ‘चक्र तो अचेतन है मात्र निश्चित इसमें किसी चेतन का है हाथ यूँ सोचकर माली देखता रहा एकटक आखिर यह कौन हो सकता है? कुछ निकट जाकर पूछता है ‘कौन है यहाँ?’ सुनते ही आवाज़ प्रकाश खो गया लो सुप्रभात हो गया। माली सोचता रह गया; क्योंकि फिर वह प्रकाश लौटकर कभी नहीं आया। समझ गया रहस्य यह... गुरु की अध्यात्म-तरंगों से प्रभावित वह मनुज सामान्य का कार्य नहीं होगा कोई देवता ही! सच्चा मोती पाने को उत्सुक गोताखोर नहीं होता आकर्षित समंदर के तट पर बिखरी चमकीली सीपों से, नहीं होता भयभीत बीच में आने वाले मगरमच्छों से वह तो अरुक चला जाता सागर तल तक अपने दृढ़ लक्ष्य के बल पर… उसी भाँति पद, प्रसिद्धि और प्रशंसा से परे अपने सम्यक् लक्ष्य तक उत्तम गंतव्य तक महिमावंत मंतव्य तक कर्म विनाशीक कर्तव्य कर आचार्य गुरूवर हर घड़ी गतिमान है... लेखनी रूकती नहीं दयानिधान गुरू के विषय में लिखने को उतावली हो रही... एक सज्जन था अति निर्धन चरणों में करने आया दर्शन, गुरूवर विराजे थे अकेले झिझकते हुए उसने वचन के द्वार खोले कैसे कटें मेरे तीव्र करम? आवश्यकताओं के लिए भी जुटा नहीं पाता धन, खाने को पर्याप्त मिलता नहीं अन्न पहनने को पास नहीं अच्छे वसन मुझ पर कृपा-दृष्टि करिये! आशीष की वृष्टि करिये!! करुणापूरित नयनों ने देखा स्नेह से पुण्य योग से झंकृत हुए गुरु-वचन “प्रतिदिन दान दिए बिना सोना नहीं और दान देकर रोना नहीं, आशीर्वाद है तुम चिंता न करो!” जिनधर्म पर श्रद्धा बनाए रखो विचारों में डूब गया वह... कुछ तो नहीं मेरे पास धन फिर कैसे करूँ दान? यूँ सोचते-सोचते मिल गया समाधान जो मैं करूँगा भोजन उसी में से दूँगा कुछ दान। बस प्रतिदिन चलता रहा सिलसिला.. कुछ ही दिनों में सब अच्छा होने लगा... भावना ही भवनाशिनी है और भावना ही भववर्धिनी है लो! गुरू के प्रति दृढ़ श्रद्धा से अंतर में दान भावना से... दो वर्ष पूरे बीते नहीं कि कुबेर ने खोल दिया भंडार... हो गया इतना धनवान कि समुचित क्षेत्र में देने लगा दान! जिसने छोड़ दी थी जीवन की भी आस वह औरों का बन गया मार्गदर्शक आज, छिंदवाड़ा के विहार में अपने वाहन से आ बोला वह चमत्कार हुआ गुरु महाराज का यह जो क्षणभंगुर जड़ धन से ही नहीं चैतन्य शाश्वत धन से बना देते धनाढ्य वह!
  5. इसीलिए तो मन को चेतन में लगाये रखते स्वयं ज्ञायक की धुन में लगे रहते स्वात्मनिष्ठ होने से अहर्निश अंतर में चिन्मय चेतना की चिदाभा दिव्य होती जा रही... एक रात शिष्य मुनि शयन कर रहे गुरु के कक्ष में... ढाई बजे अनायास नींद खुली तो देखा यह कैसा अदभुत प्रकाश है पहले तो था घना अंधकार अब कहाँ से आया उजाला वर्तुलाकार? क्या सूरज धरा पर आया है या किसी ने अनेकों दीयों को जलाया है? दिख रहा इसमें मानव का आकार गौ...र से देखा ज्यों ही... दिख गये ध्यानलीन आचार्यश्री, श्रद्धा से नमन कर लिया शास्त्रों में पढ़ा था कभी... महान संतों का होता दिव्य आभामण्डल आज प्रत्यक्ष दर्शन कर लिया। ज्ञानधारा ने इस दृश्य को ज्ञेय बना अपनी लहरों को प्रेषित कर शिवगामी गुरुपद का स्पर्शन कर लिया।
  6. अमरकंटक से पेन्ड्रा विहार में अचानक आचार्यश्री के पाँव में होने लगा असहनीय दर्द, कुछ दूरी पर बैठ गये शिष्य इसीलिए कि- गुरु के ध्यान में न आये कोई विघ्न, निस्पृही संत हुए स्वयं में लीन तभी एक व्यक्ति आया। हाथ में छोटी-सी लकड़ी लिए सिर पर पगड़ी बाँधे हुए करने लगा हठ “गुरु भगवंत के दर्शन करके ही जाऊँगा किसी प्रकार का विघ्न नहीं करूंगा मात्र इस लकड़ी से पैर को छूने दो इतनी-सी भावना पूरी कर लेने दो।” शिष्यों ने सोचा लाया है जड़ी-बूटी, सोचा... इसे जाने दो जाकर किया भावों से प्रणाम ज्यों ही लकड़ी पैर से स्पर्श की तत्काल गायब हुआ दर्द ही! बाहर आया, देखा सबने लेकिन अदृश्य हो गया पल में, ढूँढा आसपास हर जगह लेकिन कहीं मिला नहीं वह… समझ गये सब मनुज नहीं, था देव वह! “अहो! व्रतमिदं जैनं देवानामपि पूजितम्” चाहते जिन्हें देव मनुज सभी, किंतु गुरु की कुछ चाहत नहीं तन-मन से परे निज चेतन की भी चाहत नहीं, जो अपना ही है उसकी चाह क्या? और जो अपना है नहीं उसे अपनाना क्या? क्योंकि जान रहे हैं ये कि तन पराधीन है हवा, पानी, भोजन चाहिए इसे, चेतन स्वाधीन है वीतराग विज्ञान चाहिए इसे, मन स्वाधीन भी है पराधीन भी यदि है चेतन के पक्ष में तो स्वाधीन है यदि है तन के पक्ष में तो पराधीन है इसीलिए तो मन को चेतन में लगाये रखते स्वयं ज्ञायक की धुन में लगे रहते स्वात्मनिष्ठ होने से अहर्निश अंतर में चिन्मय चेतना की चिदाभा दिव्य होती जा रही...
  7. ज्ञानसागर जी की ज्ञानसाधना प्रतियोगिता दिनांक 1 जुलाई 2018 स्वाध्याय करे ज्ञानसागर जी ज्ञानसाधना प्रतियोगिता प्रारंभ https://vidyasagar.guru/pratiyogita/gyansadhna/ इस प्रतियोगिता में आप 3 जुलाई तक भाग ले सकते हैं
  8. कर सकते जो स्वयं का स्वयं से मिलन प्रभु की आज्ञा का पालन . प्रकृति भी करती विनम्रता से ऐसे संतों की आज्ञा का पालन, बाह्य चमत्कार से परे चैतन्य चमत्कार में रमे स्वानुभवी आचार्यश्री भवसागर की लहरों से बचकर ही किनारे-किनारे सँभल-सँभलकर संयम से चले जा रहे थे... चले जा रहे थे… पवित्र हो यदि मन तो आसमान की ऊँचाई से भी अधिक उन्नत हो सकता है, मलिन हो यदि मन तो नरक लोक से भी और नीचे तक जा सकता है, मन का दुर्गुण है यह कि करता स्व का विस्मरण पर का रखता स्मरण तभी तो रहता मलीन तन में सदा तल्लीन, किंतु संत निरखते नहीं तन को न ही चंचल मन को वे तो निरखते हैं नित जिन भगवन् सम निज चेतन को। संसारी विकारों में जीता है संन्यासी विकारों को जीतता है, सज्जन डरता है दुष्कर्म करने से दुर्जन नहीं, भोगी डरता है साधना से योगी नहीं, कोयला डरता है अग्नि परीक्षा से हीरा नहीं, मृदु पाषाण डरता है छैनी के प्रहार से प्रतिमा का पत्थर नहीं, पाप से परे रहते संत निडर हो स्वात्म में रमते भावी मुक्तिकंत! गुरु के जाप से कट जाते तत्क्षण ही पाप गुरू-भक्ति से भक्त को हो जाता पूर्वाभास सँभल जाता वह आगत संकट से, कितना ही तीव्र पापोदय हो घबराता नहीं वह गुरू-कृपा के प्रभाव से बुंदेलखंड के एक नगर का किस्सा है यह गुरु नाम का नित्य जाप करता था वह घर में थी सुंदर तस्वीर गुरू की। दीप जलाकर भाव से नमन करता था वह, एक दिन करते-करते जाप अंदर से आयी आवाज़ इस कक्ष का सारा कीमती सामान रख आओ दूसरे स्थान उठकर अचिन्त्य ने किया वही काम शाम ढली रात घिर आयी... अचानक अर्द्ध रात्रि के समय धू-धू कर आग लग गयी। ज्यों ही खुली नींद पत्नी जया जोरों से चिल्लायी माँ जागो! जागो माँ! सब कुछ जल गया सब कुछ लुट गया बर्बाद हो गये हम! रोती हुई पत्नी ने कहा अजी जागो! अभी तक सो रहे हो तुम! रखे थे जहाँ स्वर्णाभूषण डेढ़ करोड़ रुपया व कागज महत्त्वपूर्ण सब जलकर हो गया खाक हमारी तो जिंदगी हो गई साफ, दिलासा देते हुए बोला अचिन्त्य चिंता क्यों करती हो जया रोती क्यों हो माँ? अपना सब कुछ है अपने पास अपनी श्रद्धा पर रखो विश्वास। गुरूभक्ति से पहले ही हो गया मुझे आभास इसीलिए तो शाम को ही मैंने कक्ष कर दिया था खाली गुरु की महिमा है निराली! अरे! वे तो कर्मों की आग में जलते चेतन को बचाने की रखते हैं सामर्थ्य तो फिर गुरूभक्ति से जड़ धन को बचा लिया इसमें क्या है आश्चर्य? जिनकी पूजा कर हो जाते स्वयं पूज्य जिनकी वंदना से हो जाते स्वयं वंद्य, ऐसे महिमावंत गुरु की भक्ति में ज्ञानधारा लीन हुई स्वयं उछलती हुई ज्ञान-बिंदुओं के बहाने कह गई संत की महिमा कि छोटे से बड़ा तो पागल भी हो जाता है गर्दभ, डाकू, श्वान भी दिन बीतने पर हो जाता है बड़ा, किंतु श्रेष्ठ होने का संबंध न काल से है, न कल से है न समय से है, न शरीर से है अपितु समय का सदुपयोग करता हुआ समय अर्थात् निजात्मा जान ले अपनी शक्ति को पहचान ले वही है महात्मा! भविष्य का भगवान आत्मा-परमात्मा। जिनकी कृपा-दृष्टि मात्र से गूंगे भी हो जाते वाचाल करुणाभरी नज़र पा करके निर्धन हो जाते मालामाल लंगड़े की बदल जाती है चाल, बाह्य जगत की क्या बात करें? अंतर्जगत् में पाकर स्वयं को हो जाता वह निहाल! प्रत्यक्षीकरण हुआ इस बात का मुक्तागिरी की घटना से जब श्रीफल चढ़ाकर दर्शन किया, मूक बालिका सुकन्या ने भाव से... कोशिश कर रही आचार्य श्री से कुछ बोलने की करुणाभरी दृष्टि पड़ी उस पर गुरू की। किया संकेत गुरु ने जाओ वंदना करो पहाड़ की चल पड़ी वह पर्वत की ओर... मन में अपार वेदना लिए “हे प्रभो! मैंने आखिर कौन से पाप किये? ‘नमोऽस्तु' तक बोल नहीं पाई भक्ति भी ना कर पाई नहीं बोलना चाहती जगत से बस बोल सकूँ एक बार जगतगुरु से यही प्रार्थना है प्रभु आपसे” यूँ उत्तम भावना से भरकर पर्वतराज से उतरकर ज्यों ही पहुँची गुरु-चरण में अश्रु छलक आये नयन से... पढ़ ली गुरू ने आँसुओं की कहानी स्नेह से उँडेल दिया आशीर्वाद का पानी अवरूद्ध कंठ से वचन हो गये प्रवाहित जैसे गिरि से फूट गया हो झरना कोई... अठारह वर्ष की उम्र में आज प्रथम बार हो गया अदभुत चमत्कार… बोल गई सुकन्या ‘‘न...नमोऽस्तु” “आचार्य विद्यासागर महाराज की जय करुणा के सागर विद्यासागर महाराज की जय अनंत उपकारी विद्यासागर महाराज की जय मुक्तागिरि सिद्धक्षेत्र की जय-जय-जय” सच ही है गुरूकृपा से मूक भी हो जाते मुखर वाचाल भी हो जाते मौन! जो अनेक भाषाविद् माने जाते विद्वत्-प्रवर वे भी पूछते गुरु से आखिर ‘मैं’ हूँ कौन? शरणागत पा जाते सम्यक् समाधान पुलकित होते पाकर गुरु से ज्ञान। अदभुत थे वह प्रत्यूषा के क्षण सत्य था वह नहीं था स्वप्न जब गुरु के निकट पहुँचा एक भक्त, ध्यान में थे गुरू लीन वातावरण था शांत निःशब्द अधर थे बंद पूरी तरह निस्पंद... फिर भी मंद स्वर में ओंकारनाद... कहाँ से आ रही यह आवाज़? देखा इधर-उधर पर कुछ समझ नहीं पाया दूर...दूर... तक थी खामोशी वह संत के अति निकट आया, ज्यों-ज्यों आता गया समीप ओम् ध्वनि का स्वर बढ़ता गया अधिक; क्योंकि यह अनहद नाद कहते हैं जिसे अजपा जाप कहीं और से नहीं था ध्वनित, चिन्मय में डूबे संत की धड़कनों से जीवंत ध्वनि हो रही गुंजित, ग्रंथों में पढ़ा था कभी भक्त ने संतों के हृदय से उठती है यह झंकार आज हुआ इसका साक्षात्कार! साधक को सहस्रारचक्र की गहराईयों तक ले जाता है यह प्रतिध्वनित ओंनाद… जो मोह से बच गये वो मोक्ष के निकट पहुँच गये, जैसे-जैसे समीप होता है मोक्ष तत्त्व क्षरण होते हैं दुष्कर्म भी जैसे-जैसे प्रगट होता है देवाधिदेवत्व शरण में आते हैं देव भी! प्रथम बार गुरुवर आये सिद्धक्षेत्र नैनागिरि... शाम को लौट जाते सब श्रावक जब अपने-अपने घर तब गुरु को लीन देख ध्यान में रात के गहन सन्नाटे में... छम-छम बजती घुंघरुओं की स्पष्ट आवाज़ गुरु के कक्ष तक जाती... सुनी शिष्यों ने अपने श्रवण से। जैसे अभिन्नदशपूर्वी का अभिवादन करते देवतागण फूले न समाते वैसे ही सुरगण यहाँ नृत्यगान करते, किंतु दृष्टिगोचर नहीं होते। समझ गये वे कोई और नहीं ये गुरुदेव के भक्त हैं ये! दिन में मनुष्य तो रात्रि में देव आते।
  9. प्रारंभ हो चुकी थी वर्षा अति निकट था चौमासा नेमावर से हो गया विहार... खातेगाँव तक आये ही थे गुरु महाराज कि काली घनी मेघ घटाएँ छा गईं बारिश की झड़ी लग गयी जहाँ देखो वहाँ पानी ही पानी! खुश था वहाँ का हर प्राणी अब गुरुवर यहाँ अवश्य रूकेंगे चौमासा नेमावर में ही करेंगे। सारी समाज ने श्रीफल चढ़ाए पुल पर है बहुत पानी निवेदन है- यहीं रुक जाएँ... कुछेक पल मूंद ली आँखें कर ली स्वयं से मुलाकात, बाल तुल्य निश्छल मुस्कान ले पिच्छी-कमण्डल ले हाथ चल दिये यतिनाथ… आये पुल तक ज्यों ही देख पुल पर अथाह पानी नीले-नीले विस्फारित नयनों ने निरखा नीलगगन को... प्रकृति को दिया संकेत बिना खोले अधर को, संत का संदेश पा प्रकृति झटपट वर्षा को समेटती गुरु की आज्ञाकारिणी शिष्या-सी देखते ही देखते बंद हुई वर्षा सभी शिष्यों का मन हरषा, तभी संत ने उठाकर नज़र देखा नीचे पुल की तरफ दृष्टि पड़ते ही हुआ गजब चमत्कार भक्तों ने देखा अपनी आँखों से पानी हौले-हौले हो गया पुल के नीचे... गूँज उठी शुरू की जय-जयकार' हो गया सानंद इंदौर की ओर विहार।
  10. भले ही महावीर नाम हो बच्चे का, किंतु देखते ही छिपकली को भाग जाये तो वीर कैसा? भले ही अर्थ नाम हो पैसे का, किंतु अनर्थ के गर्त तक ले जाये तो अर्थ का अर्थ कैसा? जीवन के अर्थ से ही कर दे वंचित वह व्यर्थ है पैसा; क्योंकि अर्थ बढ़ने से... नींद कम, बेचैनी ज्यादा बढ़ती है पवित्रता कम, कल्मषता ज्यादा बढ़ती है नैतिकता कम, विलासिता ज्यादा बढ़ती है सुविधा कम, दुविधा ज्यादा बढ़ती है मित्रता कम, शत्रुता ज्यादा बढ़ती है निडरता कम, भयभीतता ज्यादा बढ़ती है, किंतु वीतरागता के बढ़ने से बढ़ती है सहजता! अध्यात्म के बढ़ने से बढ़ती है समता!! अंतस् को भिगो देती है यह वार्ता... तारंगा क्षेत्र की है यह घटना गुरूवर आसीन थे गुफा में नयन आर्द्र थे करूणा के जल से, लीन थे किसी गहन चिंतन में तभी दीक्षित शिष्याओं ने गुफा में प्रवेश कर त्रियोग से नमन कर निहारा आचार्य श्री को… शुद्धोपयोग दशा में करते आत्म क्रीड़ा, लेकिन शुभोपयोग में आते ही देख जीवों की दशा गुरू मन में भर आयी पीड़ा। शिष्या ने सोचा मन ही मन... हे दयानिधान! आपकी चेतना क्यों है आज चिंतित? आत्मा क्यों है इतनी व्यथित? कुछ क्षण बनी रही स्तब्धता… पूरी तरह नीरवता… कहाँ से बात करें प्रारंभ कुछ समझ में नहीं आ रहा? तभी गुरु के खुले नयन, शिष्या ने किया निवेदन सुनना चाहते हैं गुरूदेव! आपश्री का गहन चिंतन, तभी गुफा की तरफ संकेत कर बोले गुरुवर इन सब पृथ्वीकायिक जीवों का क्या होगा? वहीं पर छोटे-छोटे पौधों की तरफ करके इशारा कहने लगे यतिवर इन जीवों का उद्धार कैसे होगा? नहीं है इनके पास समझने को मन चाहे कितना भी सोचूँ मैं इनके बारे में, पर नहीं जानते ये... कैसे हो अपना कल्याण? मंदिर बन भी गया पृथ्वी पे अभिषेक भी हो गया जल से दीया जल भी गया अनल से वायुकायिक संत को छू भी रहा, लेकिन वे तो जानते नहीं कुछ एक ही इंद्रिय है पास इनके तोड़ते-काटते मसाला भरते आग पर रखते तो कभी तलते वनस्पति की वेदना जान सकते हैं सर्वज्ञ भगवंत। कब होगा इनके दुःखों का अंत?? कहते-कहते नयनों में भर आया जल... आगे कुछ बोल नहीं पाये संत। पर-पीड़ा में भीगे गुरु को देख यूं प्रथम बार... आँखें सबकी भर आयीं शिष्या बोली करके नमस्कार हे दयासिंधु यतिराज! ऐसी करूणा भाव से ही आप श्री पहुँच जायेंगे मोक्षनगर सुनते ही कहा गुरू ने मुझे चिंता नहीं अपने मोक्ष की चिंतित हैं- क्या होगा इन जीवों का? कब होगी पहचान इन्हें निजातम की? कब टूटेंगे बंधन इनके मिटेंगे भ्रमण भव-भव के? तुम सुन सकते हो बात यह, किंतु ये तो सुन भी सकते नहीं तुम कह सकते हो बात अपनी, किंतु ये तो कुछ कह भी सकते नहीं। कहते-कहते दयालु गुरू हो गये मौन... गला रूंध-सा गया सोचती रही शिष्या आखिर ये हैं कौन संत हैं या भगवंत? प्राणी मात्र के प्रति दया से भीगा है समूचा जिनका मन, ऐसे ही संत करते तीर्थंकर प्रकृति का बंधन उनके श्रीचरण में अगणित वंदन… समता के धनी संत को पा . प्रकृति में उमड़ आयी अपूर्व पुलकन... समय था दोपहर का गढ़ाकोटा से विहार हुआ गुरूवर का, ज्यों ही पुल तक आया संघ पाँच फीट पानी पुल पर देख रह गये दंग कैसे होगा रास्ता पार? दिख नहीं रहा मार्ग शिष्यगण सोच रहे मन में… कि सहजता से मुस्कुराते हुए बोले गुरूवर विषय-कषायों के मैले जल से। भरा हुआ है संसार-समंदर उसे पार करने का संकल्प है जब तो इतने से जल से क्या डर! सभी कर लीजिए एक सामायिक आदेश मान गुरू का हुए शिष्य ध्यान में लीन ज्यों-ज्यों मन चेतन में रमने लगा, नयन खुले तो पाया पानी पुल के नीचे आ गया अजब करिश्मा हुआ... प्रकृति ने भी गुरू आदेश का पालन किया। हँसते हुए शिष्यों से कहकर चल दिये गुरुराज रूको मत, चलिये साथ अभी तो करना है भवसागर पार!! शिवपथगामी महासंत चले जा रहे कदम दर कदम आज पुलक उठी है प्रकृति, जो हैं आध्यात्मिक यति करके उनसे रति। महिमा जिनकी दिनोंदिन बढ़ती जा रही कीर्ति स्वयं गुरू का गुण-कथन कर रही विज्ञान की देन है भौतिक प्रगति जबकि धर्म की देन है सन्मति, गति-सन्मति दोनों हैं पास जिनके वह क्यों न करे प्रगति? वास्तव में गति ही प्रगति को संभव कर सकती सम्यक् मति ही चुनौती स्वीकार कर सकती इसीलिए अंतर्यात्रा की ओर पल-पल गतिमान हैं जो उनके गुणों से हो जाती सहज रति!
  11. यहाँ पर भी घटी कुछ ऐसी घटना गुरूवर जब पहुँचे थूबौन क्षेत्र तभी अशोकनगर, गुना के भक्त विनम्र हो करने लगे निवेदन यहाँ कैसे हो सकता है चौमासा संपन्न? कर नहीं पायेंगे यहाँ हम व्यवस्था नदी-नालों से भरा है रास्ता, इसीलिए हम आए आपकी शरण... कृपा कर चलिए हमारे नगर गुरु ने कुछ नहीं बोला। तीव्र ज्वर से ग्रस्त हुआ तन साथ ही बुखार से पीड़ित सर्व शिष्यगण पूरा माह यों ही बीता अस्वस्थ पुण्य-योग से ज्यों ही हुए कुछ स्वस्थ प्रथम प्रवचन का प्रारंभ किया प्रश्न से जो स्वस्थ हैं, स्वयं में मस्त हैं उसकी की जाती है व्यवस्था? या जो हैं भोगों में अभ्यस्त जिसका जीवन है अस्त-व्यस्त उसकी की जाती है व्यवस्था? सभी ने कहा एक स्वर से- जो अस्त-व्यस्त हैं। तभी अगला प्रश्न कर दिया “अस्त-व्यस्त मैं हूँ या तुम?” सबके चेहरे हो गये नम अनुत्तरित थे सभी जन, शांत मन से कहा संत भगवंत ने क्या तुम कर पाओगे मेरी व्यवस्था? या मैं सुधारूं तुम्हारी अवस्था? यदि तुम्हारी वर्तमान अवस्था सँवर जायेगी तो निकट भविष्य में ही मुक्ति की व्यवस्था हो जायेगी। तालियों की गड़गड़ाहट के साथ सभी ने झुकाये माथ कर ली अपनी गलती स्वीकार...
  12. निहार कर इनकी वीतराग मूरत एक महानुभाव से रहा न गया भाव विभोर होकर मन का उद्गार प्रगट कर दिया देख आपको भक्त अपनी सुध-बुध भूल जाता है। एकटक बस निहारता रहूँ ऐसा मन कहता है...। सुनते ही पाटलसम अरूण अधर खोल गांभीर्य मुद्रा में बोले गुरूदेव अब करो कुछ ऐसा कि आतम की सुध आ जाये एकाग्रता से करो अंतर्पुरुषार्थ कि उपयोग एक निजातम पर टिक जाये, परम प्रभु को निरखो एकटक जिससे निज प्रभु दिख जाये।
  13. मन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/anya-sankalan/man/
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