कर सकते जो स्वयं का स्वयं से मिलन
प्रभु की आज्ञा का पालन .
प्रकृति भी करती विनम्रता से
ऐसे संतों की आज्ञा का पालन,
बाह्य चमत्कार से परे
चैतन्य चमत्कार में रमे
स्वानुभवी आचार्यश्री
भवसागर की लहरों से बचकर ही
किनारे-किनारे सँभल-सँभलकर संयम से
चले जा रहे थे... चले जा रहे थे…
पवित्र हो यदि मन तो
आसमान की ऊँचाई से भी
अधिक उन्नत हो सकता है,
मलिन हो यदि मन तो
नरक लोक से भी
और नीचे तक जा सकता है,
मन का दुर्गुण है यह कि
करता स्व का विस्मरण
पर का रखता स्मरण
तभी तो रहता मलीन
तन में सदा तल्लीन,
किंतु संत निरखते नहीं तन को
न ही चंचल मन को
वे तो निरखते हैं नित
जिन भगवन् सम निज चेतन को।
संसारी विकारों में जीता है
संन्यासी विकारों को जीतता है,
सज्जन डरता है दुष्कर्म करने से
दुर्जन नहीं,
भोगी डरता है साधना से
योगी नहीं,
कोयला डरता है अग्नि परीक्षा से
हीरा नहीं,
मृदु पाषाण डरता है छैनी के प्रहार से
प्रतिमा का पत्थर नहीं,
पाप से परे रहते संत
निडर हो स्वात्म में रमते भावी मुक्तिकंत!
गुरु के जाप से
कट जाते तत्क्षण ही पाप
गुरू-भक्ति से
भक्त को हो जाता पूर्वाभास
सँभल जाता वह आगत संकट से,
कितना ही तीव्र पापोदय हो
घबराता नहीं वह गुरू-कृपा के प्रभाव से
बुंदेलखंड के एक नगर का किस्सा है यह
गुरु नाम का नित्य जाप करता था वह
घर में थी सुंदर तस्वीर गुरू की।
दीप जलाकर भाव से नमन करता था वह,
एक दिन करते-करते जाप
अंदर से आयी आवाज़
इस कक्ष का सारा कीमती सामान
रख आओ दूसरे स्थान
उठकर अचिन्त्य ने किया वही काम
शाम ढली रात घिर आयी...
अचानक अर्द्ध रात्रि के समय
धू-धू कर आग लग गयी।
ज्यों ही खुली नींद
पत्नी जया जोरों से चिल्लायी
माँ जागो! जागो माँ!
सब कुछ जल गया
सब कुछ लुट गया
बर्बाद हो गये हम!
रोती हुई पत्नी ने कहा
अजी जागो! अभी तक सो रहे हो तुम!
रखे थे जहाँ स्वर्णाभूषण
डेढ़ करोड़ रुपया व कागज महत्त्वपूर्ण
सब जलकर हो गया खाक
हमारी तो जिंदगी हो गई साफ,
दिलासा देते हुए बोला अचिन्त्य
चिंता क्यों करती हो जया
रोती क्यों हो माँ?
अपना सब कुछ है अपने पास
अपनी श्रद्धा पर रखो विश्वास।
गुरूभक्ति से पहले ही हो गया मुझे आभास
इसीलिए तो शाम को ही
मैंने कक्ष कर दिया था खाली
गुरु की महिमा है निराली!
अरे! वे तो कर्मों की आग में जलते चेतन को
बचाने की रखते हैं सामर्थ्य
तो फिर गुरूभक्ति से जड़ धन को
बचा लिया इसमें क्या है आश्चर्य?
जिनकी पूजा कर हो जाते स्वयं पूज्य
जिनकी वंदना से हो जाते स्वयं वंद्य,
ऐसे महिमावंत गुरु की भक्ति में
ज्ञानधारा लीन हुई स्वयं
उछलती हुई ज्ञान-बिंदुओं के बहाने
कह गई संत की महिमा
कि छोटे से बड़ा तो पागल भी हो जाता है
गर्दभ, डाकू, श्वान भी दिन बीतने पर
हो जाता है बड़ा,
किंतु श्रेष्ठ होने का संबंध
न काल से है, न कल से है
न समय से है, न शरीर से है
अपितु समय का सदुपयोग करता हुआ
समय अर्थात् निजात्मा जान ले
अपनी शक्ति को पहचान ले
वही है महात्मा!
भविष्य का भगवान आत्मा-परमात्मा।
जिनकी कृपा-दृष्टि मात्र से
गूंगे भी हो जाते वाचाल
करुणाभरी नज़र पा करके
निर्धन हो जाते मालामाल
लंगड़े की बदल जाती है चाल,
बाह्य जगत की क्या बात करें?
अंतर्जगत् में पाकर स्वयं को
हो जाता वह निहाल!
प्रत्यक्षीकरण हुआ इस बात का
मुक्तागिरी की घटना से
जब श्रीफल चढ़ाकर दर्शन किया,
मूक बालिका सुकन्या ने भाव से...
कोशिश कर रही आचार्य श्री से कुछ बोलने की
करुणाभरी दृष्टि पड़ी उस पर गुरू की।
किया संकेत गुरु ने
जाओ वंदना करो पहाड़ की
चल पड़ी वह पर्वत की ओर...
मन में अपार वेदना लिए
“हे प्रभो!
मैंने आखिर कौन से पाप किये?
‘नमोऽस्तु' तक बोल नहीं पाई
भक्ति भी ना कर पाई
नहीं बोलना चाहती जगत से
बस बोल सकूँ एक बार जगतगुरु से
यही प्रार्थना है प्रभु आपसे”
यूँ उत्तम भावना से भरकर
पर्वतराज से उतरकर
ज्यों ही पहुँची गुरु-चरण में
अश्रु छलक आये नयन से...
पढ़ ली गुरू ने आँसुओं की कहानी
स्नेह से उँडेल दिया आशीर्वाद का पानी
अवरूद्ध कंठ से वचन हो गये प्रवाहित
जैसे गिरि से फूट गया हो झरना कोई...
अठारह वर्ष की उम्र में आज प्रथम बार
हो गया अदभुत चमत्कार…
बोल गई सुकन्या ‘‘न...नमोऽस्तु”
“आचार्य विद्यासागर महाराज की जय
करुणा के सागर
विद्यासागर महाराज की जय
अनंत उपकारी विद्यासागर महाराज की जय
मुक्तागिरि सिद्धक्षेत्र की जय-जय-जय”
सच ही है
गुरूकृपा से मूक भी हो जाते मुखर
वाचाल भी हो जाते मौन!
जो अनेक भाषाविद् माने जाते विद्वत्-प्रवर
वे भी पूछते गुरु से आखिर ‘मैं’ हूँ कौन?
शरणागत पा जाते सम्यक् समाधान
पुलकित होते पाकर गुरु से ज्ञान।
अदभुत थे वह प्रत्यूषा के क्षण
सत्य था वह नहीं था स्वप्न
जब गुरु के निकट पहुँचा एक भक्त,
ध्यान में थे गुरू लीन
वातावरण था शांत निःशब्द
अधर थे बंद पूरी तरह निस्पंद...
फिर भी मंद स्वर में ओंकारनाद...
कहाँ से आ रही यह आवाज़?
देखा इधर-उधर पर कुछ समझ नहीं पाया
दूर...दूर... तक थी खामोशी
वह संत के अति निकट आया,
ज्यों-ज्यों आता गया समीप
ओम् ध्वनि का स्वर बढ़ता गया अधिक;
क्योंकि यह अनहद नाद
कहते हैं जिसे अजपा जाप
कहीं और से नहीं था ध्वनित,
चिन्मय में डूबे संत की धड़कनों से
जीवंत ध्वनि हो रही गुंजित,
ग्रंथों में पढ़ा था कभी भक्त ने
संतों के हृदय से उठती है यह झंकार
आज हुआ इसका साक्षात्कार!
साधक को सहस्रारचक्र की गहराईयों तक
ले जाता है यह प्रतिध्वनित ओंनाद…
जो मोह से बच गये
वो मोक्ष के निकट पहुँच गये,
जैसे-जैसे समीप होता है मोक्ष तत्त्व
क्षरण होते हैं दुष्कर्म भी
जैसे-जैसे प्रगट होता है देवाधिदेवत्व
शरण में आते हैं देव भी!
प्रथम बार गुरुवर आये
सिद्धक्षेत्र नैनागिरि...
शाम को लौट जाते सब श्रावक
जब अपने-अपने घर
तब गुरु को लीन देख ध्यान में
रात के गहन सन्नाटे में...
छम-छम बजती घुंघरुओं की स्पष्ट आवाज़
गुरु के कक्ष तक जाती...
सुनी शिष्यों ने अपने श्रवण से।
जैसे अभिन्नदशपूर्वी का अभिवादन करते
देवतागण फूले न समाते
वैसे ही सुरगण यहाँ नृत्यगान करते,
किंतु दृष्टिगोचर नहीं होते।
समझ गये वे कोई और नहीं ये
गुरुदेव के भक्त हैं ये!
दिन में मनुष्य तो रात्रि में देव आते।